हरिद्वार में निर्दलीय उम्मीदवार ने दी थी मायावती और रामविलास को शिकस्त
हरिद्वार, 06 अप्रैल (हि.स.)। हरिद्वार लोकसभा सीट पर पार्टी उम्मीदवारों के अलावा निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी जीत दर्ज की थी। साल 1971 में अस्तित्व में आई हरिद्वार लोकसभा सीट पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने बड़े-बड़े दिग्गजों को धूल चटाई है। दिग्गज बसपा नेता मायावती और रामविलास पासवान जैसे नेता हरिद्वार लोकसभा में करारी शिकस्त का सामना कर चुके हैं।
हरिद्वार लोकसभा सीट को वर्ष 1971 में मिला वजूद
हरिद्वार लोकसभा सीट के इतिहास पर नजर डालें तो यहां कई राजनीतिक रंग देखने को मिले। कई उतार चढ़ाव आए। कई सियासी पार्टियों के दिग्गजों को निर्दलीय उम्मीदवारों के सामने हार का मुंह देखना पड़ा। यदि इतिहास पर गौर किया जाए तो साल 1952 से 1971 तक परवादून देहरादून सीट कहलाई जाती थी। नजीबाबाद, सहारनपुर, टिहरी और रूड़की को मिलाकर लोकसभा सीट बनती थी लेकिन साल 1971 में हरिद्वार लोकसभा सीट अपने वजूद में आई।
और…मायावती ने चखा हार का स्वाद
रूड़की, नांगल, लक्सर, हरिद्वार और देवबंद को मिलाकर इस सीट का अस्तित्व बना। साल 1999 में हरिद्वार लोसभा सीट को सामान्य सीट घोषित कर दिया गया। साल 1977 में हरिद्वार सीट पर जनता दल के भगवान दास राठौर चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। साल 1980 में दमकिया पार्टी के जगपाल सिंह ने कांग्रेस की शकुंतला देवी को शिकस्त दी।
साल 1983 में कांग्रेस के सुंदर लाल ने जनता दल के जगपाल सिंह को करीब एक लाख मतों से हराकर लोकसभा में प्रवेश किया। साल 1987 के उप चुनाव में मायावती, रामविलास पासवान सरीखे नेताओं ने हरिद्वार से चुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस के यूपी के गृह राज्य मंत्री राम सिंह को पार्टी नेताओं के भारी विरोध के बावजूद हरिद्वार से चुनाव मैदान में उतारा। कांग्रेस उम्मीदवार रामसिंह ने मायावती को करारी शिकस्त दी। साल 1967 में देश एक बार फिर चुनावी मोड में था। इस बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ लड़े जा रहे थे। इस बार के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार यशपाल सिंह ने राष्ट्रीय पार्टी के नेताओं को धूल चटा दी।
अब भीड़ जुटाने के लिए करने पड़ते हैं प्रयास
हरिद्वार से निर्दलीय लोकसभा पहुंचने वाले पहले सांसद यशपाल सिंह बने, जबकि इसी दौरान के विधानसभा चुनाव में महंत घनश्याम गिरि ने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी को हराया। ये राजनीति का वो दौर था जब नेताओं की बात सुनने के लिए लोग खुद व खुद चले आते थे। जनता घंटों गर्मी में भूखे-प्यासे अपने नेताओं के भाषणों को सुनती थी। नेताओं के भाषणों से जनता मंत्रमुग्ध हो जाते थे लेकिन बदलते दौर के साथ नेताओं की वाणी का आकर्षण भी कम हुआ है। नेताओं की भीड़ जुटाने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
नेताओं से हुआ मोहभंग
जनसभाओं में भीड़ लाने के लिए वोटरों के घरों पर कार और बसें भेजी जाती हैं। उनके भोजन का प्रबंध करना पड़ता है। इससे आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के नेताओं का विश्वास जनता से कितना कम हुआ है। नेताओं की वाणी का आकर्षण कम हुआ तो जनता का विश्वास भी अब वो नहीं रहा। जो तीन दशक पहले हुआ करता था।