सियासी संकट में ‘सैफई परिवार’
सैफई परिवार में समाजवादी पार्टी पर कब्जे को लेकर छिड़े संग्राम के शुरू में ही मुलायम सिंह के मुंह से कार्यकर्ताओं के बीच संबोधन में यह सच्चाई निकल गई थी कि उनके ऊपर अमर सिंह के बहुत एहसान हैं। उन्होंने ही मुझे और अखिलेश को आय से अधिक संपत्ति के मामले की सीबीआई जांच से बचाया था। मुलायम सिंह की इस साफगोई से उनके परिवार के लोग सकते में आ गये थे। प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि नेताजी कब क्या बोल जाएं पता नहीं। उनके बयान से तो यह ध्वनित हो रहा है कि जैसे अमर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई को मैनेज करके उन्हें बचा लिया हो।
मुलायम सिंह पर क्यों बलिहारी है भाजपा
मुलायम सिंह के संपर्क की जड़ें बहुत गहरी हैं। अगर उनके सम्मान में कोई कमी होती है तो भाजपा के नेता वेदना से बिलख उठते हैं। हाल में जब सपा के स्टार प्रचारकों की सूची में मुलायम सिंह का नाम नहीं भेजा गया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आत्मा चीत्कार कर उठी। ऐसा लगा कि अखिलेश नहीं, नेताजी के सगे पुत्र वे ही हैं। उन्होंने ट्विटर पर अखिलेश को लताड़ लगाई। उसके बाद आनन- फानन में मुलायम सिंह का नाम समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में जोड़ा गया।
मुलायम सिंह को गलत ढंग से प्रदत्त सरकारी मर्सीडीज कार अगर अखिलेश सरकार के जमाने में दी गई थी तो योगी ने भी उसे वापस नहीं मंगाने दिया। जबकि यह गाड़ी केवल मुख्यमंत्री के लिए अनुमन्य है। योगी ही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नेताजी का सम्मान करते हैं। मुलायम सिंह के बुलाने पर वे तेजू के विवाह समारोह में दौड़े-दौड़े सैफई चले गये थे और अपनी सारी व्यस्तता भूलकर घंटों मुलायम सिंह के परिवार के लोगों के साथ फोटो खिंचवाते रहे।
व्यस्तता का जिक्र इसलिए कि उनके समर्थक पहली बार 18 घंटे लगातार काम करने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उनका बखान कर देश के लोगों को उनके एहसान के बोझ तले कुचलते रहते हैं। मुलायम सिंह के प्रति भाजपा कृतज्ञ हो भी क्यों न जब उसे यह एहसास है कि अगर 1990 में उनकी पुलिस ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण करने गये कारसेवकों को शहीद न किया होता तो आज भाजपा सत्ता के शिखर पर नहीं होती। इस शहादत को कैश कराकर राजनीति में भाजपा ने जो बुलंदियां छुईं, दिवंगत कारसेवकों की आत्मा का तर्पण उससे पूरा हो गया। अब मुलायम भक्ति पहले है, राम भक्ति बाद में देखी जाएगी। इसलिए उनके पहले कार्यकाल में राम मंदिर नहीं बन पाया तो क्या।
कर्मकांड शुरू किये तभी से शुरू हो गईं मुश्किलें
हालांकि अब तो मुलायम सिंह और उनका परिवार भी काफी धार्मिक हो गया है। अखिलेश दावा कर चुके हैं कि वे सत्ता में आते ही इटावा में भगवान विष्णु का मंदिर बनवा देंगे, जो देश का सबसे बड़ा मंदिर होगा। भगवान कृष्ण तो उनके पूर्वज ही हैं और हनुमान जी का उनसे बड़ा भक्त कोई नहीं है। नेताजी गर्व के साथ इस पर सीना ठोंकने में संकोच नहीं करते।
विडंबना यह है कि जबसे मुलायम सिंह और उनका परिवार पूजा-पाठ और कर्मकांडों में लीन होना शुरू हुआ है तब से लालू यादव की तरह उनकी भी मुश्किलें बढ़ रही हैं। ऐन चुनाव के मौके पर विश्वनाथ चतुर्वेदी ने सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर आय से अधिक संपत्ति के उनके दफन चल रहे मामले के गड़े मुर्दे उखाड़ डाले। विश्वनाथ चतुर्वेदी कांग्रेस से जुड़े रहे हैं। 2005 में जब उन्होंने मुलायम सिंह और उनके परिवार के लोगों की आय के ज्ञात श्रोतों से कई गुना ज्यादा हैसियत को लेकर उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी उस समय इसे राजनीतिक उद्देश्य से जोड़कर खारिज करने की दलील मुलायम सिंह की ओर से दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने मुलायम सिंह की इस दलील को गंभीरता से संज्ञान में लिया था और विश्वनाथ चतुर्वेदी को फटकार लगाते हुए आगाह भी किया था। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद सुप्रीम अदालत ने याचिका को खारिज नहीं किया और सीबीआई से इसकी प्राथमिक जांच करा ली। 2007 में सीबीआई ने अदालत के सामने माना कि याचिका में लगाये गये आरोपों के अनुरूप जांच में जो तथ्य मिले हैं, उनसे प्रथम दृष्टया मुलायम सिंह के खिलाफ मामला बन रहा है। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई को गहन जांच करके कार्रवाई करने और सरकार की बजाय समय-समय पर उसके सामने स्टेटस रिपोर्ट पेश करते रहने को कहा। इस बीच 2012 में मुलायम सिंह की ओर से एक बार फिर विश्वनाथ चतुर्वेदी की याचिका को खारिज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी निरस्त कर दिया।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीधी निगरानी किये जाने के बावजूद 11 साल तक सीबीआई इस मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, क्योंकि वह सरकार का पिंजरे में बंद तोता जो है। मनमोहन सिंह सरकार बाहरी समर्थन के भरोसे चली। इसके कारण कई बार सहयोगी दलों के बहक जाने से वह संकट में घिर जाती थी। ऐसे समय सीबीआई के हथियार का इस्तेमाल उसे करना पड़ता था।
पिछली सरकारों ने संस्थाओं की जो बर्बादी की थी, उम्मीद की गई थी कि मोदी सरकार उसे रोकेगी, क्योंकि वह अपने अस्तित्व के लिए किसी बाहरी सहारे पर निर्भर नहीं थी। लेकिन सीबीआई में शीर्ष अफसरों की शर्मनाक जंग से यह निष्कर्ष सामने आया कि इस सरकार ने तो संस्थाओं को ठिकाने लगाने की पराकाष्ठा कर डाली है।
अपनी पारिवारिक स्थिति से लेकर और न जाने कितने हवालों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों के जरिये देश से यह मनवाने की कोशिश पिछले पांच वर्षो में करते रहे हैं कि वे 24 कैरेट के ईमानदार हैं। लेकिन अगर ऐसा होता तो उनके कार्यकाल में मुलायम सिंह के खिलाफ सीबीआई की जांच एक भी इंच क्यों नहीं बढ़ी। बेशक, भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के मामले में मोदी की सीबीआई ने मुंहदेखा व्यवहार किया है।
दो सप्ताह में मांगी स्टेटस रिपोर्ट
सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई से मुलायम सिंह के खिलाफ जांच में अभी तक उसने क्या किया, इसकी स्टेटस रिपोर्ट 2 सप्ताह के अंदर मांगी है। जाहिर है कि सीबीआई जब स्टेटस रिपोर्ट दाखिल कर रही होगी उस समय लोकसभा चुनाव की सरगर्मी शबाब पर होगी। कुछ सप्ताह पहले मायावती के स्मारक घोटाले मामले में भी अदालत ने जबाब-तलब किया था। सपा-बसपा गठबंधन के लिए चुनावी मुहूर्त में यह अशुभ घटनाएं हैं।
कार्रवाई न होने से नेता हुए निरंकुश
भ्रष्टाचार के मामले में कुछ अपवादों को छोड़कर किसी बड़े नेता के खिलाफ कार्रवाई अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंची। जयललिता के यहां छापेमारी को लेकर भी भारी शोर-शराबा हुआ था। लेकिन जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण अंत में उनका गौरवमय स्वर्गारोहण हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बहुत ही अभिभूत मुद्रा में अम्मा की महिमा को प्रणाम करके अपने आस्थावान व्यक्तित्व का सुंदर परिचय दिया। इन उदाहरणों की वजह से ही नेताओं को निडर होकर भ्रष्टाचार करने के लिए प्रोत्साहन मिला।
यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। लोकतंत्र क्या कोई भी तंत्र हो, उसके संचालन के लिए एक व्यवस्था जरूरी होती है। लेकिन निरंकुश भ्रष्टाचार ने व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने नेताओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमों के त्वरित निस्तारण के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश जारी किया और मामलों की समयबद्ध सुनवाई की व्यवस्था की।
उम्मीद है कि इसका दूरगामी प्रभाव होगा और आगे चलकर विभिन्न राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से अपनी दूरी बनाएंगे। भ्रष्टाचार के मामले में भी सर्वोच्च अदालत को ऐसा ही रुख अपनाना चाहिए।
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री पद पर रहे नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए समयबद्ध व्यवस्था लागू की जानी चाहिए ताकि वे नंगा नाच करने से बाज आ सकें और जबावदेह सरकार और प्रशासन की अवधारणा साकार रूप ले सके