सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

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कोर्ट ने साफ किया कि संविधान पीठ को सौंपे जाने पर फैसला लिए जाने के बाद क़ानून पर अंतरिम रोक को लेकर फैसला लिया जाएगा।



नई दिल्ली, 31 जुलाई (हि.स.)। सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को संविधान पीठ को सौंपा जाए या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। कोर्ट ने साफ किया कि संविधान पीठ को सौंपे जाने पर फैसला लिए जाने के बाद क़ानून पर अंतरिम रोक को लेकर फैसला लिया जाएगा।

सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण को लेकर किये गए संविधान में संशोधन को लेकर दायर याचिकाओं पर मौजूदा तीन जजों की बेंच ही सुनवाई कर सकती है। इस मामले को सुनवाई के लिए संविधान पीठ गठित की जाए, ये जरूरी नहीं है। केंद्र सरकार ने कहा कि आरक्षण 50 फीसदी तक रखना संवैधानिक प्रावधान नहीं है। बस सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। केंद्र सरकार ने कहा कि तमिलनाडु में 68 फीसदी आरक्षण को हाई कोर्ट ने मंजूरी दी। उस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक नहीं लगाई। इसे लेकर ज़रूरी संविधान संशोधन के बाद बना कानून है। गरीबों को समानता का दर्जा दिलाने के लिए ये ज़रूरी कदम है। केंद्र ने कहा कि देश की अधिकांश आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है।

पिछली 30 जुलाई को सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता तहसीन पूनावाला की ओर से राजीव धवन ने कहा था कि केंद्र सरकार का ये फैसला संविधान के बुनियादी ढांचे और इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी रखने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। धवन ने मांग की थी कि सुप्रीम कोर्ट इस पर रोक लगाए, क्योंकि रेलवे पहले ही इस कोटे के लिहाज से भर्ती निकाल चुका है।अगर एक बार उसके मुताबिक भर्ती हो गई तो बाद में उसे पलटना संभव नहीं हो पायेगा।

पिछली 8 अप्रैल को कोर्ट ने इस कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा था कि रेलवे भी इसी आधार पर हजारों नियुक्तियां कर रहा है। इसलिए इस पर रोक लगाई जानी चाहिए। तब केंद्र की ओर से अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि इसके पहले भी दो बार कोर्ट इस कानून पर रोक लगाने से इनकार कर चुका है।

पिछली 12 मार्च को केंद्र सरकार ने हलफनामा दायर कर सामान्य वर्ग के आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को दस फीसदी आरक्षण दिए जाने का बचाव किया था। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि संशोधनों ने संविधान की मूल संरचना या सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले का उल्लंघन नहीं किया है।

11 मार्च को सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच से कहा था कि यह मामला संविधान के मूल ढांचे से जुड़ा हुआ है। इसलिए इस मामले पर संविधान बेंच को सुनवाई करनी चाहिए। तब कोर्ट ने कहा था कि अगर बड़ी बेंच को रेफर करने की जरूरत होगी तो हम भेजेंगे।

याचिका में कहा गया है कि इस फैसले से इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 50 फीसदी की अधिकतम आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। याचिका में कहा गया है कि संविधान का 103वां संशोधन संविधान की मूल भावना का उल्लघंन करता है। याचिका में कहा गया है कि आर्थिकमापदंड को आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता है। याचिका में इंदिरा साहनी के फैसले का जिक्र किया गया है जिसमें कहा गया है कि आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक मापदंड नहीं हो सकता है। याचिका में संविधान के 103वें संशोधन को निरस्त करने की मांग की गई है।

याचिका में कहा गया है कि संविधान संशोधन में आर्थिक रुप से आरक्षण का आधार केवल सामान्य वर्ग के लोगों के लिए है और ऐसा कर उस आरक्षण से एससी, एसटी और पिछड़े वर्ग के समुदाय के लोगों को बाहर रखा गया है। साथ ही आठ लाख के क्रीमी लेयर की सीमा रखकर संविधान की धारा 14 के बराबरी के अधिकार का उल्लंघन किया गया है।

याचिका में कहा गया है कि इंदिरा साहनी के फैसले के मुताबिक आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं की जा सकती है। वर्तमान में 49.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है जिसमें 15 फीसदी आरक्षण एससी समुदाय के लिए, 7.5 फीसदी एसटी समुदाय के लिए और 27 फीसदी ओबीसी समुदाय के लिए है।

 


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