”दिनकर” बनने के लिए नहीं मिलता था नाव तो गंगा में तैरकर स्कूल जाया करते थे ”रामधारी”
बेगूसराय, 22 सितम्बर (हि.स.)। बिहार कि सांस्कृतिक, साहित्यिक और औद्योगिक राजधानी बेगूसराय ने अपनी उर्वर भूमि पर एक से एक विभूति को पैदा किया है, जो बीते और वर्तमान काल खंड में ही नहीं, भविष्य में भी सदैव याद किए जाते रहेंगे।
वैसे ही विभूतियों में एक हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर। 23 सितम्बर 1908 को मुंगेर जिला (अब बेगूसराय) के सिमरिया गांव में मनरूप देवी एवं रवि सिंह के घर द्वितीय पुत्र के रूप में पैदा हुए रामधारी के बारे में किसी को कहां पता था कि यह कभी राष्ट्रीय फलक पर ध्रुवतारा सा चमकते हुए दिनकर बन जाएगा। दिनकर की प्रारंभिक शिक्षा उनके घर गांव सिमरिया तथा बारो स्कूल से शुरू हुआ। लेकिन उच्च विद्यालय की पढ़ाई करने के लिए 15 किलोमीटर पैदल चलकर गंगा के पार मोकामा उच्च विद्यालय जाना होता था। कभी तैरकर तो कभी नाव से गंगा नदी पार कर जाने की मजबूरी थी, लेकिन स्कूल जाते रोज थे।
1928 में मोकामा उच्च विद्यालय से प्रवेशिका (मैट्रिक) पास करने बाद इनका नामांकन पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज पटना में इतिहास विभाग में हो गया। 1932 में वहां से इतिहास में ऑनर्स (प्रतिष्ठा) की डिग्री हासिल कर, 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर तैनात हुए। सरकारी सेवा में रहने के बाद भी कभी नाम बदलकर तो कभी अपने नाम से, अपनी रचनाओंं के माध्यम से जोश भरने के कारण लगातार स्थानांतरण का दंश भी झेलना पड़ा। एक साल में ही वहां से हटाकर दिनकर को निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे।
संविधान बनने के बाद जब प्रथम निर्वाचन हुआ तो तेजस्वी वाणी, प्रेरक कविता एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण दिनकर को कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिया गया। पहली बार 1952 से 1958 तक तथा इसके बाद 1958 से 1963 तक दूसरी बार राज्यसभा के सदस्य रहे। 1962 में लोकसभा का चुनाव हारने वाले ललित नारायण मिश्रा ने जब अपने लिए उनसे इस्तीफा देने का अनुरोध किया था तो बगैर सोचे समझे राज्यसभा सदस्य पद से इस्तीफा देे दिया। 1963 से 1965 तक बेमन से ही सही, लेकिन भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद रामधारी सिंह दिनकर को 1965 से लेकर जून 1971 तक (सेवानिवृत्त होने तक) भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा। 1959 में उन्हें अपने अनमोल कीर्ति ”संस्कृति के चार अध्याय” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1959 में ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से उन्होंने पद्मभूषण प्राप्त किया था। भागलपुर विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसैन (बाद में भारत के राष्ट्रपति बने) से साहित्य के डॉक्टर का सम्मान मिला।
गुरुकुल महाविद्यालय द्वारा विद्याशास्त्री के रूप में अभिषेक मिला। आठ नवंबर 1968 को दिनकर को साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर में सम्मानित किया गया। 1972 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से सदा अमर रहने वाले राष्ट्रकवि द्वारा द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित प्रबन्ध काव्य ”कुरुक्षेत्र” को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 स्थान दिया गया है। 1972 का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिनकर के जीवन में एक नई आशा का संचार लाया। लेकिन 24 अप्रैल 1974 की शाम गंगा की गोद में उत्पन्न दिनकर के अस्ताचल जाने की शाम थी। उसी रात राष्ट्रकवि ने तिरुपति बालाजी से लौटने के दौरान मद्रास में अंतिम सांसे ली। राष्ट्रकवि और दिनकर की उपाधि से विभूषित रामधारी सिंह गांव में पैदा हुए और सदा जमीन से जुड़े रहे। जीवन भर संघर्ष करते हुए राष्ट्र की भावना को निरंतर सशक्त भाषा में अभिव्यक्त कर अपनी अद्वितीय रचनाओं के कारण हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर हो गए।