पटना,31 मई(हि.स.)।शेयर मार्केट की तरह देश की राजनीति में भी उतार-चढ़ाव का दौर चलता रहता है। कोई चमका है तो कोई पूरी तरह धराशायी हो जाता है। बिहार में लोकसभा चुनाव के परिणाम और सीट शेयरिंग में भी कुछ ऐसा ही देखा गया। बिहार में एनडीए की भारी मतों से जीत के बाद भी भाजपा, जदयू और लोजपा को कैबिनेट में उतनी तरजीह नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। हालांकि भाजपा और लोजपा ने तो अपनी जगह बना ली लेकिन जदयू को केन्द्रीय कैबिनेट में जगह बनाने के लिए थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कैबिनेट में बिहार के छह मंत्रियों को जगह देकर सभी वर्गों को साधने की कोशिश की लेकिन लोजपा से कई अधिक सीट और भाजपा से एक सीट कम पाने वाले जदयू को एक भी सीट नहीं मिली जबकि इस बार के लोकसभा चुनाव में जदयू ने लोजपा को छह सीट पर जीत दिलाने में पूरा सहयोग किया।
इस लोकसभा चुनाव में लोजपा की धमक हर तरह से रही। कम सीट जीतकर उसने कैबिनेट में जगह बनायी। लोजपा की स्थिति बिहार में एक मजबूत दल के रुप में उभरी तो राजद जमीनदोज हो गया। चुनाव में भाजपा और जदयू की बढ़त तो बनी ही लेकिन लोजपा को सबसे अधिक फायदा हुआ। महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी राजद को बिहार में ऐसी नाकामयाबी पहली बार मिली है।
2005 के विधानसभा चुनाव में राजद ने 74 और 2010 के चुनाव मे सिर्फ 22 सीटों पर सिमट जाने वाले राजद को 2015 के विधानसभा चुनाव में बड़ी सफलता मिली थी। जदयू-कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ते हुए उसने 243 में 80 सीटें अकेले अपने खाते में लीं थीं। तीनों ने मिलकर 178 सीटें झटक ली थी लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में स्थितियां बदलीं और ठीक इसके विपरीत गठबंधन का हिस्सा रहने वाली लोजपा की किस्मत इस बार बदल गयी। लोकसभा चुनाव में एनडीए में जदयू के जुड़ने का सर्वाधिक फायदा लोजपा को हुआ। लोजपा की कुल छह में तीन सीटें समस्तीपुर, खगड़िया, और जमुई में इसका असर विशेष रुप से दिखा। 2014 के आम चुनाव में जदयू को इन सीटों पर जो वोट मिले थे उसका बड़ा हिस्सा लोजपा के साथ जुड़ा और परिणाम का अंतर शानदार तरीके से बदल गया।
समस्तीपुर सीट में गठबंधन की वजह से लोजपा की तस्वीर बदल गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र पासवान को सफलता मिली थी लेकिन वह हारते-हारते बच गये थे। उन्हें 2.73 लाख वोट मिले थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी रहे कांग्रेस के डाॅ. अशोक राम को 2.63 लाख वोट मिले थे। इस बार रामचंद्र पासवान को जीत ही 2.51 लाख वोट से मिली है।
खगड़िया में पिछली बार लोजपा प्रत्याशी महबूब अली कैसर मात्र 76003 मतों से जीते थे। उनकी प्रतिद्वंद्वी राजद की कृष्णा यादव थीं लेकिन तीसरे स्थान पर रहे जदयू के दिनेश चंद्र यादव को दो लाख से अधिक वोट मिले थे। कैसर को 313806 वोट मिले थे और दिनेश को 2.20 लाख वोट। इस बार स्थिति यह रही कि कैसर 2.48 लाख वोट से चुनाव जीत गये। इस सीट पर जदयू की हिस्सेदारी को नकारा नहीं जा सकता।
लोकसभा चुनाव 2019 में नवादा में लोजपा उम्मीदवार को भाजपा और जदयू दोनों का सपोर्ट मिला। यहां लोजपा उम्मीदवार की जीत का जो अंतर बढ़ा है उसमें भी जदयू की चर्चा है। 2014 के चुनाव में जदयू उम्मीदवार कौशल यादव को यहां 1.68 लाख वोट मिले थे और भाजपा के गिरिराज सिंह नवादा से कुल 1.40 लाख वोट से जीते थे। इस बार लोजपा के चंदन सिंह को 1.48 लाख से जीत मिली है।
वैशाली में भी जीत के बड़े अंतर में गठबंधन की भूमिका दिखी। वैशाली में लोकसभा चुनाव 2014 में लोजपा उम्मीदवार रामकिशोर सिंह को मात्र 99267 मातों से जीत हासिल हुई थी। तब रामकिशोर सिंह को 305450 वोट मिले थे। राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह 206183 मतों के साथ उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी जरुर थे पर तीसरे स्थान पर रहे जदयू प्रत्याशी विजय कुमार शुक्ला को 1.44 लाख वोट मिले थे। इस बार लोजपा उम्मीदवार वीणा देवी को 2.34 लाख वोट मिला है।
जमुई में जीत का अंतर 85 हजार से 2.41 लाख पर पहुंच गया। लोजपा केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने 2014 का चुनाव जमुई से जीता था। उस समय जदयू एनडीए का हिस्सा नहीं था। जदयू ने जमुई से उदय नारायण चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया। 2014 के आम चुनाव में चिराग को जीत मात्र 85947 वोट से मिली थी। उस समय उन्हें 285354 वोट मिले थे जबकि जदयू प्रत्याशी को तब 198599 मत मिले थे। इस बार चिराग 241049 वोट से जीते है। यह साफ है कि जदयू का वोट पूरी तरह से चिराग को स्थानांतरित हुआ।
हाजीपुर सीट पर कुछ खास असर नहीं था। हाजीपुर सीट पर 2014 के आम चुनाव में जदयू के रामसुंदर दास को 95790 वोट मिले थे। लोजपा से लड़ रहे रामविलास पासवान को तब 2.25 लाख से जीत मिली थी और इस बार उनके भाई पशुपति पारस को 2.05 लाख से जीत मिली है।