चुनावी धन के प्रबंधक
आयकर विभाग के 500 अधिकारियों-कर्मचारियों ने रविवार को चुनावी धन के प्रबंधक एवं कुबेरों के 50 ठिकानों पर कारगर कार्यवाही को अंजाम दिया है। आईटी के छापे दिल्ली, भोपाल, इंदौर और गोवा में एक साथ डाले गए हैं। छापे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के निजी सचिव प्रवीण कक्कड़, राजेंद्र कुमार मिगलानी के अलावा राजनीतिक सलाहकार प्रतीक जोशी और मोजार बियर के यहां डाले गए हैं। कमलनाथ के भांजे रातुल पुरी भी छापे की चपेट में हैं। इन छापों में प्रतीक और प्रवीण के भोपाल एवं इंदौर के घरों से बड़ी मात्रा में नगदी बरामद हुई है। फिलहाल, 9 करोड़ रुपये नगद राशि की ही गिनती हो पाई है। नोटों की गिनती का काम जारी है। बताया जा रहा है कि यह राशि लोकसभा चुनाव में खर्च के लिए इकट्ठी की गई थी।
हालांकि मध्यप्रदेश चपरासी से लेकर आला अफसरों तक के लिए काली कमाई की उर्वरा भूमि रही है। प्रवीण साधारण नर्स के बेटे रहते हुए शिवपुरी में पढ़े-लिखे और फिर पुलिस निरीक्षक बनने के बाद अरबों रुपये की वैध-अवैध संपत्ति के मालिक बन गए। इस संपत्ति ने जब उन्हें अनेक जांचों के कठघरे में खड़ा कर दिया तो वे नौकरी छोड़ कर कांग्रेस के बड़े नेताओं के चुनावी प्रबंधक की भूमिका में आ गए। इसी भूमिका ने उन्हें कमलनाथ से जोड़ दिया।
भ्रष्टाचार से अर्जित धन के जखीरे इस बात का सबूत हैं कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून मध्यप्रदेश में बौना साबित हुआ है। नतीजतन सरकारी तंत्र भीतर से देश को दीमक की तरह खोखला कर बेजान करने में लगा है। बीते कुछ सालों के भीतर प्रदेश की लोकायुक्त पुलिस ने 125 से भी ज्यादा अधिकारियों और बाबुओं के यहां छापामार कार्रवाई करके इनसे करीब 2500 करोड़ की काली कमाई बरामद की है। अकेले आईएएस दंपत्ति टीनू-आनंद जोशी के पास से ही करीब 350 करोड़ रुपये की संपत्ति बरामद हुई थी। विद्युत वितरण कंपनी, भोपाल के बाबू अर्जुनदास ललवानी से 42 करोड़ और उज्जैन के वन संरक्षक बसंत कुमार सिंह से करीब 70 करोड़ की संपत्ति बरामद हुई थी। जौनपुर उत्तरप्रदेश के मूल निवासी सिंह के पास भोपाल के आसपास के जिलों में करीब 400 बीघा कृषि भूमि के दस्तावेज, कई अन्य अचल संपत्तियां, कंपनियों में पूंजी निवेश और बड़ी मात्रा में सोने-चांदी के जेवरात भी बरामद हुए थे। जाहिर है, देश में बाड़ ही खेत चरने का काम कर रही है।
मध्य-प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार से अर्जित काली कमाई को जब्त करने के लिहाज से ‘मध्य-प्रदेश विशेष न्यायालय अधिनियम 2011’ बनाया हुआ है। इस कानून को लेकर प्रचार किया गया था कि इसके दायरे में सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और चपरासी से लेकर प्रमुख सचिव हैं। सेवानिवृत्त अधिकारियों, पूर्व जन-प्रतिनिधियों और मंत्रियों पर भी इसका शिकंजा कसेगा। इस कानून से सजा प्राप्त लोकसेवक फैसले की अपील केवल उच्च न्यायालय में कर सकेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि भ्रष्ट तरीकों से कमाई गई संपत्ति को सरकार जब्त कर लेगी और जब्त भवनों में सरकारी विद्यालय व कार्यालय खोले जाएंगे। लेकिन यह कानून हाथी के दिखाने का दांत साबित हुआ। इसे वजूद में आए आठ साल हो चुके हैं। इस दौरान व इससे पहले भ्रष्टाचारियों की अरबों की काली कमाई का खुलासा हो चुका है। लेकिन ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है कि किसी भ्रष्टाचारी की संपत्ति जब्त कर उसमें बिहार की तर्ज पर पाठशाला खोली गई हो।
यहां गौरतलब है कि जिस किसी भी लोकसेवक के यहां छापामार कार्यवाही की जाती है, उनकी घरेलू पत्नियों के पास से भी करोड़ों की संपत्ति बरामद होती है। इसलिए जरूरी है कि भ्रष्टाचारी की पत्नी को भी पति को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने व भ्रष्ट संपत्ति को संरक्षित करने में बराबर का दोषी मानते हुए आरोपी बनाया जाना चाहिए। बतौर मिसाल लोकायुक्त पुलिस दिल्ली की सीबीआई अदालत द्वारा दिए इंजीनियर आरके डबास के मामले को ले सकती है। सीबीआई विशेष न्यायालय के जज धर्मेश शर्मा ने दिल्ली नगर निगम के इंजीनियर को रिश्वत तथा भ्रष्टाचार का दोषी पाया था। अदालत ने डबास को तो तीन साल की सश्रम कैद और पांच लाख के जुर्माने की सजा सुनाई ही, उनकी पत्नी को भी एक साल की कैद और ढाई लाख के जुर्माने का दण्ड दिया था। उस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने कहा था कि आरोपी की पत्नी घरेलू महिला जरूर है, लेकिन वह अपने पति को भ्रष्टाचार के लिए उकसाती थी और इस कमाई से चल व अचल संपत्ति जोड़ती थी। तय है, पत्नियों की अप्रत्यक्ष रुप से भ्रष्टाचार में भागीदारी रहती है। जबकि पत्नी का फर्ज बनता है कि वह पति के भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाए।
इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को भी भ्रष्टाचार के 23 साल पुराने मामले में शिमला की उच्च न्यायालय ने आरोपी बनाकर एक अनूठी नजीर पेश की थी। दरअसल पति या पिता के भ्रष्टाचार से यदि उसकी पत्नी और बालिग बच्चे संपत्ति जोड़ते हैं तो उन्हें भी क्यों न भ्रष्ट कदाचरण का अपराधी माना जाए? इस हेतु दण्ड प्रक्रिया संहिता में भी संशोधन की जरुरत है।
भ्रष्टाचार न केवल देश की छवि को बट्टा लगा रहा है, बल्कि वह अर्थव्यवस्था को चौपट करने और अचल संपत्ति की कीमतें बढ़ाने का भी काम कर रहा है। भ्रष्टाचार से अर्जित दौलत से एक व्यक्ति कई-कई अचल संपत्तियों का मालिक बन जाता है। इस कारण बाजार में एक ओर तो संपत्ति का मूल्य बढ़ता रहता है, दूसरी ओर उसका अभाव भी रहता है। नतीजतन, वास्तविक जरूरतमंद घर की छत पाने के लिए भी लाचार बना रहता है। इन निजी सचिवों के यहां डाले गए छापे और बरामद संपत्ति ने तो साफ-सुथरी छवि वाले कमलनाथ की छवि को भी धूमिल करने का काम कर दिया है।
हांगकांग की एक सलाहकार कंपनी ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा था कि एशिया में सबसे भ्रष्ट भारत की नौकरीशाही है। भ्रष्ट होने के साथ ही वह आला दर्जे की मगरुर और निरकुंश भी है। यह आकलन झूठा अथवा मनगढ़ंत नहीं है, क्योंकि यह कई अध्ययनों से सामने आ चुका है कि आम भारतीय हर साल 40,000 करोड़ रुपये भूमि संबंधी प्रशासनिक कार्यों के लिए बतौर रिश्वत देते हैं। 25,500 करोड़ की अवैध वसूली देश के आम नागरिकों से पुलिस करती है। उच्च न्यायालय, दिल्ली अपने एक फैसले में कह चुका है कि 90 प्रतिशत सरकारी अधिकारी-कर्मचारी भ्रष्ट हैं। दरअसल इसके लिए नौकरशाही के साथ-साथ अक्षम राजनीतिक नेतृत्व भी दोषी है और शिथिल प्रशासनिक व्यवस्था भी। हमारी कार्यप्रणाली में सोच का ढंग ऐसा हो गया है कि हालातों को बदलना नामुमकिन लगता है। अब प्रवीण कक्कड़ की ही बात करें। इन्हें भ्रष्टाचार की अनेक जांचों में घिरा पाकर 2004 में अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गई थी। इस समय तक प्रवीण एसडीओपी हो गए थे। सेवानिवृत्ति के फौरन बाद ये मध्यप्रदेश के प्रभावशाली आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया के निजी सचिव बन गए। भूरिया का चुनावी प्रबंध भी प्रवीण ही संभालते थे। उनकी इसी कौशल दक्षता का पुरस्कार भूरिया ने कमलनाथ का निजी सचिव बनाकर दिया। कमलनाथ और भूरिया दोनों ही जानते थे कि प्रवीण की छवि स्वच्छ नहीं है। साफ है, हमारे नेताओं को ईमानदार अधिकारी सुहाते ही नहीं हैं।
कानून कठोर भले ही हो परंतु उस पर अमल इसलिए जटिल है, क्योंकि उनकी रचना अफसरशाही ही करती है। वे नियम-कानूनों को ऐसी इबारत में बदलते हैं, जिससे वे चाहे जैसी गैरकानूनी मनमानी करते रहें, कमोबेश बच निकलते हैं। न्यायिक प्रक्रिया भी इतनी पेचदगियों व विकल्पों से भरी है कि बाल की खाल निकालते-निकालते ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि मामले लंबित होते चले जाते हैं। यही वजह है कि उपभोक्ता फोरम अदालतों से लेकर त्वरित न्यायालय तक प्रकरणों की बड़ी संख्या के बोझ से दबे हैं। ये कुछ ऐसी वजहें हैं, जिनके चलते नौकरशाही जनता के प्रति जवाबदेह रहने की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति में लग जाती है। इसलिए जरूरी है कि नौकरशाही का उपचार कानूनी दंडात्मक कार्रवाई के साथ-साथ व्यापक प्रशासनिक सुधारों पर भी विधायिका ध्यान दे। अन्यथा, यही कहावत चरितार्थ होगी कि ‘हम तो डूबेंगे ही, तुम्हें भी ले डूबेंगे।’
हालांकि मध्यप्रदेश चपरासी से लेकर आला अफसरों तक के लिए काली कमाई की उर्वरा भूमि रही है। प्रवीण साधारण नर्स के बेटे रहते हुए शिवपुरी में पढ़े-लिखे और फिर पुलिस निरीक्षक बनने के बाद अरबों रुपये की वैध-अवैध संपत्ति के मालिक बन गए। इस संपत्ति ने जब उन्हें अनेक जांचों के कठघरे में खड़ा कर दिया तो वे नौकरी छोड़ कर कांग्रेस के बड़े नेताओं के चुनावी प्रबंधक की भूमिका में आ गए। इसी भूमिका ने उन्हें कमलनाथ से जोड़ दिया।
भ्रष्टाचार से अर्जित धन के जखीरे इस बात का सबूत हैं कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून मध्यप्रदेश में बौना साबित हुआ है। नतीजतन सरकारी तंत्र भीतर से देश को दीमक की तरह खोखला कर बेजान करने में लगा है। बीते कुछ सालों के भीतर प्रदेश की लोकायुक्त पुलिस ने 125 से भी ज्यादा अधिकारियों और बाबुओं के यहां छापामार कार्रवाई करके इनसे करीब 2500 करोड़ की काली कमाई बरामद की है। अकेले आईएएस दंपत्ति टीनू-आनंद जोशी के पास से ही करीब 350 करोड़ रुपये की संपत्ति बरामद हुई थी। विद्युत वितरण कंपनी, भोपाल के बाबू अर्जुनदास ललवानी से 42 करोड़ और उज्जैन के वन संरक्षक बसंत कुमार सिंह से करीब 70 करोड़ की संपत्ति बरामद हुई थी। जौनपुर उत्तरप्रदेश के मूल निवासी सिंह के पास भोपाल के आसपास के जिलों में करीब 400 बीघा कृषि भूमि के दस्तावेज, कई अन्य अचल संपत्तियां, कंपनियों में पूंजी निवेश और बड़ी मात्रा में सोने-चांदी के जेवरात भी बरामद हुए थे। जाहिर है, देश में बाड़ ही खेत चरने का काम कर रही है।
मध्य-प्रदेश सरकार ने भ्रष्टाचार से अर्जित काली कमाई को जब्त करने के लिहाज से ‘मध्य-प्रदेश विशेष न्यायालय अधिनियम 2011’ बनाया हुआ है। इस कानून को लेकर प्रचार किया गया था कि इसके दायरे में सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और चपरासी से लेकर प्रमुख सचिव हैं। सेवानिवृत्त अधिकारियों, पूर्व जन-प्रतिनिधियों और मंत्रियों पर भी इसका शिकंजा कसेगा। इस कानून से सजा प्राप्त लोकसेवक फैसले की अपील केवल उच्च न्यायालय में कर सकेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि भ्रष्ट तरीकों से कमाई गई संपत्ति को सरकार जब्त कर लेगी और जब्त भवनों में सरकारी विद्यालय व कार्यालय खोले जाएंगे। लेकिन यह कानून हाथी के दिखाने का दांत साबित हुआ। इसे वजूद में आए आठ साल हो चुके हैं। इस दौरान व इससे पहले भ्रष्टाचारियों की अरबों की काली कमाई का खुलासा हो चुका है। लेकिन ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है कि किसी भ्रष्टाचारी की संपत्ति जब्त कर उसमें बिहार की तर्ज पर पाठशाला खोली गई हो।
यहां गौरतलब है कि जिस किसी भी लोकसेवक के यहां छापामार कार्यवाही की जाती है, उनकी घरेलू पत्नियों के पास से भी करोड़ों की संपत्ति बरामद होती है। इसलिए जरूरी है कि भ्रष्टाचारी की पत्नी को भी पति को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने व भ्रष्ट संपत्ति को संरक्षित करने में बराबर का दोषी मानते हुए आरोपी बनाया जाना चाहिए। बतौर मिसाल लोकायुक्त पुलिस दिल्ली की सीबीआई अदालत द्वारा दिए इंजीनियर आरके डबास के मामले को ले सकती है। सीबीआई विशेष न्यायालय के जज धर्मेश शर्मा ने दिल्ली नगर निगम के इंजीनियर को रिश्वत तथा भ्रष्टाचार का दोषी पाया था। अदालत ने डबास को तो तीन साल की सश्रम कैद और पांच लाख के जुर्माने की सजा सुनाई ही, उनकी पत्नी को भी एक साल की कैद और ढाई लाख के जुर्माने का दण्ड दिया था। उस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने कहा था कि आरोपी की पत्नी घरेलू महिला जरूर है, लेकिन वह अपने पति को भ्रष्टाचार के लिए उकसाती थी और इस कमाई से चल व अचल संपत्ति जोड़ती थी। तय है, पत्नियों की अप्रत्यक्ष रुप से भ्रष्टाचार में भागीदारी रहती है। जबकि पत्नी का फर्ज बनता है कि वह पति के भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाए।
इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को भी भ्रष्टाचार के 23 साल पुराने मामले में शिमला की उच्च न्यायालय ने आरोपी बनाकर एक अनूठी नजीर पेश की थी। दरअसल पति या पिता के भ्रष्टाचार से यदि उसकी पत्नी और बालिग बच्चे संपत्ति जोड़ते हैं तो उन्हें भी क्यों न भ्रष्ट कदाचरण का अपराधी माना जाए? इस हेतु दण्ड प्रक्रिया संहिता में भी संशोधन की जरुरत है।
भ्रष्टाचार न केवल देश की छवि को बट्टा लगा रहा है, बल्कि वह अर्थव्यवस्था को चौपट करने और अचल संपत्ति की कीमतें बढ़ाने का भी काम कर रहा है। भ्रष्टाचार से अर्जित दौलत से एक व्यक्ति कई-कई अचल संपत्तियों का मालिक बन जाता है। इस कारण बाजार में एक ओर तो संपत्ति का मूल्य बढ़ता रहता है, दूसरी ओर उसका अभाव भी रहता है। नतीजतन, वास्तविक जरूरतमंद घर की छत पाने के लिए भी लाचार बना रहता है। इन निजी सचिवों के यहां डाले गए छापे और बरामद संपत्ति ने तो साफ-सुथरी छवि वाले कमलनाथ की छवि को भी धूमिल करने का काम कर दिया है।
हांगकांग की एक सलाहकार कंपनी ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा था कि एशिया में सबसे भ्रष्ट भारत की नौकरीशाही है। भ्रष्ट होने के साथ ही वह आला दर्जे की मगरुर और निरकुंश भी है। यह आकलन झूठा अथवा मनगढ़ंत नहीं है, क्योंकि यह कई अध्ययनों से सामने आ चुका है कि आम भारतीय हर साल 40,000 करोड़ रुपये भूमि संबंधी प्रशासनिक कार्यों के लिए बतौर रिश्वत देते हैं। 25,500 करोड़ की अवैध वसूली देश के आम नागरिकों से पुलिस करती है। उच्च न्यायालय, दिल्ली अपने एक फैसले में कह चुका है कि 90 प्रतिशत सरकारी अधिकारी-कर्मचारी भ्रष्ट हैं। दरअसल इसके लिए नौकरशाही के साथ-साथ अक्षम राजनीतिक नेतृत्व भी दोषी है और शिथिल प्रशासनिक व्यवस्था भी। हमारी कार्यप्रणाली में सोच का ढंग ऐसा हो गया है कि हालातों को बदलना नामुमकिन लगता है। अब प्रवीण कक्कड़ की ही बात करें। इन्हें भ्रष्टाचार की अनेक जांचों में घिरा पाकर 2004 में अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गई थी। इस समय तक प्रवीण एसडीओपी हो गए थे। सेवानिवृत्ति के फौरन बाद ये मध्यप्रदेश के प्रभावशाली आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया के निजी सचिव बन गए। भूरिया का चुनावी प्रबंध भी प्रवीण ही संभालते थे। उनकी इसी कौशल दक्षता का पुरस्कार भूरिया ने कमलनाथ का निजी सचिव बनाकर दिया। कमलनाथ और भूरिया दोनों ही जानते थे कि प्रवीण की छवि स्वच्छ नहीं है। साफ है, हमारे नेताओं को ईमानदार अधिकारी सुहाते ही नहीं हैं।
कानून कठोर भले ही हो परंतु उस पर अमल इसलिए जटिल है, क्योंकि उनकी रचना अफसरशाही ही करती है। वे नियम-कानूनों को ऐसी इबारत में बदलते हैं, जिससे वे चाहे जैसी गैरकानूनी मनमानी करते रहें, कमोबेश बच निकलते हैं। न्यायिक प्रक्रिया भी इतनी पेचदगियों व विकल्पों से भरी है कि बाल की खाल निकालते-निकालते ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि मामले लंबित होते चले जाते हैं। यही वजह है कि उपभोक्ता फोरम अदालतों से लेकर त्वरित न्यायालय तक प्रकरणों की बड़ी संख्या के बोझ से दबे हैं। ये कुछ ऐसी वजहें हैं, जिनके चलते नौकरशाही जनता के प्रति जवाबदेह रहने की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति में लग जाती है। इसलिए जरूरी है कि नौकरशाही का उपचार कानूनी दंडात्मक कार्रवाई के साथ-साथ व्यापक प्रशासनिक सुधारों पर भी विधायिका ध्यान दे। अन्यथा, यही कहावत चरितार्थ होगी कि ‘हम तो डूबेंगे ही, तुम्हें भी ले डूबेंगे।’