अमेरिका के फरमान से दुखी नौ देश
अमेरिका से दोस्ती दुधारी तलवार पर चलने जैसा है। अमेरिका से दोस्ती का मतलब है कि आप अन्य देशों से दोस्ती नहीं कर सकते और अगर कर सकते हैं तो बस सीमित दोस्ती ही कर सकते हैं। अमेरिका चाहता है कि उसका दोस्त बस उसका ही रहे। उसकी अमेरिका पर ही निर्भरता बनी रहे। विदेश नीति किसी भी देश को इस बात की इजाजत नहीं देती कि वह किसी एक देश का ही होकर रह जाए। अमेरिका का वैसे भी कोई भरोसा नहीं कि वह कब खुश हो जाए और कब नाराज। अमेरिका दुनियाभर में अपनी तानाशाही चलाता है। अपनी बात पर दृढ़ रहना तो जैसे उसने सीखा ही नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से तेल खरीदने पर प्रतिबंध लगाकर ईरान की ही नहीं, दुनिया के 8 देशों चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, तुर्की, इटली और यूनान की भी परेशानी बढ़ा दी है। अमेरिका को यह तो सोचना ही चाहिए कि उसके मित्र देश कुछ ऐसे देशों के भी मित्र हो सकते हैं जिन्हें वह पसंद नहीं करता। वह अपनी नापसंदगी अपने मित्र देशों पर कैसे थोप सकता है? लेकिन ईरान के संदर्भ में तो ऐसा ही कुछ हो रहा है। यह सच है कि ईरान को अमेरिका पसंद नहीं करता और उसे बर्बाद करने के लिए ही वह उससे तेल की खरीद रोकने के लिए अपने साझीदार देशों पर दबाव बनाया है।
अमेरिका के इस निर्णय से भारत पसोपेश में है। भारत में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। ऐसे में अमेरिका का मौजूदा निर्णय मोदी सरकार की पेशानियों पर बल लाने वाला है। प्रतिबंध दो मई से लागू होगा और कांग्रेस अभी से चिल्लाने लगी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेल कंपनियों को निर्देश दे रखा है कि वे डीजल और पेट्रोल के दाम न बढ़ाएं। वह पेट्रो उत्पादों के दाम कम रखकर वोट हथियाना चाहती है। विपक्ष जानता है कि अमेरिका के इस निर्णय से देश में महंगाई तो बढ़नी तय है। जो महंगाई चुनाव बाद बढ़नी है, वह चुनाव के दौरान ही बढ़ जाए तो उसे राजनीतिक लाभ हो। इसके लिए कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रही है। हालांकि ऐसा डोनाल्ड ट्रंप की हठधर्मिता की वजह से हो रहा है। सच तो यह है कि अमेरिका के एक निर्णय से ईरान समेत दुनिया के नौ देश दुखी हैं।
ईरान भारत का साझीदार मित्र देश है। जब अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया था, तब भारत ने ईरान से तेल का आयात अपेक्षाकृत घटा दिया था। अमेरिका ऐसा ही चाहता था। ईरान से तेल आयात करने वालों में चीन के बाद भारत दूसरा बड़ा आयातक देश है। भारत ने ईरान से 2017-18 वित्त वर्ष में जहां 2.26 करोड़ टन कच्चे तेल की खरीददारी की थी। प्रतिबंध लागू होने के बाद उसने केवल डेढ़ करोड़ टन ही कच्चा तेल खरीदा है। अमेरिका की चाहतों के लिए भारत या उस सरीखे दूसरे देश अपने मित्र देशों से संबंध तोड़ लें, यह तो किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। ईरान से तेल आयात की 8 देशों को मिली अमेरिकी छूट 2 मई को खत्म हो रही है। अगर अमेरिका के इस निर्णय पर अमल किया गया तो भारत की आर्थिक दिक्कतें बढ़नी लगभग तय है। ईरान के तेल आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का मतलब है तेहरान की लाइफलाइन को खत्म करना। तेहरान रोजाना करीब 10 लाख बैरल तेल का निर्यात करता है। ऐसे में अमेरिका का यह फैसला भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और तुर्की के लिए किसी चेतावनी से कम नहीं है। ये सभी देश अमेरिका के साथ सुरक्षा और व्यापारिक रिश्तों में बंधे हैं। अमेरिका ने चेताया है कि हम ईरान से आयात को जीरो पर देखना चाहते हैं। अगर इसके बाद भी कोई देश ईरान के साथ व्यापार जारी रखता है तो उस देश को भी यूएस के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। भारत के तेल आयात में 10 फीसदी का ईरान का योगदान है। भारत के लिए ईरान की रणनीतिक अहमियत भी है। ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारतीय निवेश यह बताने के लिए काफी है कि अमेरिका के आदेश को मानने से भारत को कितना नुकसान होगा। अच्छा होता कि भारत पर अपना निर्णय थोपने से पहले ट्रंप भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर भी विचार करते।
ट्रंप चाहते हैं कि ईरान के लिए तेल का निर्यात मुश्किल बना दें। तब ईरान की आय घटेगी, लोगों में असंतोष बढ़ेगा और ईरान को अमेरिका के बताए अनुसार अपने परमाणु कार्यक्रम में और कटौती करनी होगी। लेकिन चीन, यूरोप, भारत और रूस को ईरान के तेल से वंचित करना कितना उचित है। वे यदि ईरान से तेल नहीं खरीदेंगे तो विश्व में तेल की आपूर्ति कम होगी। इससे तेल के दाम बढ़ेंगे और इन देशों के लिए मुश्किलें पैदा होंगी। इसलिए ये देश चाहते हैं कि अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद ईरान से तेल की खरीद जारी रहे।
वर्ष 2012 में भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा ईरान पर तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगे थे। इसके बावजूद ईरान ने तेल का निर्यात जारी रखा था। उक्त आठों देश उसी तरीके से तेल आयात जारी रखना चाहते हैं जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। तब ईरान ने अपना एक खाता यूको बैंक की कोलकाता शाखा में खोला था। भारतीय तेल आयातकों ने तेल का लगभग आधा भुगतान रुपयों में यूको बैंक की इस शाखा में ईरान सरकार के खाते में जमा करा दिया। इस रकम का उपयोग ईरान ने भारत से बासमती चावल जैसी सामग्री खरीदने के लिए किया था। इस द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की कोई भूमिका नहीं थी। अब भारत सरकार ने ईरान के दो बैंकों को भारत में अपनी शाखा खोलने की स्वीकृति दे दी है। इन बैंकों में ईरान से खरीदे गए तेल का भुगतान भारत रुपयों में कर सकता है। ईरान उस रकम का उपयोग भारत से माल का आयात करने में कर सकता है। भारत की तरह ही चीन, यूरोप और रूस भी अमेरिकी प्रतिबंधों से प्रभावित हैं। वे वैकल्पिक बैंकिंग व्यवस्था बनाने की सोच रहे हैं। ऐसी व्यवस्था जिसमें अमेरिकी बैंकों की सहभागिता न हो।
ट्रंप प्रशासन ईरान पर दबाव बनाकर अपनी जिद पूरा करना चाहता है लेकिन इसका अन्य देशों पर क्या असर होगा। वह अन्य देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर अपने अहं की संतुष्टि करना चाहता है। इस प्रवृत्ति की जितनी भी आलोचना की जाए कम है। परमाणु हथियार निर्माण कार्यक्रमों पर नियंत्रण लगना चाहिए। लेकिन इसके लिए दुनियाभर के देशों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो, इस तरह के उपक्रमों से बचा जाना चाहिए। काश, अमेरिका अपनी चौधराहट के फेर में दुनिया के धैये का इम्तिहान न ले। अनुशासन की मर्यादा बनी चाहिए। अतिरेक दूसरों को ही नहीं, अपने को भी दुख देता है। अच्छा होता कि अमेरिका अतिरेक के खतरे को समझ पाता। भारत को केवल ईरान से आयातित तेल ही नहीं, वहां काम कर रहे भारतीय नागरिकों के हितों की भी चिंता करनी है जो उसके विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने में मील के पत्थर की भूमिका अदा करते हैं।
अमेरिका के इस निर्णय से भारत पसोपेश में है। भारत में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। ऐसे में अमेरिका का मौजूदा निर्णय मोदी सरकार की पेशानियों पर बल लाने वाला है। प्रतिबंध दो मई से लागू होगा और कांग्रेस अभी से चिल्लाने लगी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेल कंपनियों को निर्देश दे रखा है कि वे डीजल और पेट्रोल के दाम न बढ़ाएं। वह पेट्रो उत्पादों के दाम कम रखकर वोट हथियाना चाहती है। विपक्ष जानता है कि अमेरिका के इस निर्णय से देश में महंगाई तो बढ़नी तय है। जो महंगाई चुनाव बाद बढ़नी है, वह चुनाव के दौरान ही बढ़ जाए तो उसे राजनीतिक लाभ हो। इसके लिए कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रही है। हालांकि ऐसा डोनाल्ड ट्रंप की हठधर्मिता की वजह से हो रहा है। सच तो यह है कि अमेरिका के एक निर्णय से ईरान समेत दुनिया के नौ देश दुखी हैं।
ईरान भारत का साझीदार मित्र देश है। जब अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया था, तब भारत ने ईरान से तेल का आयात अपेक्षाकृत घटा दिया था। अमेरिका ऐसा ही चाहता था। ईरान से तेल आयात करने वालों में चीन के बाद भारत दूसरा बड़ा आयातक देश है। भारत ने ईरान से 2017-18 वित्त वर्ष में जहां 2.26 करोड़ टन कच्चे तेल की खरीददारी की थी। प्रतिबंध लागू होने के बाद उसने केवल डेढ़ करोड़ टन ही कच्चा तेल खरीदा है। अमेरिका की चाहतों के लिए भारत या उस सरीखे दूसरे देश अपने मित्र देशों से संबंध तोड़ लें, यह तो किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। ईरान से तेल आयात की 8 देशों को मिली अमेरिकी छूट 2 मई को खत्म हो रही है। अगर अमेरिका के इस निर्णय पर अमल किया गया तो भारत की आर्थिक दिक्कतें बढ़नी लगभग तय है। ईरान के तेल आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का मतलब है तेहरान की लाइफलाइन को खत्म करना। तेहरान रोजाना करीब 10 लाख बैरल तेल का निर्यात करता है। ऐसे में अमेरिका का यह फैसला भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और तुर्की के लिए किसी चेतावनी से कम नहीं है। ये सभी देश अमेरिका के साथ सुरक्षा और व्यापारिक रिश्तों में बंधे हैं। अमेरिका ने चेताया है कि हम ईरान से आयात को जीरो पर देखना चाहते हैं। अगर इसके बाद भी कोई देश ईरान के साथ व्यापार जारी रखता है तो उस देश को भी यूएस के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। भारत के तेल आयात में 10 फीसदी का ईरान का योगदान है। भारत के लिए ईरान की रणनीतिक अहमियत भी है। ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारतीय निवेश यह बताने के लिए काफी है कि अमेरिका के आदेश को मानने से भारत को कितना नुकसान होगा। अच्छा होता कि भारत पर अपना निर्णय थोपने से पहले ट्रंप भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर भी विचार करते।
ट्रंप चाहते हैं कि ईरान के लिए तेल का निर्यात मुश्किल बना दें। तब ईरान की आय घटेगी, लोगों में असंतोष बढ़ेगा और ईरान को अमेरिका के बताए अनुसार अपने परमाणु कार्यक्रम में और कटौती करनी होगी। लेकिन चीन, यूरोप, भारत और रूस को ईरान के तेल से वंचित करना कितना उचित है। वे यदि ईरान से तेल नहीं खरीदेंगे तो विश्व में तेल की आपूर्ति कम होगी। इससे तेल के दाम बढ़ेंगे और इन देशों के लिए मुश्किलें पैदा होंगी। इसलिए ये देश चाहते हैं कि अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद ईरान से तेल की खरीद जारी रहे।
वर्ष 2012 में भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा ईरान पर तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगे थे। इसके बावजूद ईरान ने तेल का निर्यात जारी रखा था। उक्त आठों देश उसी तरीके से तेल आयात जारी रखना चाहते हैं जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। तब ईरान ने अपना एक खाता यूको बैंक की कोलकाता शाखा में खोला था। भारतीय तेल आयातकों ने तेल का लगभग आधा भुगतान रुपयों में यूको बैंक की इस शाखा में ईरान सरकार के खाते में जमा करा दिया। इस रकम का उपयोग ईरान ने भारत से बासमती चावल जैसी सामग्री खरीदने के लिए किया था। इस द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की कोई भूमिका नहीं थी। अब भारत सरकार ने ईरान के दो बैंकों को भारत में अपनी शाखा खोलने की स्वीकृति दे दी है। इन बैंकों में ईरान से खरीदे गए तेल का भुगतान भारत रुपयों में कर सकता है। ईरान उस रकम का उपयोग भारत से माल का आयात करने में कर सकता है। भारत की तरह ही चीन, यूरोप और रूस भी अमेरिकी प्रतिबंधों से प्रभावित हैं। वे वैकल्पिक बैंकिंग व्यवस्था बनाने की सोच रहे हैं। ऐसी व्यवस्था जिसमें अमेरिकी बैंकों की सहभागिता न हो।
ट्रंप प्रशासन ईरान पर दबाव बनाकर अपनी जिद पूरा करना चाहता है लेकिन इसका अन्य देशों पर क्या असर होगा। वह अन्य देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर अपने अहं की संतुष्टि करना चाहता है। इस प्रवृत्ति की जितनी भी आलोचना की जाए कम है। परमाणु हथियार निर्माण कार्यक्रमों पर नियंत्रण लगना चाहिए। लेकिन इसके लिए दुनियाभर के देशों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो, इस तरह के उपक्रमों से बचा जाना चाहिए। काश, अमेरिका अपनी चौधराहट के फेर में दुनिया के धैये का इम्तिहान न ले। अनुशासन की मर्यादा बनी चाहिए। अतिरेक दूसरों को ही नहीं, अपने को भी दुख देता है। अच्छा होता कि अमेरिका अतिरेक के खतरे को समझ पाता। भारत को केवल ईरान से आयातित तेल ही नहीं, वहां काम कर रहे भारतीय नागरिकों के हितों की भी चिंता करनी है जो उसके विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने में मील के पत्थर की भूमिका अदा करते हैं।