श्रमिकों के हित में नई योजना नीति बनाने की दरकार

0

कामगारों की राहों में मशीनरी युग ने कांटे बिछा दिए हैं। महीनों चलने वाले कामों को मशीन से तुरंत हो जाने के बाद लोगों ने श्रमिकों की जरूरत को नकार दिया है। इसके बाद अगर तुक्के से मजदूरों के हिस्से थोड़ा-बहुत काम आता भी है तो उसकी उन्हें पर्याप्त कीमत नहीं मिलती। जिस प्रकार स्टीम इंजन ने लोगों का रोजगार छीन लिया, उसी प्रकार फोटो कापी मशीन ने टाइपिस्टों का, उबर-ओला ने टैक्सी स्टैंडों का, कम्प्यूटर ने सांख्यिकी गणित का और ई-मेल ने डाकिए का रोजगार हड़प लिया है। जिस प्रकार ट्यूबवेल और ट्रैक्टर ने खेत मजदूरों के नए रोजगार बनाए थे, उसी प्रकार फोटोकापी, कॉल सेंटर, मोबाइल डाउनलोड आदि में नए रोजगारों का सृजन हो रहा है। लेकिन जिस प्रकार खेत-मजदूर की आय जुलाहे की आय की तरह न्यून बनी रही, उसी प्रकार मोबाइल हाथ में लिए हुए श्रमिक की आय न्यून बनी हुई है।
इन सबको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुस्तान की तरक्की सिक्के के दो पहलू की तरह हो गई। एक खुशहाल और दूसरी बदहाल। दोनों की ताजा तस्वीरें हमारे समक्ष हैं। एक वह जो ऊपरी तौर पर काफी चमकीली है। इस लिहाज से देखें तो पहले के मुकाबले देश की शक्ल-व-सूरत काफी बदल चुकी है। अर्थव्यवस्था अपने पूरे शबाब पर है। कहने को तो उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग सभी खुशहाल हैं लेकिन तरक्की की दूसरी तस्वीर भारतीय श्रमिकों और किसानों की है। इनकी बदहाली कहानी हमारे सामने है। जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद श्रमिकों को गुजर-बसर करने लायक पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता।
इस बार देश में चुनावों के बीच मजदूर दिवस आ पड़ा है। इसलिए इसकी चमक कुछ फीकी है। फिर भी कई आयोजन होंगे। कामगारों की बदहाली को दूर करने के लिए लोग लंबे-लंबे भाषण देंगे। नौकरशाहों द्वारा तमाम कागजी योजनाओं का श्रीगणेश भी किया जाएगा। लेकिन हमेशा की तरह मई की दूसरी तारीख को सब भुला दिए जाएंगे। हुकूमतें जानती हैं कि मजदूर अपने अधिकारों से देश आजादी होने के बाद से ही वंचित है। कामगार तबका दशकों से हाशिए पर है। अगर कुछ बड़े मेट्रो शहरों की बात न करके छोटे कस्बों एवं गांव-देहातों की बात करें तो वहां पर अपना जीवन व्यतीत कर रहे मजदूर एवं किसान महज चार-पांच सौ रुपये ही प्रतिदिन कमा पाते हैं, वह भी दस घंटों की हाड़तोड़ मेहनत-मशक्कत के बाद। उस पर तुर्रा यह कि इस बात कि कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि उन्हें रोज काम मिल ही जाए। इतने पैसे में वह अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी बमुश्किल से ही जुटा पाता है। मजदूरों की हालत बहुत ही दयनीय है, सियासी लोगों के लिए वह सिर्फ और सिर्फ चुनाव के समय काम आने वाला एक मतदाता है। पांच साल बाद उनका अंगूठा या ईवीएम मशीन पर बटन दबाने का काम आने वाला वस्तु मात्र है।
ऐसा नहीं कि मजदूरों के लिए योजनाएं नहीं बनाई गई। कई योजनाएं बनीं। दैनिक मजदूरी, स्वास्थ्य, बीमा, बेघरों को घर देने के वादे किये गए। लेकिन अधिकांश योजनाएं कागजी साबित हुईं। श्रमिकों के हितों के लिए ईमानदारी से लड़ाई किसी ने नहीं लड़ी। पूर्व में जिन लोगों ने मजदूरों के नाम पर प्रतिनिधित्व करने का दम भरा, उनका उल्लू सीधा हो गया। वह भी सियासत का हिस्सा हो गए। उन्होंने भी मजदूरों के सपनों को बीच राह में भटकने के लिए छोड़ दिया। केंद्र की मौजूदा सरकार श्रमिकों के लिए संजीदा से काम करती दिख रही है। मजदूरों के उद्धार के लिए बनाए गए लक्ष्य को हासिल करने में किसी तरह की कोताही नहीं होने देने की बात कही जा रही है।
श्रमिकों की बदहाली से भारत ही आहत नहीं है बल्कि दूसरे मुल्क भी परेशान हैं। भूख से होने वाली मौतों की समस्या पूरे संसार के लिए बदनामी जैसी है। झारखंड में एक बच्ची बिना भोजन के दम तोड़ देती है। सवाल उठता है जब जनमानस को हम पेटभर खाना तक मुहैया नहीं करा सकते तो किस बात की तरक्की कर रहे हैं? भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह समस्या काफी विकराल रूप में देखी जा रही है। आकंड़ों के मुताबिक सिर्फ हिंदुस्तान में रोज लगभग 38 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। भारत के ओडिशा, छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल में तो भूख के मारे किसान एवं मजदूर दम तोड़ रहे हैं। यह सिलसिला अब भी जारी है। तमाम तरह के प्रयासों के बावजूद आजतक इस दिशा में कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। देश के कई प्रांतों में लोग भूख के बजाए कर्ज और उसकी अदायगी के भय से आत्महत्या कर रहे हैं।
श्रमिकों के लिए संसाधनों की कमी नहीं है। इसका कुप्रबंधन ही समस्या का बुनियादी कारण है। इसी कुप्रंबधन का नतीजा है कि ग्रामीण श्रमिक लगातार शहरों की ओर भागने को विवश हो रहे हैं। इनमें गरीब नौजवान से लेकर संपन्न किसान और पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स तक शामिल हैं। यह तथ्य यह बताने के लिए काफी हैं कि जनसंख्या के इस तरह के बड़े पैमाने पर हस्थानांतरण का कारण केवल गरीबी और बेरोजगारी ही नहीं बल्कि विकास का असंतुलन है। कतार में खड़े अंतिम आदमी की बात तो हर नेता करता है लेकिन उसकी बात केवल भाषण तक ही सीमित रह जाती है। उस अंतिम आदमी तक संसाधन पहुंचाने के दावे तो खूब किए जाते हैं लेकिन पहुंचाने तक की ताकत किसी में नहीं है। इसलिए श्रमिकों के हित में नई योजना नीति बनाने की दरकार है।


प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *