चुनावी झूठ की दलदल में फंसे तो निकलना मुश्किल

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मौजूदा चुनाव झूठे लोग लड़ रहे हैं। यह मैं नहीं कह रहा, सभी राजनीतिक दल कह रहे हैं। कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं जो एक-दूसरे को झूठा न ठहरा रहा हो। वह चाहे सत्तारूढ़ दल हो या विपक्ष। सब एक-दूसरे को झूठा ही कह रहे हैं। मतदाता पसोपेश में हैं कि उन्हें तो किसी सच्चे आदमी, सच्चे दल का चुनाव करना था। यहां तो झूठों की पूरी फौज है। झूठ की पूरी दलदल है जिसमें फंस गए तो निकलना भी मुश्किल है। दिल की नाप तो डॉक्टर भी नहीं लेते होंगे, इलाज जरूर वे दिल की करते हैं। दिल सिकुड़ा है या फैला है, यह तो उन्हें पता होता है लेकिन उसके सही नाप लेने की उन्हें कभी जरूरत ही नहीं पड़ती। आज तक तो किसी के दिल की नाप सार्वजनिक नहीं हुई। प्रियंका गांधी वाड्रा ने पूछा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 56 इंच के सीने में दिल है भी या नहीं और अगर है तो मोदी उसकी नाप बताएं। दिल की नाप बताना किसी के लिए भी संभव नहीं क्योंकि जो दिखता है, नाप उसकी होती है। जो अदृश्य है, उसकी नाप का अनुमान भर किया जा सकता है और अनुमान सच नहीं होता। वह सच के करीब हो सकता है। अनुमान को झूठ जरूर कहा जा सकता है।
  नरेंद्र मोदी ने जब अपने को चायवाला कहा था तब भी विपक्ष इस बात को पचा नहीं पाया था। उसे लगा था कि अगर देशभर के चाय वाले मोदी के समर्थन में उतर आए तो क्या होगा? उस समय भी उन्हें नकली चाय वाला, झूठा चाय वाला कहा गया था। जब उन्होंने खुद को चौकीदार कहा तो भी कहा गया कि चौकीदार शूट-बूट वाला कैसे हो सकता है? चौकीदार अमीरों का होता है, गरीबों का नहीं होता। अब उन्हें कौन समझाए कि गांव का चौकीदार तो सबका होता है। उसमें अमीर-गरीब कहां से आता है? नरेंद्र मोदी ने खुद को पिछड़ी जाति का बताया तो कहा गया कि वे नकली पिछड़ी जाति वाले हैं। असली पिछड़ी जाति के तो मुलायम सिंह यादव हैं। अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जाति भी बता दी है। उन्होंने कहा है कि मेरी जाति वही है जो इस देश के गरीबों की है। बसपा प्रमुख मायावती ने हालांकि उन पर हमला बोला था कि मोदी राजनीतिक स्वार्थ के लिए जबरदस्ती पिछड़ी जाति के बने हैं। अगर मोदी जन्म से पिछड़ी जाति के होते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बनने देता। सवाल उठता है कि गरीबों में सभी जातियों के लोग होते हैं। इसलिए गरीब जाति नहीं हो सकती। वह वर्ग हो सकता है। भारतीय योजना आयोग (अब नीति आयोग) 20 रुपये रोज कमाने वाले को ही गरीब मानता है। इसलिए प्रधानमंत्री गरीबों के दिल के बेहद करीब हो सकते हैं लेकिन गरीब नहीं हो सकते। नेताओं ने अपने चुनाव नामांकन में जो कॉलम भरे हैं, उसमें  लखपतियों और करोड़पतियों की बड़ी तादाद है। गरीब तो जमानत राशि की भी व्यवस्था नहीं कर सकता।
अब विदेशी पत्रकारों ने भी मान लिया कि बालाकोट में भारत ने लक्षित हमले किए। उसमें बड़ी तादाद में आतंकी मारे गए। लेकिन भारत के नेता इसे झूठ ही मान रहे हैं। इससे पहले जब सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी, तब भी विपक्ष द्वारा उससे प्रमाण मांगे गए थे। वैसे बिना प्रमाण के सत्य भी झूठ ही लगता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो कुछ भी कहते हैं, पूरा विपक्ष उसे नकारने में जुट जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाए जा रहे थे कि अब वे खुद को चाय वाला नहीं बताते। उन्होंने राबर्ट्सगंज में जनता से कप-प्लेट पर बटन दबाने की अपील कर दी। यह भी कह दिया कि कप-प्लेट से उनका बचपन का रिश्ता है। वे यहां कप-प्लेट को चमकाने आए हैं। गठबंधन पर उन्होंने विकास विरोधी होने, उसकी खिल्ली उड़ाने का भी आरोप लगाया। कांग्रेस मोदी को घेरने के लिए बुने अपने ही मकड़जाल में फंसती नजर आ रही है। वर्ष 1984 के सिख नरसंहार पर उसके वरिष्ठ नेता सैम पित्रोदा की टिप्पणी पर कांग्रेस को बगले झांकनी पड़ रही है। पूरी पार्टी बैकफुट पर आ गई है। सैम पित्रोदा की प्रतिक्रिया ‘हुआ तो हुआ’ पर प्रधानमंत्री लगातार कांग्रेस पर निशाना साध रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब जनता जाग जाती है, जब वह इस अहंकार को पहचान जाती है तो ‘हुआ तो हुआ’ कहने वालों को ‘हवा हो जाओ’ कहने की हिम्मत दिखाती है। सपा और बसपा के नेता यह नहीं बताते कि राष्ट्र के लिए उनकी नीति क्या है। सपा-बसपा ने पहले उत्तर प्रदेश को बर्बाद किया, अब वे खुद को बर्बादी से बचाने के लिए गले मिल रहे हैं। एक-दूसरे को जेल भेजने की चाहत पाले लोग अब उन्हें महल में भेजना चाहते हैं। देश की मजबूती और आतंकवाद के खात्मे पर कोई बोलना भी नहीं चाहता। देश का नाम दुनियाभर में बदनाम हुआ, लेकिन वो कहते रहे- ‘हुआ तो हुआ’। यहां यह बताना मुनासिब होगा कि मायावती को प्रधानमंत्री बनवाने का दावा करने वाले अखिलेश यादव के ही लोगों ने पत्थर की मूर्तियों के मामले में न्यायालय का रुख किया था जिसमें अदालत ने मायावती से इस पर व्यय खरबों की राशि सरकारी खजाने में जमा करने को कहा है। मतलब साफ है कि अपनी सुविधा के संतुलन के लिहाज से सभी झूठ बोल रहे हैं।
 जिस तरह गाय गधी नहीं बन सकती है, उसी तरह झूठ कभी सच नहीं हो सकता। एक झूठ को सच साबित करने के लिए सौ और झूठ बोलने पड़ते हैं लेकिन सत्य छिपता नहीं है, प्रकट हो जाता है। तब झूठ बोलने वालों को माफी मांगनी पड़ती है। इसी चुनाव में माफी मांगी भी गई है लेकिन जब झूठ के बिना काम न चले तो करें क्या? गोस्वामी तुलसीदास ने वैसे ही नहीं लिखा था कि ‘झूठइ ओढ़न, झूठइ डासन।’ राजनीति का ऐसा खोखलापन इससे पूर्व के शायद ही किसी चुनाव में नजर आया हो। यह पहला चुनाव है जिसमें जनता के मुद्दे गायब हैं और जनता के हितैषी सभी हैं। यह भी अपने तरह की मिथ्या ही है। नकली सिक्के असली सिक्कों को बाजार से बाहर कर देते हैं। इस चुनाव में भी कुछ इसी तरह की जद्दोजहद जारी है। देखना है, आगे-आगे होता है क्या? झूठ हंसता और सच रोता है क्या?

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