सिखाता संस्थान योग का विज्ञान
नई दिल्ली, 15 जून (हि.स)। पूरब और पश्चिम का जहां सर्वोत्तम देखा जा सकता है, वह स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान है। यहां सृजनात्मकता हर कदम पर दिखेगी। दुनिया जिस मुहावरे में योग को समझ सकती है और उस रास्ते पर अपने जीवन को ढालने के लिए प्रेरित हो सकती है, वही यहां दिखता है।
यह संस्थान जहां एक तपोभूमि है, वहीं प्रयोगभूमि भी है। यहां आकर कोई भी अनुभव करेगा कि योग मात्र व्यायाम नहीं है। योग और अध्यात्म तो एक जीवनशैली है। जीने का एक ढंग है। यही स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान की खासियत है। संस्थान का परिसर 110 एकड़ में फैला हुआ है, जिसकी शुरुआत पच्चीस साल पहले हुई थी। डॉ. नागेन्द्र 20वीं शताब्दी के सातवें दशक में नासा से इस्तीफा दिया और योग की ओर मुड़े। एकनाथ रानाडे की प्रेरणा से पहले वे विवेकानंद शिला स्मारक से जुड़े। उसके बाद यहां आए, जो उनकी कर्मभूमि और तपोभूमि बन गई है।
जब आए थे, तब यह स्थान वीरान था। लेकिन, आज यहां सबकुछ स्वत: संचालित होता हुआ लगता है। यह नहीं लगता कि कोई उसे चला रहा है। जो चला रहा है, वह पृष्ठभूमि में बना रहता है। यह इस परिसर की ऐसी विशेषता है, जिसे अन्यत्र पाना दुलर्भ है। कहना यह है कि परिसर के वातावरण में आत्म-अनुशासन घुला-मिला है। इसका एक कारण कुलपति डॉ. नागेन्द्र स्वयं है।
कर्नाटक के बंगलुरू जिले में स्थित गिडेन हल्ली गांव की अपनी कहानी है। यह गांव घने जंगल के बीच स्थित था, जहां डॉ. नागेन्द्र की बुआ थोड़ी जमीन खरीदकर शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने आई थीं। नासा से लौटकर डॉ. नागेन्द्र बुआ के पास रहने आ गए थे। यहीं गांव में निवास कर रहे सत्यनारायण शास्त्री ने डॉ. नागेन्द्र को वेद-वेदांग और योग की उच्च कोटि की साधना से अवगत कराया। फिर यह घर कब आश्रम में बदल गया, इसका कुछ पता ही नहीं चला।
डॉ. नागेन्द्र रामकृष्ण मिशन आश्रम से भी जुड़े थे। सपनों को मूर्त रूप देने की बात आई तो विवेकानंद के नाम से एक रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की। यह 1986 की बात है। वे इसके सचिव बने। धीरे-धीरे संस्थान ने विश्वविद्यालय का स्वरूप ले लिया और डॉ. नागेन्द्र इसके कुलपति हो गए। अब गांव की पहचान पीछे छूट गई है। ‘स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान’ ही यहां की पहचान है।
आप बेंगलुरू हवाई जहाज से आएं या फिर रेल या बस मार्ग से। सुबह छह बजे संस्थान के बंगलुरू स्थित पते पर नामंकन दर्ज कराने पर बस उपलब्ध हो जाती है। जिससे 81 किलोमीटर की दूरी पूरी कर संस्थान पहुंचा जा सकता है। यहां भव्य तोरण द्वार देखने से शांति का अनुभव होता है। वहीं ठीक दाहिनी तरफ संस्थान का नाम स्पष्ट लिखा है- स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान। बाईं ओर मात्र दो शब्द लिखे हैं- ‘प्रशांति कुटीरम’।
परिसर में प्रवेश करते ही स्वामी विवेकानंद की एक प्रशस्त मूर्ति और सामने खुला मंच है। गुरुजी इसी मंच से छात्र एवं अतिथियों को यदा-कदा संबोधित करते हैं। बगल में मां शारदा, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की साधनारत मूर्तियां हैं।
2002 में इसे डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्ज मिला, लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने इसे ‘ए प्लस प्लस’ ग्रेड दे रखा है। यहां योग और आयुर्वेद की पढ़ाई के साथ-साथ यूनानी, नेचुरोपैथी, फिजियोथेरेपी की भी पढ़ाई होती है। इन विषयों पर एक हफ्ते से लेकर साढ़े पांच साल तक के पाठ्यक्रम चल रहे हैं। इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय वायआईसी यानी योग इंस्ट्रक्टर कोर्स है। यह महीने भर का पाठ्यक्रम है और शुल्क 30 हजार रुपये है। इस पाठ्यक्रम में डेढ़ सौ छात्रों का चयन होता है। इसके बावजूद कई छात्र दाखिला पाने से वंचित रह जाते हैं।
यह समझा जाता है कि योग को जानने-समझने के लिए इस पाठ्यक्रम में दाखिला लेना चाहिए। सुबह से रात तक योग और उससे संबंधित कार्य व चर्चा के कारण तीसवें दिन छात्र इस बात को महसूस करता है कि उसके जीवन में भारी बदलाव आ गया है। योग सिर्फ आसन प्राणायाम ही नहीं है, बल्कि यह जीवन की कला है। अधिक से अधिक प्रकृति के नजदीक ले जाना ही ‘स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान’ यानी एस व्यासा का उद्देश्य है।
योग में डिप्लोमा से लेकर डिग्री तक दी जाती है। बी.एससी से लेकर पी.एचडी तक के विषय यहां पढ़ाए जा रहे हैं। भविष्य में सरकार एक लाख योग केंद्र खोलने जा रही है, उसके लिए लाखों योग प्रशिक्षक की जरूरत होगी। तहसील से लेकर देश के स्तर पर तथा प्राथमिक चिकित्सालय से लेकर एम्स तक के लिए जो योग प्रशिक्षकों की नियुक्ति की जानी है, उसके लिए एस.व्यासा दिन-रात काम कर रहा है।
संस्थान के शिक्षक बताते हैं कि यहां से पढ़े छात्र चीन, थाईलैंड, मलेशिया, ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में आसानी से मिल जाएंगे। इसके अलावा बहुत से होटलों, कंपनियों, कॉरपोरेट हाउस, निजी विद्यालय एवं निजी चिकित्सालय में चले जाते हैं। कई तो ऐसे भी हैं, जो विदेशों से अच्छी कमाई कर खुद ही योग केंद्र खोल लेने की स्थिति में हैं।
एम्स के साथ करार के बाद शोध के क्षेत्र में वे एक-दूसरे की सहायता सिद्ध हो रहे हैं। योग को आधुनिक स्वरूप में लाना संस्थान का उद्देश्य है, पर मूल ज्यों का त्यों बना रहे, इस बात का भी पूरा ध्यान रखा जा रहा है। किसी भी धर्म-संप्रदाय-जाति के साधु-संन्यासी और बिना आर्थिक लाभ के काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का इलाज और रहने-खाने की सुविधा मुफ्त में उपलब्ध होती है।
यहां आकर कोई भी यह अनुभव करेगा कि योग मात्र व्यायाम नहीं है। योग और अध्यात्म तो एक जीवनशैली है, जीने का एक ढंग। यही इस संस्थान की खासियत है। यहां एक आश्वासन भी प्राप्त होता है कि इस जीवनशैली से व्यक्ति का जीवन आंतरिक रूप से समृद्ध होगा और स्वस्थ होगा। स्व में स्थित होना ही स्वस्थ होना है। इस विधि से मनुष्य के जीवन में शांति आएगी, वह समर्थवान बनेगा और प्रकृति का सहचर भी हो सकता है।
एक और बड़ा आशावाद यहां के कण-कण में विराजमान है। उसे यहां आकर ही महसूस किया जा सकता है कि भारत दुनिया को योग की संस्कृति और योग का विज्ञान सिखाने में समर्थ हो सकता है। इसी ललक से यहां दुनियाभर से जिज्ञासु छात्र आ रहे हैं।
एस.व्यासा की प्रसिद्धि फैलने का एक कारण मधुमेह रोग से लोगों को निजात दिलाना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत 2030 तक मधुमेह रोगियों के मामले में चीन से आगे निकलकर पहले स्थान पर होगा। एस. व्यासा ऐसा होने नहीं देना चाहता है। देश के 30 राज्यों के 60 जिलों में (हर राज्य के दो जिले) दो लाख 40 हजार मधुमेह रोगियों पर अध्ययन शुरू किया गया है। योग से इलाज शुरू हुआ तो उनका शुगर स्तर कम हुआ।
डॉ. अमित सिंह विश्वविद्यालय में आरोग्यधाम के मुख्य चिकित्साधिकारी हैं। उनके शोध का क्षेत्र मधुमेह ही है। वे कहते हैं, “हमने देश के 30 राज्यों के 60 जिलों में दो लाख 40 हजार मधुमेह रोगियों पर अध्ययन शुरू किया है। योग के जरिए परिणाम आश्चर्यजनक निकले हैं। वे योग को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर मधुमेह उन्हें फिर से पीड़ित न करे, इसलिए सिखाए-बताए हुए योग को करना जरूरी है। हमारे संस्थान में मधुमेह रोगी सबसे ज्यादा आते हैं।
योग और आयुर्वेद को अपनाकर विभिन्न रोगों को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए लगातार शोध किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर एस.व्यासा की कथा अनंत है। यहां एक अत्याधुनिक प्रयोगशाला है, जिसमें व्यक्ति के मस्तिष्क से लेकर उसके आचार-व्यवहार का बारीक अध्ययन किए जा रहे हैं। भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन भी अध्ययन का विषय है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि जिस अंग में रक्त का संचार सही तरीके से नहीं होता है, उस अंग में धीरे-धीरे रोग पैदा हो जाता है और अंग खराब होने लगता है। जबकि योग का मानना है कि प्राण और ऊर्जा की वजह से ऐसा होता है। इसे एस. व्यासा ने प्रमाणित करके दिखाया है। इस प्राण और ऊर्जा को कैसे उच्च स्तर पर बनाए रखा जा सके! इसके लिए प्रयोगशाला में दिन रात शोध का कार्य चल रहा है। इस संबंध में डॉ. अमित सिंह कहते हैं “प्राण और ऊर्जा के असंतुलन से रोग पैदा होते हैं। प्राण और ऊर्जा को कैसे उच्च स्तर पर बनाए रखा जा सके, इसी दिशा में शोध के कार्य चल रहे हैं। प्राणवायु के मामले में भी लगातार प्रयोग हो रहे हैं।”