लखनऊ, 22 सितंबर (हि.स.)। चुनावी शंखनाद से बहुत पहले ही यूपी में तैयारियां अपने चरम पर शुरू पहुंच गयी हैं। हर पार्टी के प्रमुख अपने-अपने तरकश से तीर निकालने शुरू कर दिये हैं। इस कार्य में भाजपा सबसे आगे है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जब पहला चुनाव लड़ा, तभी से एक रणनीति अपनाई कि मुद्दा चाहे जो हो, हमारी गेंद पर ही दूसरे दल खेलते रहें। वह रणनीति कामयाब रही और आज भी कामयाब होती दिख रही है। यूपी में भी भाजपा ने यही रणनीति अपनाई है और विपक्ष उसमें उलझकर रह गया है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यही स्थिति रही तो भाजपा यूपी में फिर 2017 की तरह ही विजय हासिल कर सकती है।
उप्र की विपक्षी राजनीतिक पार्टियों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ही प्रमुख हैं। कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रही है। समाजवादी पार्टी का स्वभाव रहा है संघर्ष। जब भी वह सत्ता से बाहर रहती थी, कार्यकर्ता सड़क पर उतरकर लाठियां खाते थे। इससे वह हमेशा लोगों के दिल-दिमाग में बने रहते थे। उनमें मुलायम सिंह यादव हर वक्त जोश भी भरते रहते थे और संघर्षशील कार्यकर्ताओं को सत्ता आने पर विशेष तवज्जो दिया जाता था लेकिन इस बार पांच साल तक ऐसा नहीं हुआ।
पूरे चार साल तक अखिलेश यादव ट्वीटर और प्रेस विज्ञप्ति से ही काम चलाते रहे। पिछले छह माह से उनके कार्यकर्ताओं की सक्रियता सभाओं के लिए बनी है। वह भी कोई सड़क पर उतरकर संघर्ष नहीं कर पा रहे हैं। पूरे कोरोना काल में विपक्ष जहां घर में बैठकर भाजपा की बुराई करता रहा, वहीं भाजपा के कार्यकर्ता सड़क पर उतरकर जनसेवा करते रहे।
समाजवादी पार्टी का स्वभाव अब बदल चुका है। अखिलेश यादव अब संघर्ष नहीं, सिर्फ प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से भाजपा की बुराई करने में लगे रहते हैं। राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन सिंह का कहना है कि यदि एक साल पूर्व अखिलेश यादव नोयडा से लेकर बलिया तक साइकिल यात्रा ही निकाल दिये होते तो आज स्थिति कुछ और होती लेकिन वे भी अपनी पार्टी को प्रोफेशनल करने में जुट गये हैं। यदि किसी पार्टी के स्वभाव में बदलाव किया जाता है, तो उसके लिए काफी रिस्क उठाना पड़ता है। उसी रिस्क जोन में समाजवादी पार्टी इस समय चल रही है।
सपा के पांच साल के कामों पर ध्यान दें तो समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव तो हर वक्त भाजपा की गेंद पर ही खेलते नजर आये। जब भी कोई उद्घाटन या शिलान्यास होता, तब वे उसे अपना बताने में जुटे रहते। उन्होंने न तो जनता को यह बताने की कोशिश की कि उनका संघर्ष किस स्तर का है और न ही जनता के बीच में जाने की कोई जहमत उठायी।
वहीं बसपा का स्वभाव रहा है, जब भी सत्ता से बाहर रही बसपा प्रमुख मायावती मौन धारण कर लेती हैं। उनके स्वभाव में तो कोई बदलाव नहीं आया है लेकिन अब बसपा के अधिकांश दिग्गज बाहर हो चुके हैं या बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। उनका मूल वोट बैंक भी खिसकता जा रहा है। इससे उन पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।