तीन तलाक : नये भारत का नया नजरिया

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भारत ने एक ऐसी सामाजिक कुप्रथा पर जीत हासिल कर लिया जो आधुनिक, सभ्य और प्रगतिवादी समाज के लिए कलंक था। मुस्लिम समाज में व्याप्त मध्ययुगीन कुप्रथा यानी तीन तलाक का अंत हो गया।



सामाजिक परिवर्तन का यह बड़ा बदलाव है। तीन तलाक हमारे समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं था। भारत ने एक ऐसी सामाजिक कुप्रथा पर जीत हासिल कर लिया जो आधुनिक, सभ्य और प्रगतिवादी समाज के लिए कलंक था। मुस्लिम समाज में व्याप्त मध्ययुगीन कुप्रथा यानी तीन तलाक का अंत हो गया। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद अब यह कानून बन गया जाएगा। संसद ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक! तलाक!! तलाक!!! से आजादी दिला दिया है। जिसकी वजह से उनका वैवाहिक जीवन अधर में लटका रहता था। उन्हें हमेशा यह डर सताता था कि जाने कब पति किसी बात से नाराज होकर मोबाइल, वाट्सअप, फेसबुक, चिट्ठी के जरिए तलाक, तलाक, तलाक का संदेश भिजवा दे। बिल को किसी सरकार या दल की सियासी जीत के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। यह आधुनिक सोच और बदलते भारत का नजरिया है। लेकिन जब हमारी पूरी नीति उसी धुरी पर टिकी है तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि यह सियासी खेल या राजनीति से बाहर है। लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी मंगलवार को तीन तलाक का बिल पास हो गया। दुनिया के 22 देशों में यह पूरी तरह प्रतिबंधित है। पाकिस्तान में भी इस कुप्रथा पर रोक है। फिर हमें प्रगतिवादी कहलाने का कोई हक नहीं था।
तीन तलाक पर सिर्फ मुस्लिम महिलाओं की नहीं, पूरे भारत की जीत हुई है। यह सामाजिक परिवर्तन का बड़ा उदाहरण है। समाज के एक वर्ग की आधी आबादी को बड़ा न्याय मिला है। इस बिल के पास होने से मुस्लिम महिलाओं में बेहद खुशी देखी गई है। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कट्टरपंथी विचारधारा के मुस्लिमों को आधात पहुंचा है। मुस्लिम समाज का एक तबका इसे मोदी सरकार की सियासी जीत के साथ हिंदुत्व की बड़ी जीत भी मानता है। भारत दुनिया का पहला देश बन गया है जहां अब तीन तलाक पर जेल की सजा होगी। बिल के समर्थन में 99 और विरोध में 84 वोट पड़े। निश्चित रुप से मोदी सरकार की यह एतिहासिक जीत है। लोकसभा और राज्यसभा में बहुत के आंकड़े में अभी तक यह बिल उलझता रहा। लेकिन इस बिल पर सरकार ने रणनीतिक जीत हासिल कर विपक्ष को बौना कर दिया। साथ ही मुस्लिम महिलाओं की हमदर्दी हासिल कर अपने सियासी वोटबैंक को साधने में भी भाजपा कामयाब हुई। राज्यसभा से कुछ सियासी दलों के वाक आउट से सरकार का काम और आसान हो गया।
नि:संदेह कांग्रेस तीन तलाक बिल पर 34 साल बाद भी हाशिये पर खड़ी दिखी। मुस्लिम वोट बैंक की नीति ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। कांग्रेस सामाजिक बदलाव को भांपने में नाकामयाब रही। 1986 में शाहबानों प्रकरण में उसने जो ऐतिहासिक भूल की थी, 2019 में भी उसे ही दोहराया। उसी का नतीजा है कि कांग्रेस कभी 44 तो कभी 52 लोकसभा सीटों पर सिमटती रही है। उधर, दक्षिणपंथी विचारधारा वाली पार्टी भाजपा रुढ़ीवादी विचारधाराओं को दरकिनार कर नया इतिहास रच रही है। मुस्लिम समाज के प्रबु़द्धवर्ग को इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए स्वयं आगे आना चाहिए था। राजनेताओं को इसमें भूमिका निभानी चाहिए थी। लेकिन वोटबैंक के लिए ऐसा नहीं किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1986 में अगर कठमुल्लाओं के दबाव में न आते तो यह मसला भाजपा के हाथ न लगता। 1978 में मध्यप्रदेश के इंदौर की शाहबानों को उसके पति ने तीन तलाक दिया था। उस वक्त वह पांच बच्चों की मां थी। शरीयत के इस गलत फैसले के खिलाफ शाहबानों ने गुजारा भत्ता के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। अदालत ने पति को तलाकशुदा महिला की जीविका एवं बच्चों के पोषण के लिए गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। अदालत के फैसले का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कट्टरपंथी जमात ने मुखर विरोध किया। उन्हें लगा कि अगर इस पर अमल हुआ तो पुरुषों का वर्चस्व खत्म हो जाएगा। महिलाएं आजाद हो जाएंगी। बहुपत्नी प्रथा पर रोक लग सकती है। महिलाओं को लेकर ‘यूज एंड थ्रो’ की नीति नाकामयाब हो जाएगी। उन्होंने सरकार पर दबाव बनाया। राजीव गांधी को उनके सियासी सलाहकारों ने बरगलाया कि अगर इस फैसले से मुस्लिम समाज नाराज हुआ तो कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक बिखर जाएगा। पार्टी सत्ता से हाथ धो सकती है। नतीजा रहा कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ संसद में बिल लाकर गुजारा भत्ता निजात का कानून पास कर दिया। कांग्रेस 34 साल बाद भी उसी की सजा भुगत रही है और अब भी सुधरने को तैयार नहीं है।
कांग्रेस समेत विपक्ष बिल को अटकाने के लिए सलेक्ट कमेटी का राग अलापता रहा लेकिन सरकार दोनों सदनों में बहस के बाद अपनी रणनीति पर कायम रही। आखिरकार बिल पास करा लिया। मोदी सरकार की इस लड़ाई की असली नायक तो उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो हैं। जिन्होंने भाजपा के लिए बिल को संसद में रखने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार किया। शायरा के पति ने 2001 में स्पीड पोस्ट से तीन तलाक का संदेश भेजा था। शायरा ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। जिस पर देश की शीर्ष अदालत के पांच सदस्यीय जजों की खंडपीठ ने तीन-दो से शायरा बानो के पक्ष में फैसला सुनाते हुए इसे सामाजिक कलंक बताया और इसे खत्म करने कहा। मोदी सरकार के लिए शीर्ष अदालत का फैसला अमोघ अस्त्र साबित हुआ और संसद में वह कामयाब हुई।
सरकार के इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं को बड़ी ताकत मिली है। अब उन्हें घुट-घुटकर नहीं जीना होगा। तीन तलाक पीड़िताओं को असीमित अधिकार दिए गये हैं। इसीलिए विपक्ष बार-बार उसके दुरूपयोग की बात कहता रहा। विपक्ष का तर्क था कि अगर पति को जेल भेज दिया गया तो तलाकशुदा महिला को गुजार भत्ता कौन देगा? इस पर मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक ही तो कहा कि पति ऐसा करे ही क्यों जिससे उसे जेल जाना पड़े। हालांकि विपक्ष की सलाह पर सरकार ने बिल में संसोधन भी किया। संशोधन के पूर्व यह था कि तीन तलाक की रिपोर्ट कोई पड़ोसी भी दर्ज करा सकता था, लेकिन इसके दुरुपयोग की आशंका देखते हुए इसमें परिवर्तन किया गया। नये सुधार के अनुसार पीड़ित महिला या उसके खून के रिश्ते में आने वाले व्यक्ति ही पुलिस में इसकी सूचना दे सकता है। महिला चाहे तो मजिस्टेट से कह पति की जमानत भी करवा सकती है। उससे समझौता भी कर सकती है। तीन तलाक पर सरकार ने पिछले दरवाजे से सारे विकल्प खुले रखे हैं। लेकिन उसका सारा अधिकार पीड़ित महिला के पास होगा। इस बिल से मुस्लिम महिला सशक्तिकरण को लेकर नई उम्मीद जगी है। प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा है कि इस बिल के पारित होने से सदियों पुरानी कुप्रथा का अंत हुआ है और मुस्लिम माताओं-बहनों को सम्मान से जीने का हक मिला है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

 


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