महिलाओं को सुरक्षा मिले तो बात बने

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दिल्ली के निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, उससे लगने लगा था कि समाज में इससे संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौंसले पस्त होंगे। लेकिन यह सामाजिक विडम्बना ही है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी हालात बदतर ही हुए हैं। होता सिर्फ यही है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम सिर्फ पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन करने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं। दोबारा तभी जागते हैं, जब वैसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है।
निर्भया कांड के बाद कानूनों में सख्ती, महिला सुरक्षा के नाम पर कई तरह के कदम उठाने और समाज में ‘आधी दुनिया’ के आत्मसम्मान को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता के बावजूद आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि बलात्कार के मामले हों या छेड़छाड़, मर्यादा हनन, अपहरण अथवा क्रूरता, ‘आधी दुनिया’ के प्रति अपराधों का सिलसिला थम नहीं रहा है। इसका एक बड़ा कारण तो यही है कि कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्वों पर कड़ी कार्रवाई नहीं हो रही है। इसके अभाव में हम ऐसे अपराधियों के मन में भय पैदा करने में असफल हो रहे हैं। आधी दुनिया के साथ देश में हो रहे अपराधों को लेकर स्थिति कितनी भयावह है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2015 में देश में बलात्कार के 34651 केस दर्ज हुए जबकि एक साल में छेड़छाड़ के 8 लाख से भी अधिक मामले पुलिस के समक्ष आए, जो इस बात का प्रतीक है कि महिलाएं आज भी देश में सुरक्षित नहीं हैं।
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि महज कानून बना देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने से रहे, जब तक उनका ईमानदारीपूर्वक कड़ाई से पालन न किया जाए। ऐसे मामलों में पुलिस-प्रशासन की भूमिका भी कई अवसरों पर संदिग्ध रहती है। पुलिस किस प्रकार ऐसे मामलों में पीड़िताओं को ही परेशान करके उनके जले पर नमक छिड़कने का कार्य करती है। ऐसे उदाहरण अक्सर सामने आते रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों के मद्देनजर अपराधियों के मन में पुलिस और कानून का भय कैसे उत्पन्न होगा और कैसे महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों में कमी की उम्मीद की जाए? जरूरत इस बात की है कि पुलिस को लैंगिक दृष्टि से संवदेनशील बनाया जाए, ताकि पुलिस पीड़ित पक्ष को पर्याप्त संबल प्रदान करे। पीड़िताएं अपराधियों के खिलाफ खुलकर खड़ा होने की हिम्मत जुटा सकें। जांच एजेंसियों और न्यायिक तंत्र से भी ऐसे मामलों में तत्परता से कार्रवाई की अपेक्षा की जानी चाहिए। ऐसी घटनाओं पर अंकुश के लिए समय की मांग यही है कि सरकारें मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें।
छेड़छाड़, अपहरण, बलात्कार या सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग हैं। यह कहना असंगत नहीं होगा कि महज कड़े कानून बना देने से ही महिला उत्पीड़न की घटनाओं पर अंकुश नहीं लगने वाला। आए दिन देशभर में हो रही इस तरह की घटनाएं हमारी सभ्यता की पोल खोलती हैं।
पिछले साल एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई थी। उसमें बताया गया था कि चार वर्षों में महिला अपराध के लंबित मामलों में सिर्फ सात फीसदी का ही निपटारा हुआ। उनमें भी महज 23 फीसदी मामलों में ही अपराधियों को सजा मिली। इस मामले में देश की राजधानी दिल्ली की हालत बहुत बदतर है। दिल्ली में प्रतिदिन 48 महिलाएं आपराधिक घटनाओं का शिकार बनती हैं। केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 1 नवम्बर 2017 को प्लान इंडिया की 30 राज्यों की एक रिपोर्ट जारी की थी। उसके अनुसार बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और झारखण्ड महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित हैं, जो क्रमशः 30वें, 29वें, 28वें व 27वें पायदान पर हैं।
हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि बलात्कार और छेड़छाड़ के जो मामले सामने आ रहे हैं, उनमें बहुत से ऐसे भी होते हैं, जिनमें पीड़िता के परिजन, निकट संबंधी या परिचित ही आरोपी होते हैं। दिल्ली पुलिस द्वारा जारी आंकड़ों में तो यहां तक कहा गया है कि करीब 97 फीसदी मामलों में महिलाएं अपनों की ही शिकार होती हैं। यह समस्या सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं है बल्कि महिला अपराधों के मामले में पूरी दुनिया की यही तस्वीर है। देश में हर 53 मिनट में एक महिला यौन शोषण की शिकार होती है और हर 28 मिनट में अपहरण का मामला सामने आता है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में प्रत्येक तीन में से एक महिला का कभी न कभी शारीरिक शोषण होता है। दुनिया में करीब 71 फीसदी महिलाएं शारीरिक, मानसिक प्रताड़ना अथवा यौन शोषण व हिंसा की शिकार होती हैं। दक्षिण अफ्रीका में हर छह घंटे में एक महिला की उसके साथी द्वारा हत्या कर दी जाती है। अमेरिका में कई महिलाएं हर साल अपने ही परिचितों द्वारा मार दी जाती हैं।
2012 के निर्भया कांड के बाद पीड़िताओं को मुआवजा देने के लिए तत्कालीन केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘निर्भया’ कोष बनाया था। उसमें करीब दो हजार करोड़ की राशि बताई जाती है। पिछले साल सरकार द्वारा महिला सुरक्षा के लिए इस कोष में 2900 करोड़ रुपये का योगदान दिया गया किन्तु इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इस फंड का प्रयोग करने के मामले में राज्य सरकारें उदासीन रही हैं। गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों से जानकारी मांगी गई थी कि उन्हें दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं को मुआवजे के मद में कितना पैसा मिला और उसमें से पीड़िताओं में कितना बांटा गया। विडम्बना देखिये कि देश के 24 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश अदालत को यह मामूली जानकारी उपलब्ध कराने में नाकाम रहे। तब अदालत ने उन्हें कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि इन सरकारों द्वारा हलफनामा दाखिल न करना यह दिखलाता है कि राज्य सरकारें महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित और गंभीर नहीं हैं।
जहां तक ऐसे मामलों की पीड़िताओं को न्याय दिलाने की बात है तो इसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग काफी समय से उठती रही है, किन्तु हमारा सिस्टम कछुआ चाल से रेंग रहा है। ऐसे मामलों में कठोरता बरतने के साथ-साथ त्वरित न्याय प्रणाली की भी सख्त जरूरत है। आज अगर समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद महिलाओं के प्रति अपराध और संवेदनहीनता के मामले बढ़ रहे हैं तो हमें यह जानने के प्रयास करने होंगे कि कमी हमारी शिक्षा प्रणाली में है या कारण कुछ और हैं।

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