संयुक्त राष्ट्र किसी की बपौती नहीं है, तो फिर चीन की हेकड़ी क्यों?
संयुक्त राष्ट्र (न्यू यॉर्क), 16 सितम्बर (हि.स.)। संयुक्त राष्ट्र अपने मूल उदेश्य हासिल करने में भटक रहा है, लेकिन विश्वयुद्ध के पश्चात पारस्परिक सहयोग के लिए गठित इस वैश्विक संगठन को सफलता के शिखर तक पहुंचने के लिए प्रयास जारी हैं। इन उद्देश्य को लेकर मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हो गया है। संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वर्षगांठ पर 22 से 29 सितम्बर तक महासभा की आनलाइन वर्चुअल बैठक होगी। इसमें भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी एक रिकार्ड किए गए वीडियो से 26 सितम्बर को महासभा को संबोधित करेंगे।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुतेरस ने मंगलवार को कहा कि दुनिया बहुत उम्मीदें लगाए बैठी है। एक नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय प्रणाली पर सहयोग के बावजूद बहुपक्षवाद की प्रकृति बदल रही है। 21सवीं सदी के लिए अधिकाधिक नेटवर्क और समावेशी बहुपक्षवाद की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों, देशों के प्रमुख समूहों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के बीच पारस्परिक विश्वास और सामंजस्य को मजबूत किए जाने की ज़रूरत है। उनका कहना था कि मौजूदा कोरोना महामारी और दुनिया भर की चरमराती अर्थ व्यवस्था को देखते हुए सतत विकास के लिए साल 2021 एकता और एकजुटता के लिए महत्वपूर्ण होगा।
गुतेरस ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ तीसरे विश्व युद्ध को टालने में भले ही सफल रहा है, इसके बावजूद यह ऐसे संकटों से जूझ रहा है, जो कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। सीरिया, यमन और लीबिया में युद्ध के संकट पर विराम नहीं लग रहा है, तो इज़राइल और फ़िलिस्तीन का संकट तो संयुक्त राष्ट्र के गठन जितना पुराना है। एक कटु सत्य यह है कि संयुक्त राष्ट्र किसी एक की बपौती नहीं है, फिर भी चीन की हेकड़ी जारी है।
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में शरणार्थियों की संख्या पहले से दोग़ुना हुई है। दुनिया में ख़ासतौर से अफ़्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में भुखमरी से 26 करोड़ 50 लाख लोग बिलबिला रहे हैं। इस वर्ष कोरोना महामारी से संकट और गहरा गया है। इस महामारी से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सम्मुख 10 अरब डालर एकत्र करने की ज़िम्मेदारी थी, तो बड़ी मुश्किल से एक चौथाई अंश ही एकत्र हो पाया है। संयुक्त राष्ट्र के सम्मुख सन 2030 तक पूर्ण साक्षरता, अमीर-ग़रीब में बढ़ती खाई को कम करने, लिंग भेद को समाप्त किए जाने जैसे मुद्दे चुनौतीपूर्ण हैं। सीरियाई शरणार्थी समस्या पर अंकुश नहीं लग पा रहा है तो म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय के नरसंहार की गाथाएं मीडिया की सुर्ख़ियाँ बटोर कर रह गई हैं। वेनेज़ुएला में लाखों बच्चे कुपोषण के शिकार है। ये ऐसी चुनौतियाँ, जिन पर अगले कुछ दिनों में विचार होना है।
पिछले 75 सालों में संयुक्त राष्ट्र इसके गठन के समय 50 देशों की तुलना में अब 193 सदस्य देशों के साथ एक वटवृक्ष का रूप ले लिया है। इसके दुनिया भर में 44 हज़ार कर्मचारी हैं, क़रीब दस अरब डालर का बजट है लेकिन इसकी 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद में विश्व युद्ध के विजेताओं के रूप में इसके पांच स्थायी सदस्यों- अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन, चीन और रूस के पास वीटो अधिकार हैं, आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में सैन्य टुकड़ियां तैनात किए जाने के अधिकारों के कारण संयुक्त राष्ट्र महासभा की स्थिति को गौण बना दिया है। इस सुरक्षा परिषद के मूल ढांचे में परिवर्तन अथवा इसके स्थायी सदस्यों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ क्षेत्रीय संतुलन की जब भी कोई बात सिरे चढ़ती है, उसे वीटो अधिकार के आवरण में दबा दिया जाता है। इस कड़ी में भारत को स्थायी सदस्य बनाए जाने के मामले जहां के तहां दबे रह गए है। इस तरह संयुक्त राष्ट्र वटवृक्ष की भूमिका में विफल रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की सस्थाओं पर चीन के बढ़ते अंकुश से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोलसोनारो ने तीखी प्रतिक्रियाएं की हैं। ट्रम्प ने संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को चीन का ‘माउथ पीस’ कहा है, तो बोलसोनारो ने कहा है कि यूएन मानवाधिकार परिषद साम्यवादी मंच है। यही स्थिति यूएन पापुलेशन फ़ंड की भी है। अब सवाल यह भी उठ रहे हैं कि चीन अपने पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में उईगर मुस्लिम समुदाय के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करने के बावजूद टस से मस नहीं हो रहा है?