कोई मरने से बचा ले इन बेबस मजदूरों को
आर.के. सिन्हा
कोरोना काल की मौजूदा विपत्ति ने देश के लाखों-करोड़ों बेबस-असहाय गरीब प्रवासी मजदूरों को सच में सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया है। वे भूखे-प्यासे बीबी-बच्चों सहित सड़कों पर हैं। हादसों में मारे जा रहे हैं। अबतक करीब चार सौ प्रवासी मजदूरों के हादसों के शिकार होने की खबरें हैं। ताजा घटना सहारनपुर-मुज़फ्फरनगर राजमार्ग पर हुई जिसमें पंजाब से पैदल अपने घर बिहार स्थित गोपालगंज जाते प्रवासी श्रमवीरों को तेजी से आती हुई रोडवेज की बस ने पीछे से टक्कर मरकर बुरी तरह कुचल दिया, जिससे कम से कम छह मजदूरों की मौत हो गई और अनेकों अस्पताल में हैं।
भारत से कैरिबियाई टापुओं और अफ्रीकी देशों में ले जाए गए मजदूरों के संघर्ष, यंत्रणा और बाद में उनके उत्थान और शिखर छूने की कई कहानियां देश और पूरा विश्व सुनता रहा है। लेकिन, अपने ही देश में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा से हरेक संवेदनशील भारतीय दुखी है। हालांकि केन्द्र और राज्य सरकारें मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने का भरसक यत्न कर रही हैं। पर लगता है कि किसी स्तर पर अब भी अनेकों कमियां-खामियां बची हैं। अब देखिए कि मध्य प्रदेश के गुना के पास एक सड़क दुर्घटना में उत्तर प्रदेश के 8 मजदूर मारे गए हैं। 50 से ज्यादा घायल हैं। वे सब एक ट्रालर में बैठकर घर लौट रहे थे। घायलों में कुछ की हालत अभी भी नाजुक है।
इससे पहले बीते दिनों महाराष्ट्र के औरंगाबाद में बदनापुर-करमाड रेलवे स्टेशन के पास मालगाड़ी से कटकर जान गंवाने वाले 16 प्रवासी मजदूरों की मौत की खबर से पूरा देश दहल गया था। अब उस घटना के कारणों की जांच हो रही है। उसके होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है। हादसे में मारे गए मजदूर मध्य प्रदेश के रहने वाले थे। मजदूर जालना में एक कंपनी में काम कर रहे थे। लॉकडाउन की वजह से मजदूर यहीं फंसे रह गए थे। 5 मई को मजदूरों ने घर लौटने के बारे में सोचा क्योंकि उन्हें जहां काम करते थे, वहां से हटा दिया गया था। कुछ दूर सड़क मार्ग से चलने के बाद मजदूरों ने औरंगाबाद के पास रेलवे ट्रैक के साथ चलना शुरू कर दिया। ये करीब 40 किलोमीटर पैदल चलने के बाद थोड़ा आराम के लिए रुके थे। थकने की वजह से रेलवे पटरी पर ही आराम करने लगे। उन्हें झपकी-सी आ गई और ट्रेन उनके ऊपर से आगे निकल गई।
कहने को तो गुना, औरंगाबाद मुज़फ्फरनगर और दूसरी अनेक घटनाएं हादसा ही हैं, लेकिन सरकारों को इसकी नैतिक जिम्मेदारी तो लेनी ही होगी। उन्हें बताना होगा कि ये हादसे क्यों हुए? उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास भीषण सड़क हादसे के शिकार 7 मजदूर मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के थे। ये किसी तरह टेम्पो में भरकर लौट रहे थे कि रास्ते में ट्रक ने टक्कर मार दी। इसके पहले एक ट्रक की छत पर सवार झारखंड के दो प्रवासी मजदूरों की दुर्घटना में मौत हो गई। इसी तरह उड़ीसा में मजदूरों को ला रही एक बस तेलंगाना में दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें कई श्रमवीर मारे गए। ग्रेटर नॉएडा में पंजाब से आगरा लौट रहे एक श्रमवीर ने भूख और गर्मी से सड़क पर ही दम तोड़ दिया।
एक बड़ा सवाल यह भी है कि सरकारें और उनके विभागों से जुड़े अफसर और दूसरे मुलाजिम क्यों नहीं मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने में मदद कर पा रहे हैं? यह ठीक है कि सरकारी कर्मियों ने कोरोना वारियर्स की भूमिका को बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया है। सारा देश इस सच्चाई से वाकिफ है। पर काफिलों में अपने घरों की तरफ बढ़ रहे मजदूरों का हादसों में मारा जाना दुखद तो है ही, उससे सरकारी तंत्र की कलई भी खुल रही है। क्या इन मजदूरों को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया जाए? आखिर मजदूर सड़कों पर निकले ही क्यों? क्या यह उन राज्य सरकारों की अक्षमता, लापरवाही और इन श्रमवीरों के प्रति संवेदनहीनता को नहीं दर्शाता जहाँ से वे अपने गावों की ओर चल पड़े।
अगर बात भारत की 2011 में हुई जनगणना की करें तो तब देश में करीब 6 करोड़ प्रवासी मजदूर थे। यह संख्या अब काफी बढ़ चुकी होगी। इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों में 2 करोड़ प्रवासी मजदूर अकेले उत्तर प्रदेश और बिहार के ही हैं। कोरोना के बाद लगे लॉकडाउन के बाद से इनका वापस अपने राज्यों, शहरों, गांवों में जाने का सिलसिला शुरू हुआ जो अबतक जारी है। ये सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे हैं। उनके पैरों में छाले पड़ गए हैं। इनके साथ इनकी पत्नी और बच्चे भी हैं। कई गर्भवती महिलाओं ने सड़कों पर ही बच्चे को जन्म भी दिया और कुछ घंटे विश्राम के बाद नवजात शिशु को गोद में ले कर घर वापसी की यात्रा पर फिर चल पड़ी। इन्हें देखकर हर हिन्दुस्तानी का सिर शर्म से झुक जाता है। आखिर यह देश बीते 70 सालों में क्या बना? देश ने इस दौरान कैसा विकास किया? हो सकता है कि देश में एक बड़ा मिडिल और अपर मिडिल क्लास खड़ा हो गया हो। कुछ लोग करोड़पति और अरबपति भी हो गये हों। पर देश के गरीबों के हालात अभी भी नहीं सुधरे। उसके पास आज खाने को कुछ नहीं है। वह तो दाने-दाने को मोहताज है। देश ने आखिर पिछले सत्तर सालों में अपने गरीबों को हक देने के संबंध में कुछ क्यों नहीं सोचा। इन वक्त के मारे मजदूरों के बच्चों और औरतों की मुसीबतों की कहानियां बयां करना भी आसान नहीं है। जरा सोचिए कि इनके बच्चों को सुबह-शाम दूध कौन दे रहा होगा। इन प्रवासी मजदूरों की औरतों के बारे में भी सोचिए। ये सुबह नहाने-धोने के लिए कहां जाती होंगी? इनमें से बहुत-सी महिलाओं का मासिक धर्म भी चल रहा होगा। इन्हें सेनेटरी पैड कहां से मिल रहे होंगे? इन मजदूरों के ट्रक में कूदकर चढ़ने वाली तस्वीरों को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है।
अब इन प्रवासी मजदूरों से हटकर शहरों-महानगरों के घरों में काम करने वाली घरेलू औरतों के बारे में भी जरा सोचें। ये कुछ घरों का चूल्हा-चौका करके अपनी गृहस्थी की गाड़ी को चलाती हैं। आमतौर पर इनके पति शराब की लत के शिकार होते जा रहे हैं। यानी इनकी मेहनत के बल पर इनका घर चलता है। पर आजकल इन्हें इनके मालिकों के घरों में आने नहीं दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि ये जिधर जाएंगी वहां कोविड-19 का संक्रमण फैला देंगी। इनके सामने भी भुखमरी का भयंकर संकट है। सरकारों को इन घरेलू कामगार औरतों के संबंध में भी विचार करना होगा। इन्हें तुरंत राशन और राहत चाहिए। ये सब किराए के घरों में रहती हैं। समझ नहीं आ रहा है कि ये घरों का किराया कैसे दे पाएंगी? देश के महानगरों में लाखों कामगार घरेलू औरतें रहती हैं। इन्हीं के दम पर कार्यशील महिलाएं अपने घरों को छोड़कर दफ्तर जाती हैं। यह तो साफ है कि कोविड-19 ने सबके सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। इस चुनौतीपूर्ण समय में सरकार और प्रशासन को तो आगे आना होगा।
एक बड़ी समस्या सरकारी अधिकारियों के संवेदनहीन रवैये के कारण भी है। इन मजदूरों या सामान्य नागरिकों के साथ पशुवत व्यवहार करने से बाज नहीं आते। कुछ दिन पहले बिहार में एक जिला कृषि पदाधिकारी ने होमगार्ड के जवान से सड़क पर कान पकड़कर उठक-बैठक लगवाई। वीडियो वायरल हुई तो उन्हें निलंबित किया गया। कल ही प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश का एक अधिकारी एक प्रवासी मजदूर को लात मारता दिखा। ऐसे नालायक और अमानवीय अधिकारी आपको सभी जगह मिलेंगे। इनका सही ढंग से इलाज किये बिना गरीबों का कल्याण कैसे होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)