युगों-युगों तक अमर रहेंगे महाराणा प्रताप
महाराणा प्रताप के पूर्वजों का काल गुहादित्य से आरंभ होता है। उनके वंशज गहलोत या गुहिलौत कहलाए जिसकी एक शाखा सिसोदिया कहलाई। आगे चलकर इसी वंश में बप्पा रावल जैसे पराक्रमी राजा हुए, जिन्होंने सिंध और मुल्तान तक जाकर आक्रमणकारियों को खदेड़ा। इतिहास प्रसिद्ध राणा सांगा या संग्राम सिंह को कौन नहीं जानता? जो खानवा के युद्ध में 80 घाव होते हुए भी लड़ते रहे। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को हुआ था। उनके पिता मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह और माता मेवाड़ की पटरानी जैवंताबाई थीं।
प्रताप जब किशोरावस्था में थे, तभी अफगानों को मेवाड़ से निकाल बाहर किया। उन्होंने बड़े उत्साह से मेवाड़ के सैनिक अभियानों में भाग लेना शुरू कर दिया। पहला अभियान उन्होंने डूंगरपुर के शासक आसकरण के विरुद्ध चलाया और उसमें विजयी रहे। प्रताप आखेट के लिए जाते तो कई-कई दिन वहां व्यतीत कर देते। इस कारण उनका वनवासी भीलों से अच्छा सम्पर्क हो गया। इतना ही नहीं वे प्रताप के अपनेपन और विनम्रता से बहुत प्रभावित थे, जो आगे चलकर प्रताप के प्रति उनकी अनन्य स्वामिभक्ति का कारण बना। वस्तुतः अनन्य वीर योद्धा होने के साथ-साथ प्रताप अत्यंत विनम्र और संवेदनशील भी थे। इन्हीं गुणों के चलते मेवाड़ के सामंतों और सैनिकों में वे बेहद लोकप्रिय हो गए। 1572 में राणा उदय सिंह की मृत्यु पर एक षड्यंत्र के तहत प्रताप का सौतेला भाई जगमाल मेवाड़ के तख्त पर बैठ गया, लेकिन सामंतों ने उसे सिंहासन से उतारकर उस पर प्रताप को बैठा दिया। प्रताप के महाराजा बनने पर उन्हें कांटों का ताज ही मिला। चित्तौड़गढ़, मांडलगढ़ किलों के साथ चित्तौड़ और अजमेर के बीच का सारा मैदानी इलाका भी मुगलों ने जीत लिया था। महाराणा सांगा के समय जिस मेवाड़ की सीमा आगरा तक थी और जो हर तरह से समृद्ध था, वह सिकुड़कर बहुत छोटा हो गया था। प्रताप के सामने मेवाड़ की सुरक्षा का प्रबंध करने के साथ-साथ प्रजा की दयनीय दशा को सुधारने की भी चुनौतियां थीं। इधर अकबर की बढ़ती शक्ति और भेद-नीति के चलते कई राजपूत घरानों ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में प्रताप के सामने सबसे बड़ी चुनौती सेना के पुनर्गठन की थी। संसाधनों का उनके पास नितांत अभाव था। अतएव उन्होंने स्वतः मेवाड़ के पूर्णतः स्वतंत्र न होने तक हर प्रकार के राजसी सुख-भोग से दूर रहने की प्रतिज्ञा कर ली। इस बात ने उनके प्रजाजनों में गहरा असर डाला। मेवाड़ के पर्वतीय इलाकों में बसने वाले भील जो धनुष-बाण में अचूक निशानेबाज थे। वे प्रताप के सहज स्नेह, विनम्रता से पहले से ही अभिभूत थे। प्रताप ने मेवाड़ की रक्षा के लिए जब इनका सहयोग चाहा तो एक-एक भील मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार हो गया।
अकबर ने काफी सोच-विचार कर और बड़ी तैयारी के साथ मेवाड़ पर हमले के लिए मान सिंह के नेतृत्व में बड़ी फौज भेजी। मान सिंह के साथ 80 हजार सैनिक थे, तो राणा प्रताप के पास उसका सामना करने के लिए 20 हजार जवान थे। हल्दी घाटी का युद्ध 21 जून 1576 को प्रातः लगभग 8.00 बजे आरंभ हुआ था। इधर मान सिंह अपने हाथी को आगे बढ़ाता हुआ राणा प्रताप के पास पहुंच गया। राणा प्रताप ने अपने भाले से मान सिंह पर प्रहार किया, पर वह हौदे की ओट में छिप गया। भाले की चोट से महावत मारा गया और हाथी भाग खड़ा हुआ। मान सिंह तो भाग गया पर उसके अंगरक्षक दस्ते ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया। यह देखकर प्रताप के खास रहे झाला मान सिंह लड़ते हुए राणा प्रताप के पास किसी तरह पहुंच गया और राणा प्रताप का छत्र और पताका लेकर प्रताप को युद्ध भूमि से निकल जाने को कहा। झाला मान सिंह को वीर गति पाने पर प्रताप के सैनिकों ने समझा कि प्रताप युद्ध में मारे गए। देखते-ही-देखते राजपूत पिछड़ने लगे। छिन्न-भिन्न हो चुकी राजपूत सेना पीछे हट गई। अब अकबर ने खुद अपने नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इसके लिए सर्वप्रथम मेवाड़ के मित्र राज्यों जालौर और सिरोही को अपने कब्जे में किया और मेवाड़ की चारों तरफ से नाकेबंदी कर दी, ताकि प्रताप को कहीं से मदद न मिल सके। इस तरह से 11 अक्टूबर 1575 को अकबर अजमेर से मेवाड़ विजय अभियान के लिए रवाना हुआ और दो दिन में गोगुंदा पहुंच गया। प्रताप ने गोगुंदा को खाली कर दिया और अपनी छापामार नीति के तहत पहाड़ी प्रदेश में चले गए। अकबर ने प्रताप को पकड़ने के लिए कई टुकड़ियां विभिन्न दिशाओं में भेजी। उन्हें समझाया गया कि ईनाम का लालच देकर वनवासियों से राणा प्रताप और उनके परिवार के बारे में जानकारी हासिल करें। लेकिन शहंशाह अकबर की टुकड़ियां नहीं लौटीं। उनके अधिकांश सिपाहियों को राजपूतों ने घात लगाकर मार डाला। कुछ भीलों के विष बुझे तीरों से घायल हो बेहाल लौटते और आपबीती सुनाते कि किस तरह उनके बाकी साथी अचानक हुई बाणों की वर्षा से मारे गए। एक बार जंगल में कुछ गड़रियों ने राणा प्रताप के बारे में पूछने पर पहले तो अनभिज्ञता जताई पर जान से मारने की धमकी दिए जाने पर सब कुछ बक पड़े। यह सुनते ही मुगल सेनापति कुतुबुद्दीन की बांछे खिल गई। उसने तुरंत एक सैनिक टुकड़ी के साथ प्रताप को परिवार समेत पकड़ने के लिए भेजा। जंगल में काफी चलने के बाद एक पहाड़ी कंदरा पर जाकर यह टुकड़ी रुक गई। गड़रियों ने बताया कि इसके दूसरे छोर पर एक छोटा-सा शिविर है, जिसमें राणा प्रताप व उनका परिवार रहता है। गड़रियों पर नजर रखने के लिए 3-4 सैनिकों को छोड़कर जब वे सैनिक अंधेरी गुफा में जाकर गुम हो गए तब भोले-भाले गड़ेरिये अचानक मुगल पहरेदार सैनिकों पर टूट पड़े और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। जो टुकड़ी प्रताप को पकड़ने गई थी तो वह जब गुफा के पार निकली तो राजपूतों के एक दल ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और जान की भीख मांगने पर सबके सिर मुड़वाकर वापस भेज दिया। स्थिति यह हुई कि लंबे समय तक यह दौर चला। अकबर की सेना को जान-माल का काफी नुकसान हुआ, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। 15 दिसम्बर 1578 को एक बड़े लाव-लश्कर के साथ शहबाज खां को मेवाड़ पर हमले के लिए पुनः भेजा। उसने मेवाड़ पर हमले और तेज कर दिए, पर राणा प्रताप को वह तीन महीने तक खाक छानने के बाद भी जिन्दा या मुर्दा नहीं पकड़ पाया। तब अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बनाकर मेवाड़ पर हमले के लिए भेजा। लेकिन अब्दुल रहीम खानखाना द्वारा प्रताप को पकड़ना तो दूर, प्रताप के खास रहे अमर सिंह ने अब्दुल रहीम खानखाना के शेरपुरा स्थित छावनी में हमला कर खानखाना की सारी रसद, शास्त्रागार और बेगमों तक को गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि इस बात की जानकारी जैसे ही महाराणा प्रताप को हुई, उन्होंने खानखाना की बेगमों को पूरे सम्मान के साथ लौटा दिया। इसके पश्चात अकबर ने राजा भगवानदास के भाई जगन्नाथ कछवाह को मेवाड़ अभियान में भेजा, पर राणा प्रताप को वह कहीं छू भी नहीं पाया।
चित्तौड़, मांडलगढ़ और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर सारे मेवाड़ पर अब महाराणा प्रताप का अधिकार था। लोग पहाड़ों को छोड़कर अपने पुस्तैनी घरों में लौटने लगे। इस अवसर पर गोगुंडा में एक मुख्य समारोह का आयोजन किया गया, जहां सतत 13 वर्ष तक मुगलों के विरुद्ध संघर्ष में साथ देने वाले सभी सामंतों से लेकर जन साधारण तक का आभार व्यक्त किया गया व पुरस्कृत किया गया। इस अवसर पर राणा प्रताप अपने साधारण से साधारण सैनिक को भी नहीं भूले। जो योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे, उनके परिवार को राज्य की ओर से तत्काल सहायता देने की घोषणा की गई। भूमिहीन किसानों को जमीन के पट्टे दिए गए। व्यापार तथा अन्य व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य की ओर से सहायता दी गई। जल की आवश्यकता को पूरी करने के लिए कुएं, बाबड़ियां बनाने के लिए राज कोष से धन दिया गया। शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कई योजनाएं लागू की गईं। कलाओं और साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन दिया गया। राणा प्रताप ने अपनी नई राजधानी चावंड को बनाया। मेवाड़ अब धन-धान्य व वैभव से परिपूर्ण था। अकबर की तरफ से फिर कोई आक्रमण मेवाड़ पर नहीं हुआ, पर राणा प्रताप पूरी तरह सतर्क थे। उन्होंने लगभग 11 वर्ष तक नवनिर्मित मेवाड़ पर शासन किया। 19 जनवरी 1597 को मेवाड़ को पराधीनता के अंधकार से निकालकर स्वतंत्रता के प्रकाश में लानेवाला जीवन दीप बुझ गया।
राणा प्रताप पहले ऐसे शासक थे, जिन्होंने शाका (पराजय निश्चित होते हुए भी युद्ध के मैदान में लड़ते हुए प्राण दे देना) और जौहार जैसे आत्मघाती परम्पराओं पर रोक लगाई। उन्हें पता था कि ऐसी वीरता और बलिदान का कोई मायने नहीं, क्योंकि इससे पूरी पीढ़ी समाप्त हो जाती है और भविष्य की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाती है। दूसरी ओर फिर कोई नेतृत्व करने और सेना को संगठित करने की संभावना नहीं रह जाती। भारतीय इतिहास में राणा प्रताप ही वह पहले शासक हैं, जिन्होंने बहुत ज्यादा शक्तिशाली दुश्मन से लड़ने के लिए छापामार युद्ध की शुरुआत की।