नई दिल्ली, 17 जून (हि.स.)। भारत और चीन के बीच विवाद की मुख्य वजह बनी पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी इस समय चर्चा में है। यहीं पर चीन और भारत के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई। करीब 14000 फीट ऊंची इस घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले गुलाम रसूल गलवान के नाम पर है जहां तापमान शून्य से नीचे रहता है। पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में ही चीन और भारत के सैनिक आमने-सामने टिके हैं।
घाटी की यह जगह अक्साई चिन इलाके में आती है, इसलिए चीन हमेशा यहां आंखें गड़ाये रहता है। सन 1962 से लेकर 1975 तक गलवान घाटी में ही भारत-चीन के बीच संघर्ष हुए। अब 45 साल बाद फिर गलवान घाटी सुर्खियों में है। लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड पर आज भी गुलाम रसूल के पूर्वजों का घर है। उनके नाम पर यहां गलवान गेस्ट हॉउस भी है। अभी यहां उनकी चौथी पीढ़ी के कुछ सदस्य रहते हैं। उस समय लद्दाख के इलाके अंग्रेजों को ज्यादा पसंद नहीं आते थे। लद्दाख के रहने वाले गुलाम रसूल गलवान का जन्म साल 1878 में हुआ। 14 साल की उम्र में ही उसने घर छोड़ दिया और नई जगहों को खोजने के जुनून में वह अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बन गया। उसने फ्रांसिसी टूरिस्ट यंगहसबैंड की मदद से अपनी कहानी ‘सर्वेंट ऑफ साहिब्स’ के नाम से किताब में लिखी थी।गुलाम रसूल ने इस पुस्तक के अध्याय ‘द फाइट ऑफ चाइनीज’ में बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में भी लिखा है। ‘सर्वेंट ऑफ साहिब्स’ के शुरुआती हिस्से में फ्रांसिस यंगहसबैंड ने लिखा, “हिमालय के लोग बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजरते हैं, और सबसे कुदरती जोखिम झेलते हैं, वे बाहर से आने वाले यात्रियों की सेवा करते हैं जिनके लिए उन्हें समझना आसान नहीं है।’
‘फॉरसेकिंग पैराडाइज’ किताब के मुताबिक गुलाम रसूल 15 महीने तक मध्य एशिया और तिब्बत की कठिन पैदल यात्रा के बाद 1885 में पहली बार लेह पहुंचा था। चूंकि गुलाम रसूल गलवान बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन टूरिस्ट के तौर पर काम करते हुए उसने अंग्रेज टूरिस्टों से बात करना सीख लिया था। इस दौरान वह कई भाषाएं बोलना सीख गया। वह लंबे समय तक मशहूर ब्रिटिश एक्सप्लोरर सर फ्रांसिस यंगहसबैंड के साथ रहा। 1899 में उसने लेह से ट्रैकिंग शुरू की और वह लद्दाख के आसपास गलवान घाटी और गलवान नदी समेत कई नए इलाकों तक पहुंचा। तभी से गुलाम रसूल गलवान के नाम पर इस घाटी को लोग पहचानने लगे। इसके पीछे कहा जाता है कि इस घाटी की तलाश गुलाम रसूल ने ही की थी। जम्मू-कश्मीर के पहले कमिश्नर सर वॉल्टर एस लॉरेंस अपनी किताब ‘द वैली ऑफ कश्मीर’ में लिखते हैं कि यहां गलवान लोगों को घोड़ों की देख-रेख करने वाला माना जाता था, इसलिए लोग उसे चरवाहे के रूप में भी जानते थे।