राजनीतिक दशा व दिशा सुधरेगी कैसे ?
भारत के सामाजिक, प्रशासनिक, धार्मिक व आर्थिक समेत लगभग हर क्षेत्र का राजनीतीकरण होने लगा है। दंगा फसाद हो या सीबीएससी का पेपर लीक या नीरव मोदी-माल्या के द्वारा बैंको को दिया गया धोखा अथवा सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को लेकर दिया गया दिशा निर्देश, सब कुछ राजनैतिक चश्मे में वोट-बैंक की खींचा-तानी से जुड़ चुका है। चिन्ताजनक तो यह है कि देश की संसद को नहीं चलने देने की परम्परा बन रही है। भारत में राजनीति और नेतागीरी का बहुत बड़ा स्कोप है और बेरोजगार धनबली अब इसमें भी अपने भविष्य की संभावनाओ की तलाश करने लगे हैं। समाज-सेवा दिखावा है। जिस व्यक्ति की कहीं कोई ग्राह्यता नहीं है और वह पैसे वाला भी है तो एक बड़ी गाड़ी, स्मार्ट मोबाईल, एक-दो बन्दूकधारी, चार-छह बाहुबली साथ में लेकर स्वयं में राजनेता की स्वयंभू प्राण-प्रतिष्ठा कर लेता है। यह प्रचलन भारत के छोटे-बड़े शहरों, कस्बों, ग्रामीण क्षेत्रों में हो चला है। अधिकांशतः बाहुबली और धनबली राजनैतिक क्षेत्र में सक्रिय देखे जा सकते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीति की प्राथमिक योग्यता धनबल एवं बाहुबल हो गया है। जो जुगाड़ और जोड़-तोड़, मत-विभाजन के गणित में पारंगत हैं, उन्हें विधायिका में पहुंचने का मार्ग मिल जाता है। नये-नवेले राजनेताओं को अपने दल की विचाराधारा, इतिहास, सिद्धान्तों और प्रेरणास्त्रोत की जानकारी ही नहीं होती है। इस विषय पर राजनैतिक दल भी मौन हैं। संख्या-बल का बढ़ना एक सूत्री कार्यक्रम बन गया और गुणवत्ता-बल द्वितीयक हो गया है। राजनैतिक दल भी चुनाव जीतने का एक सूत्री कार्यक्रम बना चुके हैं जो उनकी मजबूरी भी है। चुनाव भी राजनीति का एक सक्रिय भाग है। विपक्ष में वे रहना ही नहीं चाहते और आदर्श विपक्ष की भूमिका का निर्वाहन जानते ही नहीं हैं। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् जो लोग चुनावी राजनीति में प्रवेश कर गये, उनमें से अधिकांश समाज सेवा के माध्यम से राजनीतिक भविष्य का निर्माण करते थे। यह स्थिति लगभग 80 के दशक तक रही। लेकिन इसके बाद राजनीति का भी व्यावसायीकरण होने लगा। इस तंत्र का स्वरूप, चुनाव जीतना फिर उससे पैसा कमाना बनने लगा। सत्ता से पैसा तथा पैसे से सत्ता अर्जित करने का क्रम बन गया है और भ्रष्टाचार ने अपना विराट व विकृत स्वरुप बना लिया है। अहम बात तो यह है कि राजनीति में प्रवेश के पहले वे क्या थे और फिर क्या से क्या हो गये ? कितने ही राजनेता भ्रष्टाचार के कारण जेल जा चुके हैं, जो पकड़ा गया वो चोर है और जिसे नहीं पकड़ पा रहे हैं वे मौज कर रहे हैं। छोटे-बड़े चुनाव के समय कहा जाता है, कमर कसकर एकजुट हो जाओ। किसके लिये ? लेकिन राजनीति और प्रजातंत्र का उद्देश्य यह तो नहीं है कि देश की जनता लूट व लुटेरों के लिये सहभागी बने। राजनीतिक दलों को सजग होना पड़ेगा क्योंकि इसे नियंत्रित करने के लिए अभी भी समय है। 1995 में बोहरा समिति ने अपराध और भ्रष्टाचार के संदर्भ में अपनी रिपोर्ट उजागर की थी, जिसका निष्कर्ष था कि ’आपराधिक गिरोहों ने देश के विभिन्न भागों में अपना प्रभुत्व जमा लिया है और इन्होंने राजनीतिज्ञों, सरकारी उच्चाधिकारियों व अन्य प्रभावशाली लोगों से सांठ-गांठ कर रखी है, जिसके फलस्वरूप वे खुलकर धन और बल का प्रयोग कर रहे हैं। सीबीआई और इंटेलिजेंस ब्यूरो से राजनीतिज्ञों तथा अपराधियों के सम्बन्धों के बारे में जानकारियां मिलती रहती है। लेकिन ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है कि यह जानकारी किसी एक स्थान पर जमा हो।’ इस जानकारी के होते हुए भी उसका कभी सकारात्मक इस्तेमाल नहीं किया गया। संवैधानिक मान्यता है कि निर्वाचित् प्रतिनिधि राज्य की विधानसभाओ व संसद में पहुंचकर जनता के भविष्य, देश के विकास, आर्थिक नीति, विदेश नीति आदि का निर्णय करेंगे, कानून बनायेंगे। लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि निर्वाचित् प्रतिनिधि देश के कर्णधार होते हुये भी, राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने हेतु उनके लिये कोई स्कूल, काॅलेज अथवा उनके प्रशिक्षण हेतु ऐसी कोई संस्था नहीं है, जहां उन्हें एक आदर्श और अच्छे राजनेता बनने के सूत्र पढ़ाये जाते हों, अथवा योग्य नेतागिरी के गुण सिखाये जाते हों अथवा देश के विभिन्न राजनैतिक दलो की विचारधारा और उनके सिद्धान्तों की जानकारी देते हुये उन्हें पारंगत किया जाता हो। एक आदर्श नेता में कौन सा गुण होना चाहिए, नेतृत्व करने की क्षमता किस प्रकार विकसित करनी चाहिए, इस संदर्भ में स्वतन्त्र रुप से कहीं कोई विद्यालय व प्रशिक्षण केन्द्र नहीं है। मजे की बात तो यह है कि भारत के किसी भी शिक्षा संस्थान में शासकीय अथवा गैर-शासकीय स्तर पर राजनीति और नेतागीरी का कोई पाठ्यक्रम नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति-शास्त्र का विषय इस लेख की विषयवस्तु से पृथक है। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी के लिये तो शैक्षणिक योग्यता तय है, परन्तु निर्वाचित प्रतिनिधि के लिये कुछ भी नही। भारत की राजनीति के उच्च शिखर पर नेतृत्व करने वाले अभी भी जीवनदानी, घर-द्वार छोड़ने वाले ऐसे राजनेता हैं, जिन पर भारत की जनता को अभी भी भरोसा है। परन्तु एक कहावत है, ’अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’ बिना किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के यह कहना गलत नही होगा कि देश की आम जनता को प्रधानमन्त्री के रूप मे नरेन्द्र मोदी पर ही भरोसा है और वह भारत के भाग्यविधाता के रूप मे उभर कर ईमानदारी, सेवा, समर्पण भाव से कार्य कर रहै हैं। गत चार वर्षों मे एक भी आरोप उन पर नही लग सका है। देश के राष्ट्रवादी, चिन्तनशील, ईमानदार आम जनमानस को एकजुट होना होगा। दूरदृष्टि के साथ भारत के भविष्य की चिन्ता करनी होगी। राजनीतिक क्षेत्र के नकारात्मक व सकारात्मक सोच का भेद समझना होगा। अन्यथा ऐसा ही चलता रहा तो भारत की राजनीति में समर्पित व जीवनदानी राजनेताओं का अकाल हो जायेगा। कहा जाता है कि ’अच्छे लोग’ राजनीति में आयें। प्रश्न यह है कि ’अच्छे लोग’ की परिभाषा क्या है ? योग्य, कर्मठ, ईमानदार, ’न खायेंगे न खाने देंगे’ के सिद्धान्तों पर चलने वाले, क्या इन्हें अच्छे लोग कहा जायेगा ? लेकिन इनके पास धन-बल और बाहुबल नहीं होगा, फलतः वे चुनाव नहीं जीत सकेंगे। इसलिये वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन्हें अयोग्य कहा जाने लगा है। तब फिर प्रश्न उठता है कि राजनीति की दशा व दिशा सुधरेगी कैसे ?