क्या रंग दिखाएगी भाजपा-शिवसेना की दोस्ती?

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लगातार 25 वर्षों तक एक-दूसरे के सुख-दुख के बराबर के साथी रहे भाजपा और शिवसेना आखिरकार करीब साढ़े चार वर्षों के मनमुटाव के बाद फिर से एक-दूसरे के साथ आ गए हैं। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा-शिवसेना का यह गठबंधन जहां एनसीपी प्रमुख शरद पवार सरीखे विरोधियों को रास नहीं आ रहा है, वहीं कुछ समय से अपने पुराने सहयोगियों को अपने साथ बरकरार रखने की चुनौती से जूझ रही भाजपा के लिए तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन हर लिहाज से फायदे का सौदा है। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं और समझौते के तहत भाजपा को 25 और शिवसेना को 23 सीटें मिली हैं। साथ ही विधानसभा चुनाव में 288 सदस्यीय सदन के चुनाव में दोनों दल 140-140 सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हुए हैं। समझौते में 8 सीटें दूसरे सहयोगियों के लिए छोड़ी गई हैं। हालांकि शिवसेना की लंबे समय से मांग थी कि उसे अधिक सीटें दी जाएं और मुख्यमंत्री पद भी उसी की झोली में आए किन्तु भाजपा शिवसेना के दबाव के समक्ष न झुकते हुए भी गठबंधन करने में कामयाब रही। पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने केवल 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार उसके खाते में 23 सीटें आई हैं। लोकसभा के 2014 के चुनाव में भाजपा ने 24 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसने 23 सीटें जीती थीं। शिवसेना 22 सीटों पर लड़कर 18 सीटें जीतने में सफल हुई थी।
पिछले काफी समय से शिवसेना एनडीए का अहम हिस्सा रहते हुए भी भाजपा के खिलाफ मुखर रही और बार-बार अपने तीखे तेवरों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपाध्यक्ष अमित शाह को भी आड़े हाथों लेती रही। उससे राजनीतिक हलकों में कयास लगाए जाते रहे कि दोनों के रिश्तों में पैदा हो चुकी कड़वाहट को देखते हुए शायद अब दोनों का गठबंधन न हो पाए। वैसे राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं और यही भाजपा-शिवसेना द्वारा गठबंधन कर चुनावी मैदान में कूदने के मौजूदा फैसले से साबित भी हुआ है। दोनों दल 2014 के लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरे थे। तब शिवसेना के मुकाबले भाजपा 5 सीटें ज्यादा जीतने में सफल हुई थी। उसके बाद भाजपा ने विधानसभा चुनाव में शिवसेना से ज्यादा सीटों की मांग की लेकिन शिवसेना ने यह मांग ठुकराते हुए विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन नहीं किया। तभी से दोनों के रिश्तों में खटास देखी जा रही थी और यह खटास शिवसेना नेताओं के तीखे बयानों से धीरे-धीरे कड़वाहट में बदल रही थी।
हालांकि गत वर्ष जनवरी माह में शिवसेना ने कहा था कि 2019 के लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों में वह भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ेगी। उसके बाद 11 अप्रैल 2018 को एक समारोह में शिवसेना सांसद संजय राउत के सवालों के जवाब में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने भी कहा था कि शिवसेना ने भाजपा के साथ सौतन की तरह व्यवहार किया। फिर भी 2019 के चुनाव में शिवसेना के समक्ष भाजपा के साथ हाथ मिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इस तरह के बयानों से काफी हद तक पहले ही स्पष्ट हो चुका था कि तमाम विरोधाभासों बयानों के बावजूद चुनावों से पहले दोनों दलों का गठबंधन होना तय है। जिस प्रकार काफी समय से तीखे तेवर अपनाते हुए शिवसेना भाजपा को घेरने का कोई अवसर नहीं छोड़ रही थी। अलग चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद प्रदेश और केन्द्र दोनों ही जगह वह भाजपा के सहयोगी की भूमिका में सत्ता सुख भी भोगती रही, उससे बराबर यही संकेत मिलते रहे कि चुनाव आते-आते भाजपा-शिवसेना का गठबंधन होना तय है।
शिवसेना महाराष्ट्र का एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका गठन मुख्यतः मराठी तथा हिन्दुत्व विचारधारा को लेकर हुआ था। उसे मतदाताओं को ‘मराठी मानुष’ और ‘जय महाराष्ट्र’ के दायरे में समेटने में सफलता भी मिली। इस पार्टी का गठन 19 जून 1966 को बाल ठाकरे द्वारा किया गया था और पहली बार उन्होंने 1989 में भाजपा के साथ लोकसभा तथा महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन किया था। 1995-1999 के बीच महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार भी बनी और वह 1998 से ही एनडीए का प्रमुख घटक रही है। 17 नवम्बर 2012 को बाल ठाकरे के निधन के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने पार्टी की बागडोर संभाली। जहां तक वर्तमान में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना के वर्चस्व की बात है तो उसे महाराष्ट्र में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में देखा जाता रहा है। पार्टी की पिछड़े वर्गों तथा मुम्बई और मराठवाड़ा क्षेत्र में आज भी काफी पकड़ है। फिर इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उसके पास जो विशाल जनाधार पार्टी संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के समय था, वह उनके निधन के बाद सिकुड़ा है।
वर्ष 2014 से लेकर अब तक प्रदेश में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें शिवसेना का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा। पंचायत चुनाव हों या नगर पंचायत, नगर परिषद अथवा महानगरपालिका चुनाव, हर कहीं शिवसेना से अधिक सफलता भाजपा को मिली। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना ने महज 6 माह बाद विधानसभा चुनाव में अकेले ताकत आजमाने का निर्णय लिया था। वह सिर्फ 63 सीटों पर सिमट गई थी जबकि 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा 122 सीटें पाने में सफल रही थी। चुनाव के बाद भाजपा ने शिवसेना के सहयोग से ही प्रदेश में सरकार बनाई, जिसमें आज भी शिवसेना के पांच कैबिनेट तथा 12 राज्यमंत्री हैं। केन्द्र में भी वह भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए सरकार की भागीदार है। शिवसेना भले ही पिछले काफी समय से गठबंधन खत्म करने जैसी बातें करती रही और बार-बार भाजपा से अलग होने की चेतावनियां देती रही, लेकिन विभिन्न अवसरों पर मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने साफ किया कि शिवसेना के समक्ष भाजपा के साथ हाथ मिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दरअसल महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो विधानसभा में सरकार बनाने के लिए भाजपा और शिवसेना दोनों को ही एक-दूसरे के सहयोग की जरूरत है।
शिवसेना के साथ गठबंधन की औपचारिक घोषणा के बाद हालांकि भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है लेकिन इससे शिवसेना के कार्यकर्ताओं में रोष भी पैदा हो गया है। दरअसल कार्यकर्ताओं का कहना है कि वो लंबे समय से राम मंदिर, नोटबंदी, किसान आत्महत्या, बेरोजगारी सरीखे मुद्दों को लेकर जिस पार्टी का लगातार विरोध कर रहे थे, अब किस मुंह से जनता के बीच उसी के लिए समर्थन मांगने जाएंगे और कैसे मतदाताओं के मन में यह विश्वास पैदा करेंगे कि हम उनके साथ हैं। वैसे जमीनी परिस्थितियों को देखें तो इस दोस्ती का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को ही मिलने के प्रबल आसार हैं। फिर भी अब यह देखना दिलचस्प होगा कि साढ़े चार वर्षों के मनमुटाव के बाद हुई भाजपा-शिवसेना की दोस्ती आम चुनावों में क्या रंग दिखाती है!


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