किसके हाथ खेल रहे ओमप्रकाश राजभर

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उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार से न केवल अपनी नाराजगी जाहिर की बल्कि लोकसभा की 39 सीटों के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवार भी घोषित कर दिए। इनमें वाराणसी और लखनऊ की सीटें भी शामिल हैं जहां से नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह उम्मीदवार हैं। संभव है, वे कुछ और प्रत्याशी उतारें। इससे उन्हें कितना लाभ मिलेगा, यह तो नहीं पता लेकिन इस बहाने उन्होंने भाजपा की पेशानियों पर बल जरूर ला दिए हैं। ओमप्रकाश राजभर के बारे में कहा जा सकता है कि वे योगी सरकार के गुलदस्ते के वे गुलाब थे जिसमें सिरदर्द के कांटे ही ज्यादा थे। यूं तो वे खुद को भाजपा का सहयोगी कहते रहे लेकिन इस बीच उन्होंने जिस तरह कांग्रेस और सपा से रब्त-जब्त बढ़ाने की कोशिश की, उसे बहुत हल्के नहीं लिया जा सकता। निष्ठा संदिग्ध हो जाए तो निर्वाह कठिन हो जाता है। अब ओमप्रकाश राजभर उस राह पर चल निकले हैं जहां से लौटने का मतलब है खुद थूकना और खुद चाटना। अपनी राह जुदा करने के बाद वे ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’ वाली स्थिति में आ गए हैं। भले ही पूर्वांचल में 18 प्रतिशत आबादी राजभर समाज की है, लेकिन सीट जीतने के लिए यह संख्या काफी नहीं है। निर्णय लेने से पहले उन्हें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए था। भाजपा ने राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को दो सीटों पर लड़ने का प्रस्ताव दिया था जिसमे एक सीट पर भाजपा के सिंबल पर चुनाव लड़ने की शर्त थी। ओमप्रकाश ने यह शर्त नहीं मानी और भाजपा का हाथ झटक दिया। अब अगर सपा-बसपा गठबंधन द्वारा उपेक्षित कांग्रेस ने अगर ओमप्रकाश राजभर की ओर गठबंधन का चारा फेंका तो भाजपा के सामने गठबंधन के दो मोर्चे हो जाएंगे। विपक्ष के लिए यह स्थिति मुफीद नहीं है। भले ही ओमप्रकाश राजभर योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री हों(इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया था)। उनके समाज के कई लोगों को हाल ही में राज्यमंत्री का दर्जा मिल गया हो लेकिन महत्वांकाक्षा की आग तो बुझती नहीं। वह धधकती रहती है। कहां तो वे सभी 80 सीटों पर अपनी पार्टी को चुनाव लड़ाने का दावा कर रहे थे, कहां पांच से दो पर माने और उसमें भी एक सीट पर भाजपा अपने सिंबल पर चुनाव लड़ना चाहती थी। भले ही प्रत्याशी राजभर समाज से ही होता। लाभ राजभर समाज को ही मिलता, लेकिन ओमप्रकाश के राजनीतिक वर्चस्व पर सवाल खड़ा हो जाता। वह इतना तो जानते ही हैं कि जातीय पार्टियां अपने दम पर चुनाव नहीं जीततीं, जब तक उन्हें सर्वसमाज का समर्थन न मिले। लेकिन मौन रहना तो पार्टी के राजनीतिक भविष्य पर भारी पड़ सकता है। यही वजह थी कि अपने को रामायण काल का लव-कुश बताने वाले ओमप्रकाश राजभर अपना इस्तीफा लिए अहले सुबह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आवास पर पहुंच गए थे। भाजपा से संबंध विच्छेद करने की धमकी दे डाली। यह भी कहा कि उनकी पार्टी अब 25 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। इस पर भी भाजपा के कानों पर जूं नहीं रेंगी तो उन्होंने 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। राजभर समाज ने इसे अगर अपने नेता के अपमान के तौर पर लिया तो भाजपा के 73 प्लस के राजनीतिक सपने को झटका भी लग सकता है। लव-कुश ने अनजाने में अपने पिता राम से युद्ध किया था लेकिन ओमप्रकाश राजभर ऐसे लव-कुश हैं जो भाजपा से लड़ते ही रहे। ओमप्रकाश राजभर ने अपनी राजनीतिक पारी कांशीराम के साथ आरंभ की थी। 2001 तक वे बसपा के साथ रहे भी लेकिन मायावती से मतभेद के चलते उन्होंने न केवल बसपा को अलविदा कहा, बल्कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन कर लिया।
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सुभासपा से गठबंधन के चलते ही पूर्वांचल की 128 सीटों पर विजय मिली थी। चार सीटों पर उनके विधायक जीते थे। इस आधार पर उन्होंने अपने लिए कैबिनेट मंत्री पद का जुगाड़ तो कर लिया लेकिन सरकार में रहते हुए भी वे अपने शब्द वाणों से समय-समय पर सरकार की छाती छलनी करते रहे। यह उसी तरह का है कि महाभारत के युद्ध में महाराज शल्य सारथी कर्ण के थे लेकिन अपने कर्कश वचनों से कर्ण का मनोबल गिराते रहते थे। बकौल राजभर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उन्हें हमेशा उपेक्षा ही मिली। यही वजह है कि ओमप्रकाश राजभर भाजपा की आलोचना का एक भी अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देते। सरकारी अफसरों के नकारेपन तथा सीएम योगी तक की बात अफसरों के न मानने की बात कहकर कई बार वे भाजपा को संकट में डाल चुके हैं। लोकसभा चुनाव के एक चरण के मतदान के बाद उनका यह विरोधी कदम निश्चित रूप से गैर भाजपा दलों की बांछें खिलाने वाला है। यूं तो भाजपा समेत सपा, बसपा में भी राजभर समाज के कई नेता हैं लेकिन अपने समाज पर मजबूत पकड़ ओमप्रकाश राजभर की ही है। ओमप्रकाश का आरोप है कि भाजपा ने उनके साथ दोस्ती में बेवफाई की है। उन्हें इस बात का मलाल भी रहा कि योगी सरकार अगर शिवपाल यादव को बड़े बंगले का सुख दे सकती है तो उन्हें क्यों नहीं। अपने पुत्र के रिसेप्शन के पूर्व ओमप्रकाश राजभर ने अपने पैतृक गांव फतेहपुर सिंधोरा में खुद कुदाल चलाकर ग्रामीणों की मदद से 500 मीटर सड़क बनाई थी। उन्होंने यह भी कहा था कि मैं ज्वालामुखी हूं। जितना दबाओगे, उतना खतरनाक होता जाऊंगा।
ओमप्रकाश राजभर की योगी से नाराजगी नई नहीं है। लेकिन वे जिस तरह भाजपा की आलोचना करते रहे, उससे मतभेद की दीवारों का चौड़ा होना स्वाभाविक था। सुभासपा पूर्वांचल में पांच सीटें चाह रही थी। इस निमित्त ओमप्रकाश भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से दो बार मिले भी। अंत में उनकी पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो सीटों पर चुनाव लड़ाने की बात बनी लेकिन योगी आदित्यनाथ ने उसमें भी खलल डाल दी। उनसे कहा कि इसमें से एक सीट पर सुभासपा का उम्मीदवार भाजपा के चुनाव निशान पर लड़ेगा। बात यहीं से बिगड़ी। ओमप्रकाश राजभर का तर्क है कि अगर हम दो सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ेंगे तो अपने मतदाताओं को क्या जवाब देंगे। मतभेदों का समाधान मिल बैठकर भी संभव था। लेकिन भाजपा की समय-समय पर आलोचना कर वे अपनी अदूरदर्शिता का ही परिचय देते रहे। उन्होंने राफेल मुद्दे पर राहुल गांधी का समर्थन किया तो राममंदिर विवाद को राजनीतिक मुद्दा बताकर वे भाजपा की आंखों की किरकिरी बन गए थे। उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडेय ने कह दिया था कि राजनीति के क्षेत्र में कई ऐसी अनिवार्य बुराइयां होती हैं जो आपके साथ होती हैं। ओमप्रकाश राजभर भी ऐसी ही एक आवश्यक बुराई हैं, जो हमारे साथ हैं। जब मुगलसराय रेलवे स्टेशन और इलाहाबाद का नाम बदला गया था तब भी राजभर ने तल्ख प्रतिक्रिया दी थी कि भाजपा को अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन और केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के नाम बदलने चाहिए। नोटबंदी के निर्णय की भी वे आलोचना कर चुके हैं। भाजपा को लगे हाथ यह भी देखना होगा कि ओमप्रकाश राजभर विपक्ष के हाथ में तो नहीं खेल रहे हैं। नि:संदेह राजभर का यह कदम भाजपा की परेशानी बढ़ानेवाला है।


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