लखनऊ, 03 जून उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन करीब-करीब टूट चुका है। बस घोषणा होने की औपचारिकता बाकी है। भाजपा के छोटे से लेकर बड़े नेता इस गठबंधन को बेमेल और केर-बेर का संबंध बता रहे थे। वे कह रहे थे कि यह गठबंधन तभी तक चलेगा जब तक चुनाव नतीजे नहीं आ जाते। उनके दावे सच हो रहे हैं और सपा-बसपा के उन नेताओं को मुंह की खानी पड़ी है जो इसे पवित्र और टिकाऊ गठबंधन करार दे रहे थे। मायावती की उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा क्षेत्रों में जल्द होने वाले उपचुनाव अकेले दम पर लड़ने के दावे के साथ ही यह तय हो गया है कि सपा-बसपा गठबंधन की उम्र पूरी हो गई है। साझ की सुई सेंगरे पर चलती है, यह लोक कहावत तो आम है लेकिन साझ निभाने वाले सुई ही तोड़ दें और उसे आधा-आधा अपने पास रख लें या निष्प्रयोज्य जानकर फेंक दें, ऐसा भी अक्सर होता है। मौजूदा घटनाक्रम तो इसी युगबोध का द्योतक है।
समाजवादी पार्टी में तो चुनाव नतीजे के बाद से यह चर्चा आम है कि बुआ ने बबुआ को ठग लिया है। मुलायम सिंह यादव ने तो गठबंधन के दौरान ही कह दिया था कि मायावती ने उनके बेटे को ठग लिया है। लेकिन जो अपने बड़ों की बात न माने और नकली रिश्तों पर यकीन करे, देर-सबेर उसका विश्वास तो टूटता ही है। मुलायम सिंह यादव के साथ जब मायावती ने साझा चुनावी रैली की थी तो अखिलेश यादव और डिंपल ने उनके पैर छुए थे लेकिन मायावती के भतीजे आकाश ने मुलायम सिंह यादव के पैर नहीं छुए थे। समझदार को इशारा काफी होता है। लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित राज्य अतिथि गृह कांड के बाद मायावती ने मुलायम परिवार की राजनीति खत्म करने का जो संकल्प जताया था, उसे पूरा करने का सही जरिया गठबंधन ही हो सकता था। मायावती ने मुलायम सिंह यादव को उनकी ही नजरों में गिरा दिया है। उनके परिवार के अधिकांश लोगों को अपने पैरों में झुका दिया है। 17वीं लोकसभा के चुनाव में मुलायम परिवार का बंटाधार हो चुका है। उनके परिवार के तीन सदस्य चुनाव हार चुके हैं। अखिलेश ने गठबंधन को लेकर भाजपा को मात देने का जो सपना देखा था, वह धराशायी हो चुका है। वे खुलकर कह भी नहीं पा रहे हैं कि इस चुनाव में उन्हें दलितों के वोट नहीं मिले। लेकिन मायावती इस मामले में जरा मुंहफट हैं। उन्होंने दिल्ली में आयोजित बसपा की बैठक में खुलकर कह दिया है कि यादवों ने उन्हें वोट नहीं दिया। जो लोग सपा और बसपा के पिछले चुनाव के मिले वोटों के प्रतिशत को जोड़कर उत्तर प्रदेश में भाजपा के राजनीतिक पराभव की उम्मीद पाले बैठे थे, उनके निराश होने की मूल वजह भी यही है कि बसपा के परंपरागत दलित वोट सपा को नहीं मिले और सपा के परंपरागत वोट बसपा को नहीं मिले। सीटों के बंटवारे में भी मायावती ने दूर की कौड़ी खेली। उन्होंने उन सीटों को बसपा के लिए चुना जहां दलित और मुस्लिम ज्यादा थे। सपा के हिस्से में वे सीटें आई्ं जहां दलित और यादव अधिक थे। यादवों में बहुत बड़ा वर्ग शिवपाल यादव से भी प्रभावित था। भाजपा ने भी इस बार मजबूत नेता उतारे थे। आजमगढ़ में तो अखिलेश यादव के समक्ष दिनेश यादव ‘निरहुआ’ को चुनाव मैदान में उतार दिया था। मतलब यादव भी बंट गए, मुस्लिम मतदाताओं का मत भी कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन के बीच बंट गया। दलितों ने साथ दिया नहीं। सो चुनाव तो हारना ही था। अखिलेश ने अपनी पत्नी और परिजनों से मायावती के पैर छुलवाकर भी यादवों की परोक्ष रूप से नाराजगी मोल ले ली थी। यादवों को यह बहुत बुरा लगा था। इसका खामियाजा अखिलेश यादव की पार्टी को भुगतना पड़ा। मतदान के ठीक बाद सोशल मीडिया पर इस आशय की खबर वायरल हुई थी जिसमें बसपा कोआर्डिनेटरों को निर्देश दिए गए थे कि सपा प्रत्याशियों को दलितों के वोट दिलाने की जरूरत नहीं है। हालांकि उस समय दोनों ही दलों के कुछ नेताओं ने इसे भाजपा की शरारत करार दिया था। लेकिन दिल्ली में हुई बसपा की बैठक के बाद दोनों दलों के रिश्ते में खटास जाहिर हो गई है। मायावती ने कहा है कि इस गठबंधन से यूपी में कोई फायदा नहीं हुआ। यादवों का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ है। उन्हें जाटों के वोट भी नहीं मिले। मायावती ने इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में कुछ दिनों में होने वाले 11 विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में अकेले लड़ने की भी घोषणा कर दी है। उन्होंने तो यह भी कहा है कि शिवपाल यादव ने यादवों का वोट काटा है। मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को नसीहत दी है कि अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। शिवपाल की घर वापसी करा लो। अगर ऐसा होता है तो इससे मायावती के सपने ध्वस्त हो जाएंगे। वह यादव परिवार की मजबूती तो देखना नहीं चाहेंगी। यही वजह है कि उन्होंने शिवपाल यादव पर यादवों के वोट काटने का आरोप लगाया है।
लोकसभा चुनाव से पहले सपा, बसपा और रालोद के बीच गठबंधन हुआ था। उस समय तीनों दलों ने यूपी में 50 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया था लेकिन नतीजे उम्मीदों के बिल्कुल उलट रहे। बसपा तो शून्य से दस सीटों पर पहुंच गई लेकिन सपा की स्थिति जस की तस रही। सिर्फ चेहरे बदल गए। रालोद के पास न पहले कोई सीट थी न अब मिली। भाजपा नीत एनडीए गठबंधन ने 64 सीटों पर जीत दर्ज की। लोकसभा चुनाव में बसपा ने 38, सपा ने 37 और आरएलडी ने 3 सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा था। गठबंधन ने अमेठी और रायबरेली की सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी थी। मायावती के तेवर संकेत दे रहे हैं कि जल्दी ही उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन टूट जाएगा। वैसे मायावती को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि मायावती लाभ की ही दोस्ती करती हैं। मतलब निकल जाने पर वे पहचानती भी नहीं। गठबंधन उनके लिए चुनावी बैतरणी पार करने का जरियाभर है। मुलायम सिंह यादव से उनका गठबंधन नहीं चला था। कल्याण सिंह से भी उनका छत्तीस का आंकड़ा था। समझौते के तहत मायावती ने खुद तो सरकार बना ली थी और जब कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने की बात आई तो वे गठबंधन से अलग हो गईं। रिश्तों की भी उनके लिए कोई अहमियत नहीं है। जिस तरह लोग आम चूसकर गुठली फेंक देते हैं, मायावती का गठबंधन के साथ कुछ वैसा ही सुलूक होता है। अब तक के उनके गठबंधनों का हस्र तो यही रहा है। इस गठबंधन के टूटने से भाजपा को थोड़ी राहत जरूर मिली है। सभी दल अपने-अपने दम पर लड़ेंगे तो जनता को भी नीर-क्षीर विवेक करने में आसानी होगी। अखिलेश यादव को इस चुनाव में जाती नुकसान हुआ है। उन्होंने जिसे बुआ बनाया, उसका व्यवहार ऐसा होगा, इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं होगी। अब अखिलेश यादव को आत्ममंथन करना होगा। बिछुड़ गए अपनों को एक करना होगा तभी वे भविष्य की जंग जीत पाने में सफल हो पाएंगे।