लोकसभा चुनाव : स्थानीय मुद्दे और राष्ट्रवाद के बीच लड़ाई!
-सभी सीटों पर सीधी टक्कर मोदी से
-भाजपा स्थानीय मुद्दों के साथ राष्ट्रवाद का नारा कर रही बुलंद
लखनऊ, 12 अप्रैल (हि.स.)। पूरे यूपी में सिर्फ आधा दर्जन लोकसभा सीटों को छोड़ दिया जाय तो अधिकांश पर भाजपा और सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के बीच सीधी टक्कर है। इसमें एक तरफ राष्ट्रीय मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दे हैं तो दूसरी तरफ सिर्फ स्थानीय मुद्दों का सवाल। इसका कारण भी है, क्षेत्रीय पार्टियां हमेशा स्थानीय मुद्दों पर ही चुनाव लड़ती हैं। उनको देशहीत से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। वैसे भी 37 और 38 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली सपा और बसपा प्रमुख खुद पीएम बनने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वे किसी भी दल की सरकार बनने पर उसके कमजोर रहने की स्थिति में वारगेनिंग करने के अपनी सीट जीतने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।
यूपी में सीटों की स्थिति देखें तो इस समय सामान्य सीटों की तो बात दूर है। आजमगढ़ जैसे वीआईपी सीट पर भी निरहुआ का रोड शो देखकर ऐसा लगता है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश को वह कड़ी टक्कर देने जा रहा है। इसका कारण है लोगों में राष्ट्रवाद का नशा सिर चढ़कर बोल रहा है। अब जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा यह तो 23 मई को ही पता चलेगा, लेकिन इतना जरूर है कि सपा प्रमुख को आजमगढ़ में नाकों चने चबाना पड़ेगा।
यह तो एक बानगी भर है। इस तरह की स्थितियां हर जगह देखने को मिल रही हैं। यही कारण है कि अभी तक इलाहाबाद, कौशांबी, फूलपुर सहित डेढ़ दर्जन सीटों पर गठबंधन अपना प्रत्याशी ही घोषित नहीं कर पाया है। यह बता दें कि सपा-बसपा और रालोद हर समय ज्यादा जातिगत आधार पर ही चुनाव लड़ता आया है। इस बार भी उसको जातिगत वोट का ही भरोसा है लेकिन इस बार की जागृत राष्ट्रवाद की भावना को देखकर ऐसा नहीं लगता कि उसकी अपेक्षाएं पूरी होंगी।
राजनीतिक विश्लेषक हर्ष वर्धन त्रिपाठी का कहना है कि गठबंधन के कारण उसे कुछ सीटें हासिल हो सकती है। लेकिन सपा का वोट बैंक बसपा पर चढ़ जाएगा या बसपा का वोट बैंक सपा चढ़ जाएगा, यह कहना गलत होगा। अब प्रदेश में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्षेत्रीय पार्टी होने के बावजूद भी सपा-बसपा प्रमुखों की रैलियां सबसे कम होना उनकी निराशा को ही दर्शाता है। इसके साथ अब तक सिर्फ एक संयुक्त रैली का हो पाना ही दोनों पार्टियों के प्रमुखों के बीच तालमेल के अभाव को दर्शा रहा है।