टैक्स मंदिर दे, लुत्फ मौलवी साहब उठाएं ऐसा लंबे समय तक नहीं चलेगा : स्वामी हरिगिरि जी

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महाकुम्भ, 11 फरवरी। महाकुम्भ ने अब समापन की दिशा में कदम बढ़ा दिये हैं। अखाड़ों ने काशी की ओर प्रस्थान कर दिया है। टेंट-तंबू उखड़ने लगे हैं। झोला-चिमटा का दौर अब कुछ दिन ही देखने को मिलेगा। लेकिन यह समापन सदा के लिए नहीं है। यह तो मात्र एक रस्म है जो प्रयागराज से निकलकर काशी पहुंची है। इस वादे के साथ कि हरिद्धार अर्धकुम्भ में फिर से जुटान होगा। प्रस्थान की यह परम्परा सधुक्कड़ी परंपरा का अभिन्न अंग है। ऐसे में सहज जिज्ञासा यह है कि इस प्रस्थान का क्या महत्व है? इस परंपरा पर विस्तार से प्रकाश डाला जूना अखाड़े के अंतरराष्ट्रीय संरक्षक एवं अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री स्वामी हरिगिरि जी ने। प्रस्थान की सनातन परम्परा के अलावा विविध विषयों पर स्वामी हरिगिरि जी से हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य समन्वयक एवं कुम्भ प्रभारी राजेश तिवारी ने बातचीत की……

प्रश्न : सनातन पर लोग उंगली उठाते रहते हैं, इसकी क्या वजह है?उत्तर : जो भी सनातन के विरूद्ध बोलते हैं, मेरा दावा है कि उनकी समझ सनातन को लेकर न के बराबर है। भला इससे बड़ा हृदय किस संप्रदाय या स्वघोषित धर्म का है। अगर आप पढ़ेंगे तो सनातन के विषय में जानेंगे। अगर पढ़ना नहीं है ते कम से कम पढ़े-लिखे का सानिध्य प्राप्त करें। ‘संगत से गुण होत हैं, संगत से गुण जात’। गुरु या विद्वान के चरणों में बैठकर यह प्रश्न पूछें। उत्तर दिया जाएगा। समझाया जाएगा। नहीं तो फिर पागलों के प्रलाप पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। मोबाइल पर रील देखकर, कम्युनिस्टों द्वारा दिया गया धर्म-विरोधी तर्क सुनकर कोई सनातन की व्याख्या करने लगेगा तो हम क्या कर सकते हैं।

तर्क न्यायपूर्ण और सुसंगत होने चाहिए। जो सनातन पर उंगली उठाते हैं, वे हमसे आकर मिलें। तर्क करें। फिर मैं उन्हें समझाऊंगा, डरा कर नहीं, लाठी के जोर से नहीं, न्यायपूर्ण तर्क, तथ्य और साक्ष्य के आधार पर। लोगों के सनातन के विरूद्ध उंगली उठाने की वजह हमारी उदारता है। यही उदारता हमारी पहचान को महान बनाती है। अन्यथा आप दूसरे धर्म पर उंगली उठाकर देख लें, पता चल जाएगा। हमारी उदारता कमजोरी नहीं है। समावेशी भाव का द्योतक है। यही हमारा संबल भी है।

प्रश्न : विरोधी यह प्रचार करते हैं कि सनातन धर्म में लोगों का शोषण किया जाता है। जाति-पाति को भी बढ़ावा दिया जाता है। इस पर आपका क्या कहना है?उत्तर : विश्वास रखिए ऐसा कहने वाले लोग नासमझ हैं। हमसे मिलवाइए, फिर बताते हैं। रैदास किस जाति के थे। गुरु गोरखनाथ के साथ हुआ संवाद पढ़ लीजिए। व्यवहार देखिएगा। फिर उंगली उठाइएगा कि इस धर्म में जाति-पाति को बढ़ावा दिया जाता है या नहीं। कबीर के बारे में क्या मत है? कबीर ने अपना धर्म परिवर्तन तो नहीं किया था। धर्म में प्रवेश कर चुकी बुराइयों पर उंगली उठाना तो अच्छी बात है। मैं भी तो यही करता हूं।

 

पानी गंदा हो जाए तो पानी को फेंक दिया जाता है, और पात्र में पुनः पानी भर दिया जाता है। क्यों? क्योंकि प्यास तो पानी से ही बुझेगी। यही काम कबीर करते रहे। इसमें धर्म की अवहेलना जैसी तो कोई बात नहीं हुई। और की तो छोड़िए महर्षि वाल्मीकि के बारे में आप क्या कहेंगे। ‘रामायण’ जिन्हें हर सनातनी प्राण से भी ज्यादा सम्मान देता है। उस पर लोग क्यों नहीं कहते। राम शबरी के जूठे बेर खाकर क्या संदेश देना चाहते होंगे? जरा उनसे जाकर भी पूछिएगा जो ऐसे प्रश्न करने में ही अपनी बहादुरी समझते हैं। हां, हमारे धर्म में जाति-पाति तो है, लेकिन ऐसी कि अगर एक गलती शुद्र वर्ण के लोग करेंगे तो दस कोड़े और ठीक वही गलती ब्राह्मण करें तो सौ कोड़े। यही तो जाति-पाति है। जिसका जितना बड़ा और पूज्य स्थान और दायित्व उसके प्रति उतनी ही कठोरता।

प्रश्न : सनातन धर्म पर यह भी प्रश्न खड़ा किया जाता है कि इसमें किसी का प्रवेश वर्जित है। अन्य धर्म को छोटा बताना और खुद को बड़ा बताना यही इसकी पहचान है?उत्तर : ऐसा है क्या? आप लोग कुछ भी बोलते रहते हैं। सनातनी ने सबको मान दिया है। सब की बात पर मुहर लगाता है। सबको अपना और अपने जैसा समझता है। यही तो सनातन की वास्तविक पहचान है। पुत्र अगर मार्ग से भटक जाए और कहे कि तू तो मेरा पिता नहीं है, तो पिता उस स्थिति में भी स्थितिप्रज्ञ भाव से कहेंगे कोई बात नहीं। मैं तेरे लिए पिता नहीं हूं लेकिन तू हर स्थिति में मेरा पुत्र ही रहेगा। यही तो बड़प्पन है, सनातन धर्म का।

गुरु गोविंद सिंह को किसने मार्ग दिखाया। खोजिए तब पता चलेगा। गुरु ग्रंथ साहिब को पढ़कर देख लीजिए। हेमकुंड का इतिहास पढ़ लीजिए। सारा भ्रम दूर हो जाएगा। फिर मेरे पास आइएगा। मैं एक-एक पद का भावार्थ समझाऊंगा। जिसकी व्याख्या किसी-न-किसी ग्रंथ में सनातनियों ने पूर्व में ही कर दी है। हम तो अनादि हैं। किसी को तिरस्कृत नहीं करते हैं। हम बड़े हैं इसका प्रमाण पत्र हम खोजते नहीं फिरते। बड़ा तो वह होता है जो सामने पड़े छोटे को भी बड़ा होने का एहसास कराए। रही बात धर्म की, तो हमारा यह मानना है कि हम सब धर्मो में प्राचीन है, हम सबके पूर्वज हैं। हमारे पास इसके साक्ष्य हैं। ईसाई धर्म के प्रणेता यीशु मसीह हमारी परंपरा से दीक्षित हैं। और जिसको भी इस पर प्रमाण चाहिए उन्हें हम लाकर देंगे। भला अपने ही वंश के शाखा को कोई क्यों कर छोटा बताएगा।

प्रश्न : महाकुम्भ से अखाड़े काशी की ओर जा रहे हैं। साधु-संत काशी प्रस्थान कर रहे हैं, इस परंपरा के बारे में बताएं?उत्तर : यह हमारी परंपरा के अनुसार हो रहा है। देवों के देव महादेव-सब कुछ उन्हीं से है और पुनः, सब कुछ उन्हीं में है। संरचना से संहार के देवता के प्रति अपने कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए ही काशी प्रस्थान करते हैं। क्यों करते हैं? इसकी बड़ी लंबी-चौड़ी कहानी है। संक्षेप में बताएं दे रहा हूं कि सारे गुरुओं के गुरु भगवान शिव हैं। इसीलिए सारे अखाड़े और संत-सन्यासी परंपरा के लोग अपने ‘गुरुओं के भी गुरु’ के प्रति आदरांजलि का भाव व्यक्त करने के लिए काशी जाते हैं। शिव जीव स्वरूप में है। छोटी ‘इ’ की मात्रा हटाकर देखिए। फिर वही जीव शव है। इस होने से लेकर न होने के भाव को समझने के लिए ही काशी जाया जाता है। महापर्व की भी एक सीमा होती है। फिर धर्म-कर्म भी तो करना रहता है। इसीलिए कढ़ी-चावल खाकर अपने-अपने ध्वज निशान साहिब को उतारा जाता है। उसके बाद फिर काशी की ओर प्रस्थान किया जाता है।

प्रश्न : लेकिन काशी ही क्यों?उत्तर : बताया तो। फिर बता रहा हूं। काशी को धरती से अलग बताया जाता है। काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर बसा है। इसका एक आध्यात्मिक संकेत भी है। त्रिशूल त्रिताप का द्योतक है। और संसार में रहकर संसार का न होना ही तो संन्यास है। जितने नाथ संप्रदाय हैं सभी काशी के ही परंपरा से निकले हैं। समय थोड़ा आगे पीछे हो सकता है। अपने गुरु घराना वंश के बीज के प्रति आदर भाव व्यक्त करने के लिए काशी जाते हैं। वहां से फिर अयोध्या और अयोध्या में नववर्ष को मना कर अपने-अपने स्थान की ओर लौट जाते हैं। जहां से अपने दैनिक आचार-व्यवहार को संपादित किया जा सके।

प्रश्न : आदिवासी समुदाय सनातनी है क्या?उत्तर : बिल्कुल है। एक तरह से कह लीजिए कि हम उन्हीं से तो हैं। मानव जाति आदिकाल में जंगल में ही निवास करती थी। …..जंगल ही क्यों? क्योंकि जंगल सबका पेट भर सकता है। शहर बने भला कितने दिन हुए हैं। सनातन परंपरा में प्रकृति को ब्रह्म स्वरूप माना जाता है। वेदों की ऋचाएं सबसे ज्यादा प्रकृति से ही संबंधित है। फिर हम उनसे या वह हमसे अलग कैसे हो सकते हैं। यह बहुत ही बड़ा और खतरनाक विचार है। जिसे कुछ क्षुद्र प्रवृत्ति के नेता हवा देते रहते हैं। जिस तरह से सनातन अनादि है, इस तरह से मानव में आदिवासी भी आदि (शुरुआत) है। इस तरह की बातों को हवा देने में धर्मांतरण का बहुत बड़ा हाथ है। पीपल को ब्रह्म स्वरूप, नीम को जगदंबा मानकर हम लोग भी तो पूजा करते ही हैं। शबरी और केवट की कहानी इस पक्ष के लिए बहुत मजबूत तर्क हो सकते हैं।

प्रश्न : प्रकृति की स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती जा रही है। आपका क्या मत और संदेश है?उत्तर : मत बाद में व्यक्त करूंगा। पहले संदेश दे रहा हूं। प्रकृति को बचाइए नहीं तो बहुत बुरा परिणाम भोगना पड़ेगा। रही बात मत की तो इससे पहले वाले प्रश्न में अपना मत व्यक्त कर चुका हूं। खैर! इसे एक उदाहरण से समझते हैं। दस क्विंटल युक्त पीपल को तैयार होने में बीस बरस लगता है। एक पीपल बीस साल में पंद्रह करोड रुपए का ऑक्सीजन देता है। अब आप ही बताइए की प्रकृति को बचाया जाना कितना जरूरी है। कोरोना काल में बीस लीटर का ऑक्सीजन का सिलेंडर दस से बीस हजार में मिल रहा था। उसके लिये भी मार-काट मचा हुआ था। हम जरूरत को ध्यान में रखकर व्यवहार करते हैं। लेकिन मामला उलट दीजिए तो हमारी प्रकृति फिर से हरी-भरी हो सकती है, हो जाएगा।

प्रश्न : अयोध्या के तर्ज पर सीतामढ़ी में सीता माता का भव्य मंदिर बनाने की लगातार मांग उठ रही है। आपका क्या विचार है।उत्तर : जरूर बनना चाहिए। हमसे जो बन पड़ेगा वह हम करेंगे। जहां से जिससे कहना होगा, कहेंगे! सीता मईया आदि महालक्ष्मी हैं। लेकिन सीतामढ़ी एक जगह तो है नहीं। मेरी ही जानकारी में हजार स्थल से ऊपर है। लेकिन एक जगह तय करके, इस पर काम किया ही जाना चाहिए।

वास्तव में सीता मईया का जन्मभूमि सीतामढ़ी का पुनौरा गांव ही है। मि​थिलांचल तो तपोभूमि है, यहां आज भी सबसे ज्यादा आईएएस व आईपीएस हैं, लेकिन उनका मिथिला के लिए योगदान नहीं है। मुझे लगता है कि सीता मईया का कोई-न-कोई श्राप है। मिथिलावासियों को विशेष ध्यान देना चाहिए। मैं तो वहां पर 270 फीट लम्बा त्रिशूल और सीता मईया की 230 फीट की मूर्ति खड़ा किया हूं। वहां पर भव्य मंदिर बने, यह भी मेरे एजेण्डे में है। भला मंदिर बने इससे हम संत समाज को क्या परेशानी होगी।

प्रश्न : सरकारी नियंत्रण से मंदिरों को मुक्त किया जाना चाहिए?उत्तर : बिल्कुल, किया जाना चाहिए। इस दिशा में लगातार काम हो भी रहा है। लेकिन यह रास्ता बहुत कठिन है। सरकार को मंदिरों से बड़ी आय प्राप्त होती है। कौन सरकार इसे छोड़ना चाहेगी। मेरा कहना है कि जब तक सरकार के नियंत्रण से मंदिर मुक्त नहीं होते हैं, तब तक सरकार को गिरिजाघर, मस्जिद और भी अन्य धर्मस्थलों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा मंदिरों के साथ हो रहा है। अन्यथा इस कार्य से धर्म और धन दोनों की क्षति हो रही है। टैक्स मंदिर दे लुत्फ मौलवी साहब उठाएं, मदरसे चलाएं। ऐसा लंबे समय तक चल पाना संभव नहीं है। सरकार समय रहते चेत जाए तो ठीक रहेगा।

प्रश्न : धर्मांतरण पर क्या कहना है?उत्तर : मत कीजिए। बंद कीजिए। नहीं तो अब घर वापसी होगी। रास्ता खोल दिया गया है।

प्रश्न : महाकुम्भ के माध्यम से युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?उत्तर : एक रहिए, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’-यह शत प्रतिशत सही बात है। राष्ट्रहित में काम कीजिए। धर्म को प्राण से भी ज्यादा प्यार करना होगा। मान देना होगा। अपने अतीत के गौरव से परिपुष्ट रहें। कुछ भी करने से पहले यह जरूर सोचें कि इससे समाज और देश को क्या मिलने वाला है। बस फिर क्या है। सारे कार्य खुद-व-खुद सही होने लगेंगे। सही दिशा में जाना ही युवाओं का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। युवाओं के कंधों पर ही राष्ट्र का दायित्व होता है। इसे उन्हें समझना चाहिए।

हिन्दुस्थान समाचार / राजेश


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