क्रांतिकारियों की जीवनी से छेड़छाड़ क्यों?
राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने स्कूल पाठ्यक्रम में बदलाव करते हुए देश के महान व्यक्ति वीर सावरकर को अंग्रेजों से माफी मांगने वाला बताया है। इससे पहले पाठ्यक्रम में उन्हें वीर, महान, क्रांतिकारी व देशभक्त जैसे शब्दों से नवाजा गया था। राजस्थान के शिक्षा राज्यमंत्री गोविंद सिंह दोतसारा का कहना है कि पाठ्यक्रम की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन किया गया था। उसी के प्रस्तावों के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार हुआ है।
ऐसी घटनाओं से एक बात तो तय हो चुकी है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में पीछे नहीं हट रही। इस बार के लोकसभा चुनाव में मर्यादा तार-तार होती दिखी। बेहद शर्मनाक, घटिया व तथ्यहीन बयान सुनने को मिले। साथ में इतिहास के साथ छेड़छाड़ व फर्जी खबरों से भी लोकतंत्र को हिलाने का प्रयास लगातार जारी है। लेकिन हद तो तब हो गई जब देश के इतिहासकारों और क्रांतिकारियों की जीवनी के साथ छेड़छाड़ की जा रही है। इसके कुप्रभाव की बात करें तो पढ़ने वाले बच्चों के मस्तिष्क क्या प्रभाव पड़ेगा। जो भी सरकार आती रहेगी वो किसी भी क्रांतिकारी के चरित्र का चित्रण अपने हिसाब से करती रहेगी तो सही व सच किसको माना जाएगा? यह हमारे देश की संचालन प्रक्रिया का वो सबसे घृणित चेहरा है। यदि इस पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो निश्चित तौर पर हमारे देश का भविष्य दांव पर लग सकता है।
हमें लगता है कि देश की शिक्षा में बदलाव को जो पैनल हों, वे किसी सरकार के अंतर्गत नहीं होने चाहिए, क्योंकि यदि सरकारें बदलती रहेंगी और एक-दूसरे के प्रति कुंठा निकालने के लिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ करती रहेंगी जिससे बच्चे भ्रमित होते रहेंगे और वे सच को कभी जान ही नहीं पाएंगे।
जहां तक वीर सावरकर का सवाल है। वे 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल में रहे थे। जेल में उन्होंने हिन्दुत्व पर शोध ग्रंथ लिखा। 1937 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 1943 के बाद वे दादर, मुंबई में रहे। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर रहे। यह बात सच है कि आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था। लेकिन वीर सावरकर विश्वभर के क्रांतिकारियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। उनके नाम को ही भारतीय क्रांतिकारी उनका संदेश समझते थे। वे एक महान क्रांतिकारी, इतिहासकार, समाज सुधारक, विचारक, चिंतक, साहित्यकार थे। उनकी पुस्तकों को क्रांतिकारी गीता के समान समझते थे।
तमिलनाडु में चुनाव प्रचार करते हुए फिल्म अभिनेता कमल हासन ने कहा कि नाथूराम गोडसे आजाद भारत का पहला आतंकवादी हिंदू था। यदि कमल हासन को गोड़से के बारे में कुछ कहना ही था तो उसे हत्यारा कह सकते थे। गोडसे को आतंकवादी कहने का कोई आधार व तथ्य समझ में नहीं आया। खासकर मुस्लिम बाहुल्य इलाके में हिन्दू आतंकवादी कहने से स्पष्ट हो जाता है कि कमल हासन देश को बांटने वाली राजनीति कर रहे हैं। कुछ वर्ष पहले हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने किया था। इस बार के चुनाव में उन्हें इसका जवाब देते न बना। भाजपा इस शब्द को भुनाती रही, कांग्रेस नेताओं को घेरती रही। इसके साथ ही यह घटिया राजनीति का सबसे सटीक उदाहरण भी बन गया। अब यदि हम ऐसे बयानों की समीक्षा करें तो आज इस तरह की बातों का क्या अर्थ है? क्या अब पार्टियों व नेताओं के पास मुद्दे खत्म हो गए? ऐसे लोग देश की सुरक्षा और तरक्की की बातें क्यों नहीं कर पा रहे हैं? अब तो यह लोग उन बातों पर राजनीति कर रहे हैं जिनका इस डिजिटल युग में कोई लेना-देना नहीं है। भाषणों के दौरान सिर्फ कीचड़ उछालना ही राजनीति रह गई है। कई बार माननीय अपनी मर्यादा इस कदर भूल जाते हैं कि उनको जनप्रतिनिधि कहना बेमानी लगता है। बीते कुछ समय से तो ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। भले ही चुनाव आयोग कुछ समय के लिए बैन कर देता है। फिर यह लोग दोबारा अपने उसी ट्रैक पर आ जाते हैं। इतिहास क्या है, अब युवाओं को फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए सरकार की क्या योजनाएं हैं, यह ज्यादा जरूरी है। राजनीतिक दलों को इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए क्योंकि राजनीति चलती रहेगी, चुनाव होते रहेंगे लेकिन लोकतंत्र यहीं था और हमेशा यहीं रहेगा। इसको अपनी राजनीति का हिस्सा न समझें, नहीं तो देश की दिशा और दशा नकारात्मकता की ओर प्रभावित होने लगेगी। इसकी शुरुआत इस बार के चुनाव में हो चुकी है। अपनी सत्ता कायम करने के लिए देश के भविष्य से खिलवाड़ घूम-फिरकर सभी को परेशान करेगा। राजनीति करना बुरी बात नहीं, लेकिन घटिया राजनीति करते हुए इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर कुंठा निकालना बेहद गलत है।
नेता भाषणों के दौरान तमाम ऐसे मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं जिनकी जनता को जरूरत है लेकिन वो ऐसी कोई बात नहीं करते जिससे देश का भला हो। तर्क है तो ही वितर्क है। सत्ता पक्ष है तो विपक्ष है। सब बदलता है लेकिन शिक्षा प्रणाली के नियम-कानून पर कोर्ट की निगहबानी होनी चाहिए या कोई ऐसी यूनिट जिसमें कोई भी पार्टी इसमें बदलाव न कर सके वरना ऐसा ही रहा तो स्थिति अनियंत्रित होते हुए दुर्भाग्यपूर्ण हो जाएगी और देश का इतिहास अधूरा रह जाएगा।