शनिवार को दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। सही मायनों में वह दिल्ली की शिल्पी थीं। आधुनिक दिल्ली के विकास में उनके योगदान हमेशा याद किये जाएंगे। चाहे दिल्ली में फ्लाईओवरों का जाल हो, प्रदूषण रोकने के लिए सीएनजी की सुविधा अथवा दिल्ली की लाइफलाइन कही जानेवाली मेट्रो, सब शीला की ही देन हैं। उनके निधन की खबर सुनते ही न सिर्फ परिजन और पार्टी बल्कि उनसे जुड़ा हर इंसान बहुत दुखी दिखा। वह पार्टी ही नहीं, विपक्ष के लोगों में भी उतनी ही लोकप्रिय थीं। तभी तो दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी कहते हैं कि ‘मैं उनसे बेटे की तरह सवाल पूछता था और वह मां की तरह जवाब देती थीं।’ शालीनता, धैर्य, विश्वास व आत्मविश्वास उनका सबसे बड़ा गहना था। जिसकी वजह से उनकी पारिवारिक या राजनीतिक जिंदगी में कभी बौखलाहट नहीं देखी गई। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या हो उसे आराम से समझकर वह उसका हल निकाल दिया करती थीं।
शीला दीक्षित का जीवन कई राज्यों में बीता। उनका जन्म पंजाब के कपूरथला में 31 मार्च 1938 को हुआ था। लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई। दिल्ली के जीसस एंड मैरी स्कूल से उन्होंने शुरुआती शिक्षा ली। इसके बाद मिरांडा हाउस से उन्होंने मास्टर्स ऑफ आर्ट्स की डिग्री हासिल की थी। शीला दीक्षित युवावस्था से ही राजनीति में रुचि लेने लगी थीं। उनकी शादी उन्नाव (उत्तरप्रदेश) के रहने वाले कांग्रेस नेता उमाशंकर दीक्षित के आईएएस बेटे विनोद दीक्षित से हुई। विनोद से उनकी मुलाकात दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास की पढ़ाई करने के दौरान हुई थी। विनोद शादी के बाद आईएएस बने थे। 80 के दशक में एक रोज ट्रेन में सफर के दौरान विनोद दीक्षित की हार्ट अटैक से मौत हो गई। उमाशंकर दीक्षित कांग्रेस के बड़े नेता थे। उन्होंने शीला के राजनीतिक रुझान को भांप लिया था। इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का मन बना लिया था। एक दिन उमाशंकर जी ने शीला के समक्ष लोकसभा का चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया। अचानक मिले इस ऑफर से शीला हिचकिचाईं लेकिन उमाशंकर जी ने साफ किया कि ‘चुनाव न लड़ने का विकल्प नहीं है, सिर्फ संसदीय क्षेत्र चुनने का विकल्प है।’ ससुर की सलाह पर शीला पहली बार 1984 में कन्नौज संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ीं और जीतीं। फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह राजीव गांधी सरकार में संसदीय कार्य मंत्री भी रहीं। शीला दीक्षित जल्द ही गांधी परिवार के भरोसेमंद साथियों में शुमार हो गईं। वह 1998 से 2013 तक लगातार 15 वर्ष दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। 2013 में चुनाव हारने के तुरंत बाद उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया। लेकिन वह तो उम्रभर राजनीति में सक्रिय रहना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने 25 अगस्त 2014 को राज्यपाल पद से इस्तीफा दे दिया। उन्हें दिल्ली से असीम लगाव था। निधन होने तक वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। कांग्रेस के इस्तीफा दे चुके अध्यक्ष राहुल गांधी ने शीला दीक्षित को कांग्रेस की बेटी कहा है। शीला सचमुच कांग्रेस की बेटी थीं। उन्होंने हमेशा कांग्रेस का भला चाहा।
राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी ने भी शीला पर विश्वास जताया। 1998 में उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। तब भी कांग्रेस बड़े संकट से जूझ रही थी। कांग्रेस के टिकट पर वह पूर्वी दिल्ली से चुनाव मैदान में उतरीं, लेकिन बीजेपी के लाल बिहारी तिवारी ने उन्हें हरा दिया। बाद में उन्होंने दिल्ली की जनता की नब्ज को पकड़ा और दिल्ली विधानसभा चुनावों में उन्होंने जोरदार जीत हासिल की। वह मुख्यमंत्री बन गईं। यह कांग्रेस का सबसे शानदार कमबैक था। इसके बाद उनका कार्यकाल लगातार बेहतर रहा। मुख्यमंत्री के रुप में उन्होंने तीन कार्यकाल पूरे किए। सभी पार्टियों के नेता और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ट्वीट करके यह बात स्वीकारी कि शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली में सबसे ज्यादा काम हुआ व हाईटैक बनी। दिल्ली में फ्लाईओवर, मेट्रो रेल, बीआरटी कॉरिडोर,सिग्नेचर ब्रिज के अलावा उन्होंने तमाम ऐसी सौगात दी जिससे दिल्ली विश्व की सबसे हाईटैक शहर के रूप में पहचानी जाने लगी। उनके कार्यकाल में प्रदूषण भी सबसे अहम मुद्दा बना रहा, जिस पर अच्छा काम किया गया। प्रदूषण नियंत्रण करने के चक्कर में उनकी अपनी पार्टी में लोग विरोध करने लगे थे क्योंकि उन्होंने सबसे ज्यादा फैक्ट्रियों से निकलने वाले हर तरह के प्रदूषण पर शिकंजा कस दिया था। रिहायशी इलाकों से फैक्ट्री शिफ्ट कराकर दिल्ली के सभी बॉर्डर पर लगाने में उन्होंने सबसे बड़ा योगदान दिया था। रिहायशी व फैक्ट्री का वर्गीकरण सबसे बेहतर कदम माना गया था। दिल्ली की जनता के स्वास्थ के लिए उन्होंने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनके प्रस्ताव कभी भी विफल नहीं हुए क्योंकि वो किसी भी बात की प्रस्तुतिकरण तथ्यों के साथ देती थीं। हर घटना को लेकर रिसर्च अच्छा होता था।
बहरहाल, समय बदला व 2013 में उन्हें आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के हाथों शिकस्त मिली। कांग्रेस पराजित हो गई थी। बहुमत किसी को नहीं मिला था। आम आदमी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनी, भाजपा दूसरे और कांग्रेस तीसरे पायदान पर खिसक गई थी। लेकिन शीला दीक्षित ने हार नहीं मानी। केजरीवाल विकास के बड़े-बड़े वादे कर रहे थे। शीला भी दिल्ली का विकास चाहती थीं। इसलिए उन्होंने केजरीवाल सरकार को बिना शर्त समर्थन दे दिया, वह भी तब जब केजरीवाल खुलेआम कहते थे कि भ्रष्टाचार के मामलों में शीला को जेल भेजेंगे। शीला जानती थीं कि उनका दामन पाक-साफ है। इसलिए वह तनिक भी नहीं घबराईं। बाद के दिनों में दिल्ली के लोगों ने देखा कि केजरीवाल जब शीला से मिले तो उनके पैरों में गिर पड़े।
इस बार के लोकसभा चुनावों में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो जाए। लेकिन शीला दीक्षित ने इसका खुलकर विरोध किया और आखिरकार उनकी ही मानी गई थी। उनकी कार्यशैली में कहीं भी गिरकर या झुककर जीना या निर्णय लेना नहीं दिखा। सबसे अहम बात यह थी कि उन्होंने इतने लंबे समय राजनीति की लेकिन अपने भाषण में कभी किसी की बुराई नहीं की।
नि:संदेह शीला का व्यक्तित्व विराट था। वह पक्ष-विपक्ष दोनों में बराबर लोकप्रिय थीं। तभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके निधन पर कहा कि दिल्ली के विकास में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वह राजनीति में सचमुच अजातशत्रु थीं। दिल्ली की जनता उन्हें हमेशा याद रखेगी।