बड़ा सवाल कि मोदी के मुकाबले कौन?

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चुनाव परिणाम आया नहीं कि प्रधानमंत्री पद के लिए गैर भाजपाई दलों ने चील- झपट्टा शुरू कर दिया। इसके लिए जो लोग प्रयत्नशील हैं उनमें आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्री का नाम आगे आया है। यह दोनों ही भारत दर्शन पर निकल पड़े हैं। दोनों को यह उम्मीद है कि उनके प्रयास को सफलता मिलेगी। यद्यपि गठबंधन में जो 24 दल शामिल बताये जाते हैं उसमें ऐसे भी दल हैं जिसमें उनका लोकसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। साथ ही ऐसे भी दल हैं जिसके अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है। भाजपा विरोधी फ्रन्ट का नेता कौन होगा, इसकी काफी अटकलें लगायी जा रही हैं। खासतौर पर अखिलेश यादव द्वारा यह कहे जाने के बाद कि प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश का ही होगा और वह एक महिला होगी साफ कर दिया है कि उनके पास मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कुछ महीने किये गये प्रचार अब नहीं किये जा रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। चन्द्रबाबू नायडू ने लोकसभा चुनाव से पहले एक मोर्चा गठित किया था। उसमें कांग्रेस भी शामिल थी। लेकिन तेलंगाना के चुनाव में तेलंगाना राष्ट्र समिति के सामने उसने घुटने टेक दिये। वे भी गैर कांग्रेसी मोर्चे के लिए ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तथा तमिलनाडु के स्टालिन से राजनीतिक मुलाकात कर रहे हैं। कांग्रेस दुविधा में है। इसलिए उसने यह शिगूफा छोड़ रखा है कि विपक्षी दलों में जिसकी संख्या सबसे ज्यादा होगी उसी का प्रधानमंत्री होगा। पिछले चुनाव में मात्र 44 सीटें पाने वाली कांग्रेस इस बार 150 सीटें जीतने का सपना देख रही है।
इस बार के चुनाव में मर्यादा जमकर टूटी है। हमें यह याद नहीं आता कि किसी देश के लोगों ने सत्ताधारी दल के अध्यक्ष या प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो सामान्य रूप से अवांछनीय माना जाता है। सत्ता में आने का जो उपक्रम कर रहे हैं, शायद वह पूर्व में किये गये कर्तव्यों का दुष्परिणाम भूल गए और जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, यहां तक कि निम्न भेदभाव को बढ़ाकर जीत की आशा लगाये हुए हैं। वह शायद मानकर चलते हैं कि गरीबों को केन्द्र में रखकर मोदी जी ने जो योजनाएं शुरू की हैं, उसको गाली-गलौज से ढंका जा सकता है।
शायद कोई ऐसी सरकार आएगी, उज्ज्वला जैसी योजना लाएगी जिसमें प्रत्येक गरीब व्यक्ति को बीमारी की हालत में पांच लाख रुपये का लाभ मिलेगा। स्वच्छता की बहुत बात की जाती है लेकिन उसके लिए जो पहली आवश्यकता थी, घरों में शौचालय, उसका घोर अभाव था। इस योजना से कई करोड़ भारतीय लाभ पा चुके हैं। शेष के बारे में लोगों को आशा है कि यह योजना पूरी होगी। मोदी ने दावा किया है और इस दावे का कोई विरोध नहीं हुआ कि देश के प्रत्येक गांव में बिजली पहुंच चुकी है। अब प्रत्येक घर में बिजली पहुंचाने का काम शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत जो लाभार्थी होंगे उन्हें उनके खाते में बिना बिचैलिया रकम जमा किया जाएगा। अब प्रत्येक किसान न केवल बैंक से जुड़ जाएगा बल्कि उसकी एक हैसियत भी हो जाएगी। कृषि की पैदावार 2022 तक दोगुनी करने का वादा पूरा किया जाएगा। उससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार और लाभ पाने वाले के बीच जो बिचौलिये कूद पड़ते थे जिसके कारण दिल्ली से आया हुआ एक रुपया लाभार्थी के पास मात्र 15 पैसा पहुंचता था, अब पूरा पैसा पहुंच रहा है।
मतदान के अंतिम क्षण तक अनेक ऐसे मसले उछाले गये जिससे मोदी के प्रति बना आकर्षण कम हो जाए। लेकिन मोदी की लोकप्रियता और बढ़ती गयी। 2014 के चुनाव में मोदी ने जो वादे किये थे यद्यपि वह सभी पूरे नहीं हो सके लेकिन पांच वर्ष के शासनकाल में जो वादे किये थे उनकी दिशा में तेजी से आगे बढ़कर विश्व शक्ति के रूप में अन्य कोई देश अपना स्थान बनाने में सफल नहीं हुआ। उनकी कूटनीति का परिणाम है कि विश्व बिरादरी में पाकिस्तान अकेला पड़ गया है। उसको विवश होकर आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी, भले ही वह दिखावा मात्र हो। आर्थिक सुधार की दिशा में तीन महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। एक सेवा और वस्तुकर में सर्व सम्मति से सुधार और दूसरा नोटबंदी जो भ्रष्टाचार रोकने के लिए था।
पिछले दिनों भारत की औकात के बारे में विश्वभर में आकलन की लगी होड़ ने अपने – अपने हिसाब से विरोध और अभिव्यक्तियां की गयी हैं। उससे कुछ पढ़े- लिखे लोग भले ही नाराज हो जाएं लेकिन ग्रामीण और शहरी वाशिंदा उन्हीं के पक्ष में डटा है। उनमें भी राजनीतिक समझदारी आ गयी है। इस पूरे निर्वाचन में जनसभाओं के लिए जिस प्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दौड़ाया गया है वह इस बात का प्रतीक है कि भाजपा के स्टार प्रचारकों में एक और नाम जुड़ गया है। इसकी शालीनता, शुभेच्छा और परिश्रम पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। मोदी और योगी की जुगल जोड़ी ने न केवल कार्यकर्ताओं में उत्साह भरा है बल्कि विरोधियों को हताश भी किया है। यही कारण है कि विपक्ष मोदी से भयभीत है। उसकी चुनाव के पूर्व हुई एकजुटता का स्वरूप मंचों से नीचे नहीं उतरा। मोदी के प्रभाव से भय खा गये। अस्तित्व रक्षा के लिए कहीं -कहीं एक दो दल के नेता आपस में मिल गये। इससे लगता है कि राजनीति में उपस्थिति बनाये रखने के लिए ये दल चुनाव लड़ रहे हैं। एक अत्याचारी के रूप में उभरी ममता बनर्जी ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। राष्ट्रीय गठबंधन में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के प्रति किसी प्रकार का अविश्वास नहीं है। इसलिए मंचीय एकता और किसी खास स्थान पर खड़े होकर नारे लगाने में वे दल जुट गये हैं जो मोदी विरोधी हैं। इस चुनाव में निर्वाचन आयोग ने सभी दलों और नेताओं को अपनी स्थिति स्पष्ट करने का मौका केवल मौखिक रूप से नहीं, अपितु लिखित रूप में स्पष्ट करने का यह तरीका अपनाया है। बड़े-बड़े नेताओं को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है। वह इलेक्शन को निष्पक्ष बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। इसी के साथ एक पक्ष यह भी है कि करीब पांच हजार करोड़ की धनराशि विभिन्न छापों में बरामद की गई। यह कदम भी चुनाव में बाहुबल और धनबल के सहारे चुने जाने वाले दलों को समझ में आ जाना चाहिए।
लेकिन अभी तो मोदी विरोधी धड़े का नेता खोजा जा रहा है। इस खोज में अपना पक्ष आगे करने में कोई संकोच नहीं करता। इसलिए चाहे ममता बनर्जी हों, मायावती, शरद पवार या यहां तक कि चन्द्रबाबू नायडू स्थान बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जो एकता चुनाव के दौरान नहीं दिखाई दी वह चुनाव के बाद कैसे बनेगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ दल हैं जो ममता बनर्जी के समान केन्द्र से भिड़ना नहीं चाहते। ऐसे दलों में ओडिशा की सत्तारूढ़ पार्टी बीजू जनता दल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। क्षेत्रीय दल केन्द्र की सत्ता के साथ संबंध बनाने में सदैव आगे रहे हैं। इसीलिए विपक्षी एकता के लिए जो प्रयत्न हो रहे हैं, उसमें सफलता की संभावना कम नजर आ रही है। मोदी के मुकाबले कौन, का उत्तर देने में अक्षम महागठबंधन बिखरकर आपस में ही लड़ना शुरू कर दिया है। जैसा कि इससे पहले कई बार हो चुका है।

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