पटना, 30 जून (हि.स.)। लालू यादव और उनका परिवार राष्ट्रीय जनता दल की ताकत भी है और कमजोरी भी। लालू यादव और उनके परिवार के बिना राष्ट्रीय जनता दल की कल्पना नहीं की जा सकती है। यही वजह है कि 6 जुलाई को होने वाली राष्ट्रीय जनता दल की कार्यकारिणी की बैठक में एक बार फिर पार्टी की कमान लालू यादव के हाथ में ही रखे जाने पर मुहर लगने की पूरी संभावना है, भले ही सजा पाने की वजह से लालू यादव इस बैठक में गैरमौजूद रहे। राजद की सियासत पर नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि लालू यादव और उनके परिवार को माइनस करके राजद की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है। इस हकीकत से राजद के नेता और कार्यकर्ता भी अच्छी तरह से वाकिफ है। इसलिए तमाम तरह की नाराजगी के बावजूद वे यह कतई नहीं चाहते कि राजद का नेतृत्व लालू यादव या उनके परिवार के हाथ से निकलकर किसी और के हाथ में जाये। एक तरह से सांगठनिक चुनाव के लिहाज से राजद कार्यकारिणी की यह बैठक रस्मी ही साबित होने वाली है। बता दें कि यह बैठक 6 जुलाई को पटना के एक होटल में हो रही है।
वैसे कार्यकारिणी की इस बैठक में 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद के प्रदर्शन पर भी रिपोर्ट पेश की जाएगी । राजद की हार की समीक्षा के लिए वरिष्ठ नेता जगतानंद सिंह के नेतृत्व में एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया था। इसके अन्य दो सदस्य थे राजद के महासचिव आलोक मेहता और अब्दुल बारी सिद्दीकी ।अपनी रिपोर्ट में इन लोगों ने खासतौर से कहा है कि चुनाव के दौरान राजद के निर्णयों को निचले स्तर तक ले जाने में पार्टी नाकाम साबित हुई है। मतलब यह है कि पार्टी की ऊपरी सतह पर जो फैसले होते थे वह जमीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं तक सही तरीके से नहीं पहुंच पाते थे। कहा जा रहा है कि कार्यकारिणी की बैठक में समीक्षा रिपोर्ट पेश किये जाने के बाद इस बिन्दु पर चर्चा हो सकती है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यह जरूरी भी है। लोकसभा चुनाव के समय से ही पार्टी के अंदर नेतृत्व के विभिन्न स्तर पर बेहतर तालमेल की कमी तो महसूस की ही जाती रही है। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही तो इसका खामियाजा राजद को भविष्य में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में भी भुगतना पड़ सकता है। इस बार राजद का शीर्ष नेतृत्व इस तरह की चूक करने के मूड में बिल्कुल नहीं है।
बिहार में राजद की मजबूती का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण माई (मुस्लिम और यादव) समीकरण रहा है। लालू यादव लंबे समय तक इसी समीकरण की वजह से बिहार में सत्ता पर काबिज रहे। लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह से भाजपा बिहार में पार्टी के अंदर यादव नेतृत्व को उभारते हुये यहां उनको अपनी ओर आकर्षित करने में लगी हुई है उससे राजद के शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर बेचैनी फैलना स्वाभाविक है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय प्रदेश की राजनीति से आगे निकल कर अब राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री की भूमिका में यादवों के बीच यह संदेश देते हुये प्रतीत हो रहे हैं कि भाजपा में यादवों का भविष्य कहीं ज्यादा बेहतर है। बिहार में यादवों की नई नस्ल को राजद की बजाये भाजपा में सक्रिय यादव नेतृत्व ज्यादा लुभा रहे हैं। इसी तरह से मुसलमानों के बीच भी अब यह धारणा जड़ जमाने लगी है कि बदली परिस्थिति में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद भाजपा से दो-दो हाथ करने की काबिलियत धीरे-धीरे खोता जा रहा है। एक संगठन के तौर पर राजद को फिर से मजबूती से खड़ा करने के लिए यह निहायत जरूरी है कि माई की ताकत फिर हासिल किया जाये। यह तभी मुमकिन में जब कार्यकारिणी के अंदर इन मसलों पर खुलकर चर्चा हो, जिसकी उम्मीद कम है। जानकारों का कहना है कि राजद के लोग अभी भी हकीकत से आंख चुराने की मनोवृति से बाहर नहीं निकले हैं।
लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद महागठबंधन के तमाम घटक दलों- कांग्रेस, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, रालोसपा और विकासशील इंसान पार्टी-के अंदर भी निराशा फैली हुई है। महागठबंधन के अस्तित्व को लेकर भी चर्चाओं का बाजार गर्म है। चूंकि व्यावहारिक तौर पर महागठबंधन का नेतृत्व राजद के हाथ में था इसलिए 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर महागठबंधन के अस्तित्व को बचाने की जिम्मेदारी भी राजद की ज्यादा है। राजद की कार्यकारिणी में इस मसले पर भी चर्चा हो सकती है। लालू यादव कांग्रेस को छोड़ने के पक्ष में नहीं है।
रघुवंश प्रसाद सिंह सहित राजद के अगड़ी जाति कुछ नेता भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि सरकारी नौकरिय़ों और शैक्षणिक संस्थाओं में गरीब तबके की अगड़ी जाति के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण का विरोध करना राजद के लिए महंगा पड़ा। कहा जा रहा है कि तेजस्वी यादव ने इस मसले पर गहन विचार- विमर्श किये बिना ही हो हल्ला मचाने लगे थे। इससे अगड़ी जाति के मतदाताओं में राजद की नकारात्मक छवि बनती चली गई। वैसे भी राजद में अगड़ी जाति के नेताओं की भारी कमी है। पार्टी में कुछ बचे -खुचे अगड़ी जाति के नेताओं का मामना है कि यदि वाकई में पार्टी को अगड़ी जाति के लोगों से जोड़ना है तो इसे नकारात्मक राजनीतिक से गुरेज करना होगा। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक दिन की बैठक में यदि समय रहा तो इस विषय पर भी चर्चा हो सकती है।
जानकारों का कहना है कि राजद चुनावी लाभ-हानि के गणित को दुरुस्त करने में इतना व्यस्त रहा कि महिलाओं के मसलों पर खास ध्यान देने की उसे फुर्सत ही नहीं मिली। यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि महिलों के मुद्दों को कभी उसने अलग से एड्रेस करने के विषय में सोचा ही नहीं। इसलिए महिलाओं की राजद से हमेशा दूरी बनी रही। कार्यकारिणी की बैठक के पूर्व राजद के अंदर दबी जुबान इस बात की चर्चा हो रही है कि व्यापक पैमाने पर राजद महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रहा है, जबकि एक सशक्त महिला किरदार के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी लंबे समय से राजद के नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभा रही हैं।