भारत में प्रेस की भूमिका और उसकी ताकत को रेखांकित करते हुए अकबर इलाहाबादी ने कहा था, ‘खींचो न कमान, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’ उनके इस कथन का आशय यही था कि कलम तोप व तलवार तथा अन्य किसी भी हथियार से ज्यादा ताकतवर है। दरअसल कलम को तलवार से भी ज्यादा ताकतवर और तलवार की धार से भी ज्यादा प्रभावी इसलिए माना गया है क्योंकि इसकी सजगता की वजह से न केवल भारत, बल्कि कई देशों में पिछले कुछ दशकों के भीतर बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हो सका, जिसके चलते बड़े-बड़े उद्योगपतियों, नेताओं तथा विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को एक ही झटके में अर्श से फर्श पर आना पड़ा। याद करें, जब 1970 के दशक में अमेरिका के मशहूर ‘वाटरगेट’ कांड का भंडाफोड़ हुआ था। तब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को पद छोड़ने पर विवश होना पड़ा था। भारत में भी मुख्यमंत्री और मंत्री पदों पर रहे कुछ आला दर्जे के नेता प्रेस की सजगता के ही कारण भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में आज भी जेल की हवा खा रहे हैं। संभवतः यही कारण है कि कुछ समय से कलम रूपी इस हथियार को भोथरा बनाने या तोड़ने के कुचक्र हो रहे हैं। यही नहीं न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में पत्रकारों को अपनी जान देकर सच की कीमत चुकानी पड़ रही है।
3 दिसम्बर 1950 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक सम्बोधन में कहा था, ‘मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने की बजाय, उसकी स्वतंत्रता के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा, क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता एक नारा भर नहीं है। यह लोकतंत्र का अभिन्न अंग है।’ प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में आज स्थितियां काफी बदल गई हैं। आज पत्रकारों पर राजनीतिक, आपराधिक और आतंकी समूहों का सर्वाधिक खतरा रहता है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यह विडम्बना ही है कि दुनियाभर के न्यूज रूम्स में सरकारी तथा निजी समूहों की वजह से भय और तनाव में वृद्धि हुई है। चूंकि किसी भी देश में लोकतंत्र की मजबूती में प्रेस की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसीलिए एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को अहम माना जाता रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि विगत कुछ वर्षों से प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में लगातार कमी देखी जा रही है।
कुछ समय पूर्व अमेरिकी वॉचडॉग फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में कहा गया था कि प्रेस स्वतंत्रता में पिछले करीब डेढ़ दशकों से कमी देखी जा रही है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की वार्षिक रिपोर्ट में तो भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर जो तथ्य पेश किए गए, वे बेहद हैरान-परेशान करने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत जहां प्रेस स्वतंत्रता के मामले में 2017 में 136वें स्थान पर और 2018 में 138वें पायदान पर था, वहीं अब दो पायदान और नीचे खिसककर 140वें पायदान पर पहुंच गया है। इस संस्था के अनुसार विश्वभर में पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल रही है। इससे पत्रकारों में डर बढ़ा है। भारत में प्रेस की स्वतंत्रता मामले में स्थिति दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। इस संस्था द्वारा वर्ष 2009 में जारी रिपोर्ट में भारत प्रेस की आजादी के मामले में 109वें पायदान पर था, एक दशक में वह 31 पायदान लुढ़ककर 140वें स्थान पर जा पहुंचा है। नि:संदेह प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में यह गिरावट स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता में कमी आने का सीधा और स्पष्ट संकेत यही है कि लोकतंत्र की मूल भावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार निहित है, धीरे-धीरे उसमें कमी आ रही है।
भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे सफल और बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। अगर नार्वे जैसा छोटा देश प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में शीर्ष स्थान पर विराजमान है तो क्या यह स्थिति भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश को मुंह चिढ़ाने जैसी नहीं है। प्रेस की आजादी के मामले में सबसे बेहतर स्थिति नार्वे की है। नार्वे के अलावा फिनलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, न्यूजीलैंड, जमैका, बेल्जियम तथा कोस्टारिका भी प्रेस स्वतंत्रता वाले देशों में शीर्ष स्थान पर विराजमान हैं जबकि तुर्कमेनिस्तान, उत्तर कोरिया, इरीट्रिया, चीन, वियतनाम, सूडान, सीरिया, जिबूती, सऊदी अरब, लाओस इत्यादि देशों में प्रेस स्वतंत्रता की स्थिति सबसे बदतर है। पाकिस्तान 142वें स्थान पर पहुंच गया है जबकि बांग्लादेश भी 150वें पायदान पर लुढ़क गया है। तस्वीर के दूसरे पहलू को देखें तो प्रेस की आजादी के मामले में अगर अफगनिस्तान जैसा देश भी हमसे आगे है तो हमें गंभीरता से यह विचार मंथन करने की जरूरत है कि हम इस मामले में वर्ष दर वर्ष क्यों फिसलते जा रहे हैं? हमारे कर्णधार लोकतंत्र को किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं?
‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष भारत में कम से कम छह पत्रकारों की हत्या कर दी गई। इसके अलावा कई पत्रकारों पर जानलेवा हमले भी हुए तो कई पत्रकारों को सोशल मीडिया पर ‘हेट कैंपेन’ का भी सामना करना पड़ा। अगर मामले की गहराई तक जाकर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि स्थिति कितनी बदतर है। कुछ समय पहले इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि 1990 से लेकर अब तक करीब ढाई दशकों में 2300 से भी अधिक पत्रकारों की हत्या हुई है। इनमें सिर्फ वर्ष 2015 में ही 112 पत्रकारों को मौत की नींद सुला दिया गया। भारत के संबंध में ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता की वर्तमान स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती है। खोजी पत्रकार जान जोखिम में डाल कर अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं। पत्रकारों पर अंकुश लगाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद हर प्रकार के अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। न मानने पर कई बार पत्रकार की हत्या तक कर दी जाती है। पत्रकारों की हत्या करना मीडिया पर दबाव बनाने का सबसे आखिरी और क्रूरतम तरीका माना गया है
भारतीय संविधान में प्रेस को अलग से स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है। उसकी स्वतंत्रता भी नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में ही निहित है। पत्रकारों की हत्याएं तथा पत्रकारिता का चुनौतीपूर्ण बनते जाना लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं है। कल्पना की जा सकती है कि प्रेस की स्वतंत्रता अगर इसी प्रकार सवालों के घेरे में रही तो पत्रकार कैसे पारदर्शिता के साथ अपने कार्य को अंजाम देते रहेंगे? प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के प्रयासों के चलते कैसे सच को उजागर कर उसे निष्पक्ष तरीके से जनता तक पहुंचाया जाना संभव होगा? अगर प्रेस की स्वतंत्रता पर इसी प्रकार प्रश्नचिह्न लगते रहे तो पत्रकारों से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने की कल्पना कैसे की जा सकेगी? हालांकि कुछ अवसरों पर पत्रकारों पर दलाली खाने और भ्रष्ट राजनीतिक या प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा बनने के आरोप भी लगते रहे हैं। इसलिए यह भी बेहद जरूरी है कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ‘प्रेस’ को भी अपनी सीमाओं और मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए अपनी स्वतंत्रता का सही इस्तेमाल करना चाहिए।