बेचैन करती मतदाताओं की बेरुखी
सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के सात चरणों में से तीन चरण पूरे हो चुके हैं। इनमें 543 में से 302 लोकसभा सीटों के लिए मतदान हो चुका है। तीन चरणों के मतदान के जो आंकड़े सामने आए हैं वे साफ तौर से मतदाताओं की मतदान के प्रति बेरुखी दर्शा रहे हैं। देश में आधे से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों के लिए मतदाता अपने प्रतिनिधियों के भाग्य का फैसला ईवीएम में लिख चुके हैं। लेकिन कितना निराशाजनक है कि लाख प्रयासों के बावजूद मतदान का औसत 70 फीसदी के आंकड़े को पार नहीं कर पाया है। पहले चरण में 69.45 प्रतिशत तो दूसरे चरण में 69.43 फीसदी मतदाताओं ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। तीसरे चरण का मतदान प्रतिशत भी 66-67 प्रतिशत के आंकड़े के आसपास आकर टिक रहा है। यह सब तो तब है जब सारे टीवी चैनल्स और मीडिया के सभी माध्यम चुनावी खबरों से अटे पड़े हैं। यहां तक कि एक तरफ मतदान जारी है तो दूसरी तरफ देश के किसी न किसी कोने में हो रही चुनावी रैलियों, चुनाव सभाओं या रोड शो का लाइव प्रसारण हो रहा है। न जाने मतदाता के मन में क्या है कि वह मतदान केन्द्र तक पहुंच ही नहीं रहा। सत्रहवीं लोकसभा के लिए मतदान का प्रतिशत पिछले चुनावों में मतदान के आंकड़ें तक भी पहुंचेगा या नहीं, शक है। अभी तक के चरणों में मतदान के आंकड़े तो यही इंगित कर रहे हैं कि कहीं मतदान प्रतिशत पहले से भी कम न रह जाए।
प्रश्न यह उठता है कि मतदाताओं की आखिर इतनी बेरुखी का कारण क्या है? क्यों मतदाता लाख प्रयासों के बावजूद मतदान केन्द्र तक जाकर अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर रहा? आखिर क्या कारण है कि चर्चा करने में तो हर मतदाता आगे रहता है पर अपने दायित्व को पूरा करने में पीछे छूट रहा है? क्यों आम मतदाता अपने अधिकार की बात तो कर रहा है पर अपने दायित्व या यों कहे कि अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ रहा है? प्रश्न यह भी है कि क्या मतदाता का अपना कोई दायित्व नहीं हो जाता? मतदाता देश का जिम्मेदार नागरिक है और इस नाते अपनी पसंद की सरकार बनाने और अपनी पसंद के नेता को मतदान कर संसद तक भेजने का उसका दायित्व हो जाता है उसके बाद भी वह अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए उत्साहित नहीं दिख रहा।
देश के निर्वाचन आयोग की जितनी तारीफ की जाए, कम है। निर्वाचन आयोग ने दुनिया के सामने निष्पक्ष और साफ-सुथरा चुनाव कराने की आदर्श मिसाल पेश की है। सारी दुनिया हमारी चुनाव व्यवस्था की कायल है। अब तो हमारे देश में इलेक्शन टूरिज्म भी जोर पकड़ने लगा है। विदेशों से लोग घूमने के बहाने यहां आकर हमारी चुनावी प्रक्रिया को देख रहे हैं। इसके अलावा चुनावी प्रक्रिया को आसान और पारदर्शी बनाने के साथ ही चुनाव आयोग अभियान चलाकर लोगों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहा है। लोगों में विश्वास पैदा करने के लिए पुलिस और यहां तक कि आवश्यकतानुसार सुरक्षा बलों तक की तैनाती कर रहा है। यही कारण है कि आज चुनावों में बूथ कैप्चरिंग या बाहुबलियों के डर से मतदाताओं में भय की स्थिति लगभग शून्य पर पहुंच गई है। मतदान केन्द्र भी मतदाताओं के नजदीक बनाया जा रहा है। लोगों को मतदान पर्चियों के लिए भी अब राजनीतिक दलों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता बल्कि स्वयं चुनाव आयोग उपलब्ध करा रहा है। मीडिया के माध्यम से मतदान की सारी प्रक्रिया को समझाया जा रहा है। ऐसे में आम मतदाताओं का भी दायित्व हो जाता है कि वे मतदान केन्द्र तक जाएं और मताधिकार का उपयोग करें।
एक बात और सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाती है और वह यह कि जो जिम्मेदार नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करता है उसे सरकार के किसी भी कदम पर टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। सरकार की आलोचना करना तो आसान है पर करीब 30 फीसदी लोग अपने दायित्व का निवर्हन नहीं करते हैं तो इससे निराशाजनक और क्या होगा? आखिर देश के प्रत्येक मतदाता का यह दायित्व हो जाता है कि वह पांच साल के लिए चुनी जाने वाली सरकार के लिए मतदान कर अपने कर्तव्य को पूरा करे। कितनी दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि 17 वीं लोकसभा के चुनाव आते आते भी हम मतदान के आंकड़े को 90 फीसदी तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। क्या इसे यह माना जाए कि 30 फीसदी लोगों का तो विश्वास ही कहीं और है।
अभी भी दो सौ से अधिक लोकसभा सीटों के लिए मतदान होना है। कई प्रदेशों की सभी सीटों के लिए मतदान पूरा हो चुका है पर राजस्थान सहित कई प्रदेशों की 240 सीटों के लिए मतदान आने वाले चार चरणों में होने जा रहा है। अब प्रत्येक मतदाता का दायित्व हो जाता है कि वह व्यवस्था को कोसने के स्थान पर अपने मताधिकार के दायित्व को पूरा करने के लिए आगे आए और अपने मताधिकार का प्रयोग करे। आखिर लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही तो खूबी है कि जनता स्वयं अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है। हमारे देश के निर्वाचन आयोग की भी यह खूबी है कि वह निष्पक्ष, स्वतंत्र और भयहीन चुनावों की व्यवस्था सुनिश्चित कर रहा है। ऐसे में आम मतदाता को घर से बाहर निकल कर मतदान केन्द्र तक तो पहुंचना ही होगा। उसे भी लोकतंत्र के इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही होगी। कुछ गैरजिम्मेदाराना सोच वाले व्यक्तियों द्वारा मतदान के बहिष्कार जैसी छुटपुट स्थितियां पैदा की जाती है वह लोकतंत्र के लिए घोर निराशाजनक है। नोटा का प्रयोग कोई समाधान नहीं माना जा सकता। नोटा के प्रयोग से हम अपना विरोध तो जाहिर कर देते हैं वहीं कुछ स्थानों पर नोटा का प्रयोग चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में भी सफल रहता है। अब मतदान के चार चरण शेष हैं तो इन चार चरणों में हमें अपने मताधिकार का उपयोग करने का संकल्प लेना होगा और मतदान कर लोकतंत्र की इस यज्ञ में अपनी आहुति मतदान के माध्यम से देनी होगी।