वैज्ञानिकों ने शुरू किया जानलेवा कोरोना वायरस का ‘कल्चर’

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नई दिल्ली, 02 जून (हि.स.)। देश में बड़े पैमाने पर कोविड-19 के प्रकोप को देखते हुए वैज्ञानिकों ने नोवेल कोरोना वायरस का लैब में कल्चर (संवर्धन) करके उसकी संख्या बढ़ाने की कोशिशों में जुट गए हैं। हैदराबाद स्थित प्रयोगशाला आणविक जीवविज्ञान केन्द्र (सीसीएमबी) के वैज्ञानिकों द्वारा मरीजों के नमूने से कोविड-19 के लिए जिम्मेदार कोरोना वायरस के स्थिर संवर्धन (कल्चर) करने से लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस वायरस को कल्चर करने के क्या संभावित फायदे हो सकते हैं?
वास्तव में वायरल कल्चर एक प्रयोगशाला तकनीक है जिसमें वायरस के नमूनों को अलग-अलग सेल लाइनों में परखा जाता है। वायरल कल्चर के लिए जीवित कोशिकाओं की आवश्यकता पड़ती है। वैज्ञानिक जब वायरस कल्चर करते हैं तो यह स्थिर होना चाहिए। इसका अर्थ है कि वायरस संवर्धन निरंतर होते रहना चाहिए। इसीलिए इसे स्थिर संवर्धन कहा गया है। नोवेल कोरोना वायरस एसीई-2 नामक रिसेप्टर प्रोटीन के साथ मिलकर मानव के श्वसन मार्ग में एपीथीलियल कोशिकाओं को संक्रमित करता है। श्वसन मार्ग में एपीथीलियल कोशिकाएं प्रचुरता से एसीई-2 रिसेप्टर प्रोटीन को व्यक्त करती हैं जिससे इस वायरस से संक्रमित मरीजों में श्वसन रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
नोवेल कोरोना वायरस को संवर्धित कर रहे वैज्ञानिकों को कभी न खत्म होने वाली सेल लाइनों की जरूरत पड़ती है। इसीलिए वैज्ञानिक विरो सेल का प्रयोग करते हैं जो अफ्रीकी बंदर के गुर्दे की एपीथीलियल कोशिका लाइनों से प्राप्त होते हैं और जो एसीई-2 प्रोटीन को व्यक्त करते हैं। इसके साथ ही ये कोशिका विभाजन भी करते हैं जिससे वे लंबे समय तक वृद्धि कर सकते हैं। सीसीएमबी के वैज्ञानिकों के अनुसार कोरोना वायरस संवर्धन के कुछ संभावित उपयोग इस प्रकार हो सकते हैं। इसके तहत टीके का विकास, एंटीबाडी या एंटी-डाट्स, एंटीबाडी (प्रतिरक्षी) का परीक्षण, दवाओं की स्क्रीनिंग, कीटाणुनाशकों का परीक्षण और उपकरणों का परीक्षण आदि प्रमुख हैं।

 


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