भारतीय राष्ट्रवाद का संस्कृति से सरोकार
राजनीति का गिरगिट की तरह रंग बदलना नया नहीं है। आजादी के बाद समाजवादी होने की स्पर्धा चली। हर नेता के मुंह से समाजवादी शब्द निकलता था। इसी तरह समय के साथ धर्मनिरपेक्षता का पाखंड भी चलता रहा। भले ही इन वैचारिक बिन्दुओं पर बहस न हो, लेकिन इन शब्दों की गूंज राजनीतिक गलियारों में अक्सर सुनाई देती रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देशभक्ति को प्रखरता से प्रस्तुत करते हैं। नतीजतन उनके पक्ष में जनसैलाब भी उमड़ रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक की आलोचना करने से विपक्ष अपने ही जाल में फंस गया है। राहुल गांधी के रणनीतिकार उन्हें जो सलाह देते हैं, उसको भी वे ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाते। अनाड़ी राजनेता की तरह वे शब्दों की मर्यादा भी लांघ रहे हैं। सनद रहे, झूठ के पिटारे से जो मुद्दे जनता के सामने प्रस्तुत किए जाते हैं, उन पर कोई भरोसा नहीं करता। वाद शब्द का प्रचलन पहले भारत में नहीं था। जब दुनिया के हर विचार को वाद के साथ जोड़कर देखा गया तो भारत में भी हर विचार के साथ वाद शब्द जुड़ गया। संस्कृति आधारित राष्ट्रभक्ति को राष्ट्रवाद कहने का प्रचलन हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के विचार को प्रस्तुत किया। भाजपा को प्रखर राष्ट्रवादी माना गया। 2014 के चुनाव में राष्ट्रवादी नेतृत्व की विजय हुई। वंदे मातरम्, भारत माता की जय की गूंज चारों ओर सुनाई देने लगी। चाहे सुरक्षा का सवाल हो, देशद्रोहियों और अलगाववादियों के खिलाफ कार्रवाई हो। सेना को आतंकियों के सफाए की पूरी छूट दी गई। उरी और पुलवामा में कुछ हमले के बाद साहसिक निर्णय के साथ कमांडों के द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक और फिर एयर स्ट्राइक कर बालाकोट और अन्य आतंकी ठिकानों को नष्ट करने की सफलता भी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को पच नहीं रही है। कांग्रेस के इस रवैये को पाकिस्तान की पैरोकारी माना जा रहा है। हाल ही में नरेन्द्र मोदी का वह नारा गूंजा कि ‘सौगंध हमें इस मिट्टी की, मैं देश नहीं झुकने दूंगा…।’ हिन्दुओं की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए मंदिर-मंदिर जाकर स्वयं को जनेऊधारी हिन्दू कहने का पाखंड राहुल गांधी ने किया। अब देशभक्ति की बात हर नेता करने लगा है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रवाद को परिभाषित करते हुए कहा कि भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण संवैधानिक देशभक्ति से होता है। इसमें हमारी साझी विरासत और विविधता का भाव शामिल है। भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा, एक धर्म पर आधारित नहीं है। सोनिया गांधी कहती हैं कि आज लोगों को राजनीति की नई परिभाषा पढ़ाई जा रही है। जिन्होंने कभी भी भारत की विविधता स्वीकार नहीं की, उन्हें आज देशभक्त बताया जा रहा है। जबकि धर्म और विचारधारा के आधार पर नागरिकों से भेदभाव उचित ठहराया जा रहा है। कांग्रेस के पूर्व मंत्री जयराम रमेश का मानना है कि राष्ट्रवाद के दो तरीके हैं। एक राष्ट्रवाद जो एकता पर आधारित है और दूसरा राष्ट्रवाद एकरूपता पर आधारित है। भाजपा का राष्ट्रवाद एकरूपता पर आधारित है, जिसमें सभी एक जैसे होने चाहिए। दोनों में काफी फर्क है। हमारा दर्शन अनेकता में एकता रहा है। कुछ कांग्रेसी यह कहने लगे हैं कि मैं देशभक्त हूं, लेकिन राष्ट्रवादी नहीं। क्षेत्रीय दलों का आधार जातीयता है। उनकी कोई स्थिर रीति-नीति नहीं है। कांग्रेस 134 वर्ष पुरानी राष्ट्रीय पार्टी है। सवाल यह है कि कांग्रेस अब राजनीति के गलियारों में देशभक्ति की तलाश करने लगी है। राष्ट्र को भिन्नता से नहीं देखा जा सकता। देशभक्ति ऐसी नहीं होती, जिसे टुकड़ों में बांटा जा सके।
देशभक्ति का पर्याय ही राष्ट्रवाद है। मुसोलिनी और हिटलर का राष्ट्रवाद राजनीतिक और विस्तारवादी था, लेकिन भारत का राष्ट्रवाद संस्कृति पर आधारित है। जिस विविधता की बात कही गई है, उसे वैदिक काल से हमने स्वीकार किया है। वैदिक सूक्ति में कहा गया है कि एक सद्विप्रा बहुदा वदन्ति अर्थात् उस एक ईश्वर को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या अर्थात् भूमि मेरी माता और मैं इस मातृभूमि का पुत्र हूं। राष्ट्रवाद या देशभक्ति मातृभूमि की अडिग सेवा भाव पर केन्द्रित है, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस का राजनीतिक व्यवहार मातृभूमि के प्रति निष्ठा की बजाय केवल राजनीति पर केन्द्रित रहा। मैकाले की शिक्षा में पले-बढ़े कुछ लोग तो भारत को अंग्रेजों के पहले का राष्ट्र मानने को ही तैयार नहीं थे। हजारों वर्ष की सांस्कृतिक विरासत ही हमें भारतीय राष्ट्रीयता का बोध कराती है। जो सांस्कृतिक आधारित देशभक्ति से प्रेरित हैं, वही गर्व से भारत माता की जय और वंदे मातरम कहते हैं। आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व ने कभी भारत को मातृभूमि के रूप में नहीं माना। जब 1962 में भारत की पीठ पर वार करते हुए चीन ने हमला किया और हजारों वर्ग मील भारत भूमि पर काबिज हो गया। चीनी हमले का जब संसद में विरोध हुआ तो प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा कि चीनी कब्जे वाली भूमि बर्फीली है। वहां कुछ पैदा नहीं होता। नेहरूजी भारत भूमि को उपभोग की वस्तु मानते थे। इसलिए उन्हें भारत भूमि का भाग चीनी कब्जे में जाने का दु:ख नहीं था। यदि मातृभूमि का भाव प्रबल होता तो न देश का खूनी विभाजन होता और न चीन भारत भूमि पर काबिज हो पाता। विडंबना यह है कि देशभक्ति की तलाश सत्ता के गलियारे में की जाती है।
विविधता में एकता की भावना हमारी संस्कृति में सदियों से है। विदेशी हमलावर भी हमारी संस्कृति के प्रवाह को नहीं रोक सके। राष्ट्रीय चेतना किसी के नागरिकता के फार्म भरने से जागृत नहीं होती। जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं, वे ही देश के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। इसी चेतना से यह नारा बुलंद होता है कि जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है। जो सेक्युलर ब्रिगेड से विविधता की बात करते हैं, वे शायद इस विविधता को स्वीकार करने की बात करते हैं। जो भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं, जो भारत की अखंडता को चुनौती देते हैं। जिनकी निष्ठा दुश्मन देश से जुड़ी है, उन्हें इस विविधता में शामिल करने की नीति के कारण ही संकट पैदा हुए हैं। जो संस्कृति की अवधारणा के अनुसार भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं, वे ही देशभक्त हो सकते हैं।
देशभक्ति का पर्याय ही राष्ट्रवाद है। मुसोलिनी और हिटलर का राष्ट्रवाद राजनीतिक और विस्तारवादी था, लेकिन भारत का राष्ट्रवाद संस्कृति पर आधारित है। जिस विविधता की बात कही गई है, उसे वैदिक काल से हमने स्वीकार किया है। वैदिक सूक्ति में कहा गया है कि एक सद्विप्रा बहुदा वदन्ति अर्थात् उस एक ईश्वर को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या अर्थात् भूमि मेरी माता और मैं इस मातृभूमि का पुत्र हूं। राष्ट्रवाद या देशभक्ति मातृभूमि की अडिग सेवा भाव पर केन्द्रित है, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस का राजनीतिक व्यवहार मातृभूमि के प्रति निष्ठा की बजाय केवल राजनीति पर केन्द्रित रहा। मैकाले की शिक्षा में पले-बढ़े कुछ लोग तो भारत को अंग्रेजों के पहले का राष्ट्र मानने को ही तैयार नहीं थे। हजारों वर्ष की सांस्कृतिक विरासत ही हमें भारतीय राष्ट्रीयता का बोध कराती है। जो सांस्कृतिक आधारित देशभक्ति से प्रेरित हैं, वही गर्व से भारत माता की जय और वंदे मातरम कहते हैं। आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व ने कभी भारत को मातृभूमि के रूप में नहीं माना। जब 1962 में भारत की पीठ पर वार करते हुए चीन ने हमला किया और हजारों वर्ग मील भारत भूमि पर काबिज हो गया। चीनी हमले का जब संसद में विरोध हुआ तो प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा कि चीनी कब्जे वाली भूमि बर्फीली है। वहां कुछ पैदा नहीं होता। नेहरूजी भारत भूमि को उपभोग की वस्तु मानते थे। इसलिए उन्हें भारत भूमि का भाग चीनी कब्जे में जाने का दु:ख नहीं था। यदि मातृभूमि का भाव प्रबल होता तो न देश का खूनी विभाजन होता और न चीन भारत भूमि पर काबिज हो पाता। विडंबना यह है कि देशभक्ति की तलाश सत्ता के गलियारे में की जाती है।
विविधता में एकता की भावना हमारी संस्कृति में सदियों से है। विदेशी हमलावर भी हमारी संस्कृति के प्रवाह को नहीं रोक सके। राष्ट्रीय चेतना किसी के नागरिकता के फार्म भरने से जागृत नहीं होती। जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं, वे ही देश के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। इसी चेतना से यह नारा बुलंद होता है कि जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है। जो सेक्युलर ब्रिगेड से विविधता की बात करते हैं, वे शायद इस विविधता को स्वीकार करने की बात करते हैं। जो भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं, जो भारत की अखंडता को चुनौती देते हैं। जिनकी निष्ठा दुश्मन देश से जुड़ी है, उन्हें इस विविधता में शामिल करने की नीति के कारण ही संकट पैदा हुए हैं। जो संस्कृति की अवधारणा के अनुसार भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं, वे ही देशभक्त हो सकते हैं।