पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गठन का गुनहगार कौन?

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मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी में घुस आये पाकिस्तानी आक्रान्ताओं को 27 अक्टूबर से 10 दिनों की भारी मशक्कत के बाद भारतीय सेना पीछे खदेड़ने में सफल हो गई और 07 नवम्बर बीतते ही सम्पूर्ण घाटी-क्षेत्र पूरी तरह से सुरक्षित हो गया।



मनोज ज्वाला
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर जम्मू-कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बना दिए जाने के बाद अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर भी चर्चा होने लगी है। सन 1947 में जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी-कबायली आक्रमण हो जाने और उसी दौरान उस पूरी रियासत का वहां के महाराजा के हाथों भारत संघ में विधिवत विलय हो जाने के पश्चात भारतीय सेना के जवानों ने जब आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया था, तब उसका लगभग एक-तिहाई भू-भाग अर्थात उसके आठ जिलों- मीरपुर, भीम्बर, कोटली, मुजफ़्फराबाद, नीलमबाग, रावला, कोट व सुधनती की भूमि आखिर ‘पाकिस्तान अधिकृत’ कैसे हो गई? यह सवाल जितना स्वाभाविक है, इसका जवाब उतना ही अस्वाभाविक है।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि 26-27 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का उसके महाराजा हरि सिंह के हाथों भारत संघ में विलय हो जाने के साथ ही भारतीय सेना श्रीनगर धमक चुकी थी। लेकिन, जवाहरलाल नेहरु ने उक्त सैन्य-अभियान की ‘ओवर ऑल कमान’ महाराजा-विरोधी शेख अब्दुल्ला के हाथों में सौंप दी थी, जिसे सेना के जवान अपनी पहली खेप के हेलिकॉप्टर से ही साथ लिए हुए गए थे श्रीनगर। वहां पहुंचते ही हमारी सेना तो कश्मीर-घाटी में घुस चुके पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को महाराजा-समर्थक भारतीय पक्ष की हिन्दू प्रजा के सहयोग से खदेड़ने के अभियान में जुट गई थी, किन्तु नेहरुजी की कृपा से उस रियासत का आपातकालीन प्रशासक बने शेख अब्दुल्ला अपने ‘मुस्लिम कान्फ्रेंस’ (बाद में बना नेशनल कान्फ्रेंस) के कार्यकर्ताओं को गोलबंद करने और उस रियासत के भारत में हो चुके विलय को झुठलाने में लग गए थे। श्रीनगर पहुंचते ही वहां के प्रताप चौक पर एक सभा को संबोधित करते हुए शेख अब्दुल्ला ने कहा था- ‘हमने खाक में से उठा लाया है कश्मीर का ताज, हम हिन्दुस्तान में रहें या पाकिस्तान में, यह तो बाद का सवाल है; पहले तो हमें अपनी आजादी मुकम्मल करनी है’। अपने इसी लक्ष्य के हिसाब से अब्दुल्ला ने केवल मुस्लिम-बहुल घाटी-क्षेत्र को आक्रमणकारियों से मुक्त करने और हिन्दू-बहुल इलाकों पर पाकिस्तान का कब्जा होने देने अथवा वहां की बहुसंख्यक आबादी (जो महाराजा का समर्थक थी) का उन्मूलन कर देने की रणनीति के तहत उक्त सैन्य-अभियान का संचालन किया।
मालूम हो कि मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी में घुस आये पाकिस्तानी आक्रान्ताओं को 27 अक्टूबर से 10 दिनों की भारी मशक्कत के बाद भारतीय सेना पीछे खदेड़ने में सफल हो गई और 07 नवम्बर बीतते ही सम्पूर्ण घाटी-क्षेत्र पूरी तरह से सुरक्षित हो गया। तब वे आक्रमणकारी हिन्दू-बहुल क्षेत्रों की ओर कूच कर गए थे। 09 नवम्बर को उन्होंने भीम्बर नगर को चारों तरफ से घेर लिया था। वहां भी अब्दुल्ला के मुस्लिम कान्फ्रेंसी कार्यकर्ता लूट के माल-असबाब की लालच के वशीभूत होकर उन आक्रान्ताओं से ही मिल गए, तो बहुसंख्यक हिन्दू-प्रजा जिहादी कहर का शिकार बनती गई। देखते-देखते भीम्बर शहर खाली हो गया और पूरी तरह से उनके कब्जे में आ गया। तब कबायली सैनिक मीरपुर शहर को घेर लिए। वहां तैनात रियासती सेना की छोटी-सी टुकड़ी उसके मुस्लिम सैनिकों की गद्दारी के कारण जब जान-माल की रक्षा करने में अक्षम सिद्ध होने लगी, तब कुछ लोग जैसे-तैसे जम्मू के गण्यमान्य लोगों को साथ लेकर भारतीय सेना के ब्रिगेडियर परांजपे से मीरपुर के बिगड़े हालातों का बयान कर सुरक्षा की गुहार लगाए। लेकिन ब्रिगेडियर ने मीरपुर में सैनिक सहायता भेजने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि सेना की ‘ओवर ऑल कमान’ शेख अब्दुल्ला के हाथ में है, जिसने भारतीय सेना की तमाम सैन्य पलटनों को कश्मीर-घाटी में ही तैनात कर रखा है। अब्दुल्ला की अनुमति के बगैर मीरपुर में हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। अतः इस बाबत आप लोग नेहरुजी से मिलकर कहिए, जो 15 नवम्बर को ही श्रीनगर जाने के दौरान जम्मू हवाई अड्डे पर थोड़ी देर ठहरेंगे’। ब्रिगेडियर की पहल पर अगले दिन पण्डित प्रेमनाथ डोगरा व विष्णु गुप्त आदि लोगों के साथ नेहरुजी से मिलने वाले प्रो. बजराज मधोक ने अपनी पुस्तक- ‘कश्मीर-जीत में हार’ के एक पृष्ठ पर लिखा है-‘हमलोगों को पूरा विश्वास था कि हालातों से अवगत होते ही नेहरुजी मीरपुर, भीम्बर, पूंछ, एबटाबाद आदि सभी क्षेत्रों को पाकिस्तान के जबड़े में जाने से बचाने के लिए सेना भेजने का आदेश तत्क्षण ही कर देंगे। किन्तु, उन्होंने इसके ठीक उलट यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि आपलोग शेख साहब से मिलिए। उन्हें जब यह बताया गया कि शेख से प्रार्थना की जा चुकी है, तो वे क्रोधित हो उठे और हम सबको ‘बेवकूफ’ व ‘इडियट’ कहते हुए एक ही बात रटते रहे कि उन्होंने सेना की ‘ओवर ऑल कमान’ अब्दुल्ला को दे रखा है,  तो वही तय करेगा कि सेना कहां भेजी जाए, कहां नहीं’।
इस तरह से भीम्बर के बाद मीरपुर भी लुटता रहा, किन्तु सेना वहां नहीं भेजी गई; क्योंकि हिन्दू-बहुल इलाकों में महाराजा-समर्थक भारतीय पक्ष की हिमायती प्रजा का सफाया करा देना और उन पर पाकिस्तान का कब्जा होने देना अब्दुल्ला की गुप्त योजना थी। फलतः 22 नवम्बर को पूरा मीरपुर दहल गया। 40 हजार की आबादी में से बचे-खुचे कुछ हजार लोगों को पाकिस्तानी कबायली सेना द्वारा बंधक बनाकर रावलपिण्डी ले जाया गया। उस नरसंहार से किसी तरह बच निकले बाल के. गुप्ता ने ‘फॉरगॉटन एट्रोसिटिज मेमोरिज ऑफ द सरवाइवल ऑफ 1947 पार्टिशन ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक में लिखा है- ‘झेलम नहर के किनारे-किनारे भेड़-बकरियों की तरह हांके जा रहे उस काफिले में से कुछ स्त्रियां तो नहर में कूद कर उन दरिन्दों की हवश का शिकार होने से बच गईं, किन्तु शेष तमाम लोगों में पुरुषों व बच्चों को मारकर सभी स्त्रियों को पाकिस्तान सहित विभिन्न खाड़ी देशों के बाजारों में बेच दिया गया’। मीरपुर के बाद कोटली, राजौरी, पूंछ और एबटाबाद आदि का भी यही हाल हुआ।
कश्मीर घाटी में भारतीय पक्ष की आबादी अल्पसंख्यक होने के बावजूद वहां से पाकिस्तानी कबायली आक्रमणकारियों को मार भगाने में सफल रही भारतीय सेना की एक भी पलटन अगर भारतीय पक्ष की बहुसंख्यक आबादी वाले उन क्षेत्रों में भेज दी जाती, तो उन पर पाकिस्तान का कब्जा होता ही नहीं। लेकिन शेख अब्दुल्ला की कुटिल नीति और जवाहरलाल नेहरु की शेख-भक्ति के कारण कश्मीर में भारतीय सेना की उपस्थिति के बावजूद उसकी एक तिहाई भूमि पर पाकिस्तान काबिज हो गया। फिर नेहरुजी पाकिस्तानी कब्जे वाले उस भू-भाग को मुक्त कराने की बजाय उस मामले को जब संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए, तब उसके निर्देशानुसार यथास्थिति कायम रह गई, तो वह क्षेत्र ‘पाकिस्तान अधिकृत’ घोषित कर दिया गया। जाहिर है, मुस्लिम लीग की दहशतगर्दी और ब्रिटिश शासन की कुटिल कूटनीति के समक्ष घुटने टेककर कांग्रेस ने जिस तरह से भारत के पूरब व पश्चिम सीमा-प्रान्त के भू-भाग पर दोनों ओर पाकिस्तान बनवा दिया, उसी तरह से पश्चिमोत्तर सीमा के कश्मीर की भूमि को ‘पाकिस्तान अधिकृत’ कर दिया। इस कुकृत्य के असली गुनहगार तो महाराजा-विरोधी नेशनल कान्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला को भारतीय सैन्य-अभियान की ‘ओवर ऑल कमान’ सौंप देने वाले और महाराजा-समर्थक भारतीय पक्ष की प्रजा को ‘बेवकूफ’ व ‘इडियट’ कह कर फटकार देने वाले जवाहरलाल नेहरु हैं, जिन्हें देश के भूगोल को विकृत कर देने वाला इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।

 


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