खुद की नादानी, हो गये बे-पानी : अमीरों तक सिमटता जा रहा है पानी, गरीबों के लिए बढ़ रही परेशानी

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जहां पांच सितारा होटलों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी का व्यय 300 लीटर है, वहीं गांवों में 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खर्च है। आज इसी अनुपात को बराबर करने की जरूरत है। सबको समझाने की जरूरत है कि यह पानी जिस दिन खत्म हो गया, उस दिन हमारी जिन्दगी नहीं बचेगी।



लखनऊ, 12 जुलाई (हि.स.)। हम सभी को जिंदगी देने वाला पानी, आज खुद के अस्तित्व के लिए कराह रहा है। बड़े लोग जहां मनमानी कर रहे हैं, वहीं गरीबों के लिए आने वाला समय दुश्कर होता जा रहा है।
 जहां पांच सितारा होटलों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी का व्यय 300 लीटर है, वहीं गांवों में 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खर्च है। आज इसी अनुपात को बराबर करने की जरूरत है। सबको समझाने की जरूरत है कि यह पानी जिस दिन खत्म हो गया, उस दिन हमारी जिन्दगी नहीं बचेगी।
उपलब्धता की अपेक्षा तीन गुना खपत
 आज स्थिति यह है कि भारत में पानी की उपलब्धता की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा खपत है। यदि हम किसी भी वस्तु की उपलब्धता और खपत को बराबर नहीं करते तो इसके परिणाम क्या होंगे। सब जानते हैं। आने वाले दिनों में यह अमीरों तक पहुंच की वस्तु रह जाएगी और गरीब पानी के बिना दम तोड़ देगा। आज हम विश्व के सबसे बड़े उपभोग करने वाले देश बन गये हैं, जबकि हमसे ज्यादा आबादी के बावजूद चाइना दूसरे नम्बर पर है।
इस संबंध में जल संरक्षण के लिए काम करने वाले समाज सेवी व बुन्देलखंड में जल पुरूष के नाम से विख्यात संजय सिंह ने “हिन्दुस्थान समाचार” को बताया कि जैसे-जैसे हमारी लाइफ स्टाइल बदली, वैसे-वैसे समस्या बढ़ती गयी। इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि एक पांच सितारा होटल में प्रति व्यक्ति 300 लीटर प्रतिदिन पानी की खपत है, जबकि गांव में यही पानी की खपत प्रति व्यक्ति प्रति दिन 40 लीटर है। इसी शहरीकरण ने पानी का संकट बढ़ा दिया है। इसे हमें रोकना होगा।
पानी के लिए जागरूकता अभियान की जरूरत
समाजसेवी अजीत सिंह का कहना है कि मूल समस्या जागरूकता में कमी को लेकर है। इसके लिए हमें आगे आना होगा। सरकार को भी स्वच्छता अभियान की तरह पानी बचाने के लिए भी एक बृहद अभियान चलाना होगा। गांव से लेकर शहर तक लोगों को इसके प्रति जागरूक करना होगा। शहरों के पानी को जमीन तक पहुंचाने के लिए सरकार ने हार्वेसिंटिग सिस्टम का नियम तो बना दिया, लेकिन इसको लगवाने के लिए नगर पालिका या न्याय पंचायतें अभी तक ज्यादा बल नहीं दे रही हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि यह सरकार अभियान चलाएगी।
भयावहता का अंदाजा लगाना मुश्किल
जल संरक्षण पर काम करने वाली संस्था इको स्फेयर के प्रशांत गुंजन ने “हिन्दुस्थान समाचार” को बताया कि आधुनिकता की जाल में उलझकर हम अपनी विरासत को खोते जा रहे हैं। उसी क्रम में एक जल भी है। गांवों से गड्ढे गायब हैं, दरवाजे के आगे से पेड़ और दूब घास की जगह-जगह कंक्रीट के पत्थर ने स्थान ले लिया है। हम पानी के स्रोत पर ध्यान न देकर सिर्फ उसके दोहन तक सीमित रह गये हैं। जहां एक दशक पहले 30 फीट पर पानी मिल जाता था, वहां का स्टेटा आज 90 फीट चला गया है। आने वाले दिनों में वह कहां जाएगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।
प्रवृत्ति में लाना होगा बदलाव
नदियों के जल स्रोत को बचाने के लिए एक दशक से काम करने वाले विंध्यवासिनी श्रीवास्तव ने “हिन्दुस्थान समाचार” से बताया कि नशा करने वालों को आप लाख उसके अवगुणों को बताते रहिए लेकिन वे नशा करना नहीं छोड़ते, जब डाक्टर कह देता है कि आप मर जाएंगे तो अधिकांश लोग तुरंत छोड़ देते हैं। यह मुनष्य की प्रवृति है। यही समस्या का मूल कारण भी है। जहां जल संकट ज्यादा था, वहां लोगों में जागरूकता बढ़ी और जहां जल संकट कम था, वहां की लापरवाही ने जल संकट को ज्यादा बढ़ा दिया। यही कारण है कि आज यूपी के 36 जिले जल संकट की समस्या से जुझ रहे हैं।

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