पाकिस्तान के पार से खुलता है विश्व-शक्ति बनने का रास्ता

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देशों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का संचालन तत्कालिक और अस्थायी स्थितियों की प्रतिक्रिया मात्र न होकर, स्थायी राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में होता है। उसमें महत्वपूर्ण है कि कोई देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति और विश्व अर्थ-व्यवस्था में अपनी स्वयं की स्थिति और भागीदारी का कैसा स्वरूप चित्रित करता है। दूसरा, अपने पास-पड़ोस के अंतरराष्ट्रीय परिवेश में वह अपने लिए किस प्रकार की भूमिका में है। राष्ट्र मानस में शत्रु व मित्र देशों के बारे में कैसा बिम्ब बनाता है। साथ-साथ पास- पड़ोस की तुलना में उसकी अपनी आर्थिक और राजनीतिक हैसियत क्या है। तीसरा, देश की आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था तथा उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट उसे विश्व के अन्य देशों से कैसे संबंध स्थापित करने की अनुमति देती है। क्योंकि, देश सिर्फ भावनाओं से नहीं चलते हैं । हम पहले ही कम विरोधाभासों में नहीं जी रहे हैं। आजादी की आधी सदी जी लेने के बाद, अचानक से भूमंडलीकरण की राह को पकड़ लेना, पूंजीवादी मॉडल पर विकास को गति देना, परमाणु निरस्तीकरण की वकालत के बावजूद परमाणु शक्ति की ओर निरन्तर बढ़ना, कारगिल युद्ध , संघर्ष विराम, सर्जिकल स्ट्राइक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अचानक से गतिशीलता बढ़ाना, आतंकी देश पाकिस्तान को बातचीत का निमंत्रण देना। ये सब ऐसे प्रश्न हैं जो सत्तर साल बाद भी हमारी विदेश नीति की अस्पष्टताओं का पर्दाफाश करने के लिए पर्याप्त हैं। भारतीय नेतृत्व को इन सवालों का निश्चित और संतुलित जवाब तो देना ही पड़ेगा। हमारी अंतरराष्ट्रीय भूमिका क्या सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक-आर्थिक -राजनीतिक संबंधों की ऐतिहासिक निरन्तरता को अक्षुण्ण बनाये रखेगी? क्या हम आज तक अपना कोई ठोस स्पष्ट राजनयिक दर्शन विकसित कर पाए? सांस्कृतिक-आार्थिक राजनय का पूरा लाभ ले पाए? या हम बस दूसरों के पिछलग्गू बने रहेंगे। एक तरफ हम विश्व शक्ति होने का दावा करते हैं लेकिन क्या इस सच्चाई से मुंह मोड़ा जा सकता है कि हमारी विदेश नीति आज तक पाकिस्तान को पार नहीं कर पायी। विश्वशक्ति बनने का रास्ता तो उसके पार ही खुलता है। सोवियत पतन के बाद एक तो गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करना जरुरी है। भूमण्डलीकरण और सूचना क्रांति की प्रक्रिया में जरुरी है कि हम अपनी आर्थिक, सामरिक और विकास संबंधी नीतियों को गुणात्मक ढंग से नया रूप दे। नये क्षेत्रीय गठबंधनों और राजनीतिक-सामरिक समूहों के सन्दर्भ में अपनी स्थिति को परिभाषित करे। हम महाशक्ति के रुप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं तो विश्व के शक्ति केन्द्रों अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन, रूस और आसियान के साथ नये समीकरण बनाने होंगे। नये सत्ता समीकरणों के अनुरूप भारत को विभिन्न महत्वपूर्ण देशों के नीतिगत साधनों के संदर्भ में अपनी प्रतिरक्षा और आर्थिक सहयोग में विविधता लानी पड़ेगी । विश्व अब एक ध्रुवीय या द्वि-ध्रुवीय नहीं रहा बल्कि बहुध्रुवीय हो रहा है। हमारी राजनयिक कुशलता इसमें है कि हम बहुमुखी होती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के साथ सामंजस्य स्थापित करें। सबसे पहले तो भारत अपने क्षेत्र दक्षिण एशिया में सर्व स्वीकार्य बने। तब विश्व-शक्ति बनने का रास्ता बनेगा। पड़ोसियों से मधुर संबंध इसकी अपरिहार्य शर्त है। भारतीय राजनयिकों पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही है कि हमारी योजना अपना प्रभुत्व अथवा नेतृत्व स्थापित करने की न हो, यह कार्य राजनयिक कुशलता से बहुत सहज भाव करने की जरूरत है। इण्डोनेशिया आस्ट्रेलिया जैसे बड़े देश व हिन्द-चीन सरीखे संकट तथा बर्मा, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर एवं अफगानिस्तान व पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से सम्मान पाना हमारी विश्व स्वीकार्यता को बढ़ाएगा। एशिया में महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त करेगा। विश्व अर्थव्यवस्था में हमारी भूमिका को निर्णायक बनाएगा। मजबूत अर्थतंत्र ही विश्वशक्ति के प्रमाण-पत्र पर हस्ताक्षर कराने का हकदार होता है। विश्व की मैजूदा महाशक्तियां चाहती हैं कि दक्षिण एशिया अस्थिर रहे। भारत और चीन अब ज्यादा मजबूत अर्थव्यवस्था की तरफ न बढ़ें। पाकिस्तान सिरदर्द बना रहे। सैन्यशक्ति हमें बाजार उपलब्ध कराती रहें। क्षेत्रीय असंतोषों को पोषण देना वैश्विक राजनय के एजेंडे का हिस्सा है। आतंकवाद इस बड़ी कार्ययोजना में एक पोषित कार्यक्रम है। जिसके समारोह निरीह प्राणियों की हत्या कर समय-समय पर आयोजित किये जाते हैं, जिनकी आड़ में राष्ट्रवाद के युद्धोन्माद पैदा किये जाते हैं। बदलते वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में भारतीय राजनय और राजनीतिज्ञता की समझ इसी में है कि वह अपने संबंधों के क्षेत्र को व्यापक बनाए। पड़ोसी देशों में एक नई व्यवस्था की स्थापना के लिए अनुकूल माहौल पैदा करे। स्थायी सामूहिक सुरक्षा के लिए गम्भीरता के साथ क्षेत्रीय सहकार, सुरक्षा और स्थायित्व के लिए प्रयत्न करे। विभिन्न समस्याओं और विषमताओं के लिए आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी सहकार के प्रयत्न करे। भारत को दक्षिण एशियाई क्षेत्र का नेतृत्व करते हुए सभी दक्षिण एशियाई देशों के सम्पूर्ण विकास पर ध्यान देना होगा। तभी इस क्षेत्र में शांति और सहयोग की संभावनाएं उभरेंगी और सुरक्षा का स्थायी भाव जग सकेगा। सुरक्षा अब एक-आयामी या राष्ट्रकेन्द्रित परिघटना नहीं रही है। इसके लिए अब क्षेत्रीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सुरक्षा के गैर-सैन्य पहलुओं की बढ़ती महत्ता क्षेत्रीय सहयोग की क्रिया-विधि को मजबूत बनाएगी। सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याओं के लिए एक क्षेत्रीय दृष्टि अपनाये जाने की आवश्यकता है। विकास के लिए संतुलित और सहकारी दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। बदलते वैश्विक परिदृश्य को बहुत सतर्कता से समझने की जरूरत है। भारत को अपने पड़ोसी देशों से सकारात्मक दृष्टिकोण के आधार पर किसी बड़े राष्ट्र की भूमिका में नहीं बल्कि एक-सी समस्याओं से जूझने वाले साथी की तरह से व्यवहार कर, एक स्वस्थ क्षेत्रीय दष्टिृकोण विकसित करना होगा। बाजारीकरण के दौर में एशियाई देश चुनौतियों का सामना गहरी समझ और साझेदारी से ही कर सकते हैं, क्योंकि विश्व पटल पर बाजारू स्पर्धा में बड़ी-बड़ी महाशक्तियां हैं। युद्ध सरहदों पर नहीं हो रहा है| असली युद्ध चौबीसों घंटे बाजार के बीच चल रहा है। विकासशील देश अपनी अनेक समस्याओं को विदेशी मदद की अपेक्षा आपसी सहयोग से ज्यादा अच्छी तरह से सुलझा सकते हैं। बाहरी मदद हमारी जरूरतें समझकर नहीं आती हैं, बल्कि अपने निहितार्थ साथ लाती हैं। भारतीय राजनय को नई राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के साथ नये ढंग से सोचने-विचारने की आवश्यकता है। महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा के साथ-साथ भारतीय राजनय की भूमिका अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण हो गयी है। भारतीय राजनयिकों को इस जिम्मेदारी को समझना होगा तथा कुशल कूटनीतिक दर्शन विकसित कर सर्जिकल स्ट्राइक के साथ स्मार्ट राजनय भी करना होगा।


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