बिहार में मिथिला की संस्कृति को जीवंत करने वाला लोक उत्सव ”सामा-चकेवा” शुरू

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बेगूसराय, 12 नवंबर (हि.स.)। सूर्योपासना का महापर्व छठ संपन्न होते ही गुरुवार की रात से मिथिला के लोक संस्कृति का लोक उत्सव ”सामा-चकेवा” शुरू हो गया। आठ दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व का समापन कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में होगा। विभिन्न लोक उत्सव और लोक कला को अपने मिट्टी से जीवंत करने वाले मिथिला की हर गलियां सामा-चकेवा को लेकर मैथिली गीतों से गुंजायमान हो गई है। हर गली में सुनाई दे रही है ”सामा खेले चलली भौजी संग सहेली, जुग जुग जियो हो, हो भैया जिओ हो।” बदलते परिवेश के बाद सामा-चकेवा खेलने वालों की संख्या में कमी आई है, इसके बावजूूद लोगों का उत्साह चरम पर है। भाई-बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोक उत्सव मिथिला की संस्कृति के समृद्धता और कला का एक अभिन्न अंग है, जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त बाधाओं को तोड़ता भी है।

लोक पर्व के पहले दिन गुरुवार की रात महिलाओं और युवतियों ने बांस से बने दउरा (डाला) में सजाकर रखे गए सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां, टिहुली, कचबचिया, चिरौंत, हंस, सतभैंया, चुगला, वृंदावन सहित अन्य मूर्ति को ओस चाटने के लिए घर के बाहर गीत गाते हुए छोड़़ा तो गलियां झूूम उठी। प्रत्येक दिन सभी मूर्तियों को रात के समय ओस में छोड़ा जाएगा तथा युवती और महिलाएं एक-दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली करती लगातार आठ दिनों तक सामा खेलेंगी। इस दौरान आंगन में जहां समदाउन, ब्राह्मण एवं गोसाउन गीत तथा भजन गूंज रहा है। वहीं, सामा खेलने के दौरान भाई के प्रेम और ननद-भाभी की हंसी ठिठोली मिथिला की माटी को एक नई खुशबू दे रही है। उत्सव के अंतिम दिन कार्तिक पूर्णिमा की रात सभी समदाउन गाते हुए विसर्जन के लिए समूह में घर से निकलेगी और नदी, तालाब के किनारे अथवा खेत में चुगला के मुंह में आग लगा वृंदावन से बुझाकर सामा-चकेवा सहित अन्य मूर्ति को अगले साल आने की कामना के साथ विसर्जित कर दिया जाएगा। मिथिलांचल के मनमोहक पावन संस्कृति की याद ताजा करती सामा-चकेवा की कहानी श्रीकृष्ण काल से जुड़ी हुई है और तभी से बहनों द्वारा भाई के दीर्घायु होने की कामना के लिए मनाया जाता है।


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