आर.के.सिन्हा … सज्जन तो गया अब कौन-कौन बच रहा है?

0

आखिर चौतीस साल के लंबे और थकान भरे इंतजार और निराशाभरी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने कांग्रेस के एक बड़े नेता सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई है। सज्जन के अलावा उनके तीन अन्य सहयोगी दोषियों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई। माना जा सकता है कि उस कत्लेआम के शिकार या बर्बाद हो गए परिवारों को इस फैसले से थोड़ी सी राहत तो अवश्य ही मिलेगी। फिर भी सामूहिक नर-संहार की सजा उम्रकैद भर तो कम ही लगती है । भुक्तभोगियों के घाव कभी भर नहीं सकते। इतनी मौत के लिए इतनी कम सज़ा काफ़ी तो नहीं है लेकिन, इतना भर सुकून है कि अब सज्जन कुमार और उनके कांग्रेसी सहयोगियों को मात्र आरोपित नहीं बल्कि खुल कर हत्यारा तो कहा ही जा सकता है ।
यद्यपि सज्जन कुमार को हुई सजा को राजनीतिक चश्मे से देखने की जरूरत तो नहीं है, पर हाई कोर्ट का फैसला कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की पेशानी में बल जरूर डाल देगा। उन्होंने ही तो कहा था कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के खूनी दंगों के लिए कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। अपनी विगत ब्रिटेन यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने ब्रिटेन के सांसदों और स्थानीय नेताओं की सभा में भी कहा था कि उन दंगों में कांग्रेस शामिल नहीं थी। वैसे तो वे कुछ भी दावा करने के लिए आजाद हैं, पर सारा देश उन दंगों में कांग्रेस की करतूतों से भलीभांति वाकिफ है। मैं तो पूरी घटना का चश्मदीद गवाह हूं। राहुल गांधी चाहें तो अब भी तिलक नगर के पास 1984 के दंगों की विधवाओं से, मृतकों के बच्चों से, उनके घरों में जाकर मिल सकते हैं। क्या उन्हें यह भी पता नहीं है कि उन्हीं के पूज्य पिताजी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इंडिया गेट पर हुई इंदिरा गाँधी की शोक सभा में हजारों की भीड़ को संबोधित करते हुए सिखों के कत्लेआम को सही ठहराते हुए यहाँ तक कह डाला था कि “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती ही है।”
यह एक विचित्र संयोग है कि जब सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई गई है, उसी समय कांग्रेस मध्य प्रदेश में उसी दंगे के एक अन्य आरोपित कमलनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन कर रही थी। इसे कहते हैं बेशर्मी की हदें पर करना । कमलनाथ पर आरोप है कि वे स्वयं दिल्ली के रक़ाबगंज गुरुद्वारे पर हुए हमले का नेतृत्व कर रहे थे। आम आदमी पार्टी के नेता और जाने माने वकील एचएस फूलका ने वर्ष 2006 में इसकी पुष्टि के लिए एक गवाह अदालत के सामने पेश किया था, जिसका नाम मुख्त्यार सिंह था।
बहरहाल, 31 अक्टूबर,1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हुई और 1 नवंबर से 4 नवम्बर तक लगातार देश में लोकतंत्र का खुलेआम खून हुआ। तीन दिनों में देशभर में हजारों सिख मारे गये। सबसे ज्यादा बुरी हालत तो थी राजधानी दिल्ली में। अकेले दिल्ली में करीब तीन हजार से ज्यादा सिखों की हत्या हुयी। पूर्वी दिल्ली में कल्याणपुरी, शाहदरा,पश्चिमी दिल्ली में सुल्तानपुरी, मंगोलपुरी,नांगलोई, दक्षिणी दिल्ली में पालम कॉलोनी और उत्तरी दिल्ली में सब्जी मंडी और कश्मीरी गेट जैसे कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां सिखों के पूरे-पूरे परिवार खत्म कर दिए गये। अनेकों को उन्ही के मकान में जिन्दा जला दिया गया । सागरपुर, महावीर एनक्लेव और द्वारकापुरी – दिल्ली कैंट के वो इलाके हैं जहां सिख विरोधी हिंसा में सबसे ज्यादा मौ हुईं।
काश, राहुल गांधी को पता होता कि जब कांग्रेस के नेता सिखों को मार और मरवा रहे थे, तब अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं प्रेस क्लब के बगल की टैक्सी स्टैंड पर सिखों को दंगाइयों से बचा रहे थे। अटल बिहारी वाजपेयी तब 6 रायसीना रोड के बंगले में रहते थे, जिसमें आज डॉ. मुरली मनोहर जोशी रहते हैं। अटलजी ने 1 नवंबर,1984 को अपने घर के बाहर भयावह दृश्य देखा। वहां टैक्सी स्टैंड पर काम करने वाले सिख ड्राइवरों पर हमला करने के लिए कांग्रेसी गुंडे पहुंच गए थे। वे तुरंत पैदल ही सड़क पार कर टैक्सी स्टैंड पर पहुंचे। उनके वहां पर पहुंचते ही खून के प्यासे बाजपेयी जी को स्वयं आते देख वहां से खिसक लिए। उसी दिन शाम को अटल जी केन्द्रीय गृह मंत्री पी.वी.नरसिंह राव से मिलने गए। उन्होंने राव से जलती दिल्ली को बचाने की पुरजोर अपील की। नरसिंह राव मजबूर थे । उन्हें 72 घंटे चुप रहने की सलाह आका से मिल चुकी थी।
राजधानी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह से कत्लेआम हुआ था, मैं उसका गवाह हूं। मैं उस मनहूस दिन को भूल नहीं सकता जिस दिन इंदिरा जी की हत्या हुई थी। उसी दिन मैं राष्ट्रपति ज्ञानी जैन सिंह और गृह राज्य मंत्री श्रीमती रामदुलारी सिन्हा के साथ मॉरिशस से राजधानी लौटा था। मॉरिशस में अप्रवासी भारतवंशियों के आगमन की 150 वीं वर्षगाँठ पर ज्ञानी जैल सिंह जी के नेतृत्व में जो प्रतिनिधिमंडल गया था, उसमें मैं भी शामिल था। तब मैंने उन काले दिनों को अपनी आंखों से देखा है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सारे देश में बेहद तनावपूर्ण माहौल बना दिया गया था। सारा देश स्तब्ध था। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, ठीक उसी वक्त दिल्ली में कत्लेआम चालू हो चुका था। “खून का बदला खून से लेंगें ”, “ सारे सरदार गद्दार हैं”। इस तरह के नारे लगाते हुए सैकड़ों हत्यारों का झुण्ड सिखों को सरेआम जिंदा जला रहा था, पीट-पीटकर मार रहा था । बच्चों और महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया था। उनकी संपत्ति लूटी जा रही थी । कांग्रेस के कई बड़े नेताओं जैसे हरकिशन लाल भगत, जगदीश टाइटलर, धर्मदास शास्त्री, सज्जन कुमार आदि सिखों के खिलाफ खुलेआम चिल्ला-चिल्लाकर भीड़ को उकसा रहे थे। क्या यह बात किसी से छिपी है? इन नेताओं को सैकड़ों लोगों ने दंगा भड़काते हुए देखा। इसके बावजूद राहुल गांधी कह रहे है कि 1984 का दंगा कांग्रेस ने नहीं भड़काया। हालात देखिए कि अब धर्मदास शास्त्री के नाम पर राजधानी के पचले नगर में एक सड़क है। जब दिल्ली में दंगे थम ही नहीं रहे थे, तब मैंने खुद बिहार के ही एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी से जो उस वक्त दिल्ली पुलिस में एक बड़े पद पर थे, बात करके उनसे कुछ करने के लिए कहा था । उनका जवाब था कि “वे मजबूर हैं क्योंकि ऊपर का स्पष्ट आदेश है कि 72 घंटे तक कुछ नहीं करना है।” उस भले और ईमानदार अफसर की मज़बूरी साफ झलक रही थी । हालाँकि, बाद में कांग्रेस ने उन्हें अपनी टिकट पर लोक सभा में भी भेजा और राज्यपाल भी बनाया।
सज्जन कुमार पर दिए कोर्ट के फैसले ने अब साबित कर दिया है कि भारत की न्याय व्यवस्था की ईमानदारी पर सवालिया निशान तो कतई नहीं लगाया जा सकता। अब आशा यह की जानी चाहिए कि उन दंगों के शेष गुनहगार भी जेल की हवा खाएंगे। सज्जन कुमार तो जेल में जाएँगे ही, अब प्रयास इस तरह के होने चाहिए कि गुनहगारों को दंड मिलने में विलंब ना हो। जाहिर है, 34 साल के कालखंड में न जाने कितने ही पीड़ित सज्ज्न कुमार जैसों को दंड मिलने की उम्मीद करते हुए संसार से विदा हो गए होंगे। अब शायद उनकी आत्मा को शांति मिले।


प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *