भाजपा के लिए नीतीश कुमार अब अपरिहार्य नहीं रहे !

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क्या भाजपा 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव मैदान में अकेले ही जायेगी? 



 पटना, 31 मई (हि.स.). प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार को महज एक सीट दे कर साफ़ कर दिया है कि भाजपा के लिए नीतीश कुमार अब अपरिहार्य नहीं हैं. 303 का आंकड़ा छू चुकी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने मंत्रिमंडल गठन के बहाने संकेत देने की कोशिश की है कि भाजपा बिहार में 2020 में अकेले ही विधानसभा के चुनाव में मैदान में जायेगी. हालांकि मंत्रिमंडल में केवल एक सीट मिलने से नाराज़ नीतीश कुमार ने इसे ठुकरा दिया है और साथ ही यह कह कर कि जदयू नरेंद्र मोदी की सरकार में आगे भी शामिल नहीं होगा, उन्होंने भी कुछ संकेत देने की कोशिश की है. नीतीश कुमार फिलहाल तो चुप हैं और राजग के साथ बने रहने की बात कह रहे हैं. खुद को अपने समर्थकों के माध्यम से “पीएम” मटेरियल के रूप में प्रोजेक्ट करनेवाले नीतीश कुमार को अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पकड़ मज़बूत रखने के लिए बदली परिस्थिति में कुछ विकल्प तैयार करना होगा. दरअसल भाजपा जिस मजबूती के साथ इस चुनाव में पूरे देश में उभर कर आई है उससे नीतीश कुमार की कुर्सी पर ख़तरा हो सकता है. इस खतरे को नीतीश कुमार ने भी भांप लिया है और बड़े ही नपे तुले अंदाज़ में अपनी पीड़ा व्यक्त की है. लोकसभा के चुनाव में सवर्णों की नाराजगी झेल चुकी भाजपा उन्हें अपने साथ जोड़े रखने के लिए मंत्रिमंडल के गठन में सवर्ण कार्ड खेला है. अपनी पार्टी के कोटे से इसने पांच में से चार अगड़ी जाति के लोगों को मौक़ा दिया है.
  भाजपा के अंदरखाने से मिल रही जानकारी के मुताबिक़ बिहार में पार्टी का अध्यक्ष भी किसी सवर्ण को ही बनाया जा सकता है. दरअसल नीतीश कुमार भी इसी सवर्ण को अपनी तरफ करने की जुगत में थे और अपने भरोसेमंद तथा करीबी राजीव रंजन उर्फ़ ललन सिंह को मोदी के मंत्रिमंडल में स्थान दिलाने की तैयारी में थे , किन्तु उनका पासा नहीं चल सका. बिहार विधानसभा में संख्याबल के हिसाब से भाजपा के साथ मिल कर यहाँ सरकार बनाए रखना और चलाना फिलहाल उनकी मजबूरी है. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में बहुमत के लिए 122 सीटों की आवश्यकता है . मुख्य राजनीतिक पार्टियों में से राष्ट्रीय जनता दल ( राजद ) के पास 80 सीटें हैं , जद ( यू) के पास 71, भाजपा के पास 53 और कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं. इतिहास गवाह है जब भी कुछ ऐसा हुआ, जोड़ – तोड़ में माहिर नीतीश कुमार ने किसी – न – किसी तरह मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचा ली, चाहे इसके लिए उन्हें अपने सहयोगियों का साथ ही क्यों नहीं छोड़ना पड़ा हो? लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ मिल कर बिहार में महागठबंधन की सरकार चला रहे नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार और बेनामी संपत्ति मामले के आरोपों के बावजूद तत्कालीन उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव द्वारा इस्तीफा नहीं दिए जाने के कारण अपने नैतिक मूल्यों की दुहाई देते हुए वर्ष 2017 के जुलाई में रातों-रात इस्तीफा दे कर भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना ली थी.एक दूसरे को सांपनाथ और नागनाथ के नाम से सम्बोधित करनेवाले लालू यादव और नीतीश कुमार एक दूसरे के लिए बड़े भाई – छोटे भाई बन गए और 2015 का विधान सभा चुनाव मिलकर लड़ राज्य की सता में काबिज भी हो गए थे . यह वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाला  उजागर होने और उससे जुड़े मामलों के कोर्ट में ले जाने में अहम भूमिका निभाई थी. भाजपा के स्पष्ट संकेतों को देखते हुए बिहार विधान सभा के चुनाव से पहले इस बार यदि नीतीश कुमार अपनी राह बनाना चाहें तो मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उन्हें फिर विधानसभा में संख्याबल के कारण एक बार राजद का दामन थामना होगा. जद ( यू ) के विश्वस्त सूत्रों ने बताया कि इसके लिए कांग्रेस पार्टी सबसे उपयुक्त माध्यम बन सकती है. फिलहाल इसमें वक्त है इसलिए नीतीश कुमार कोई जल्दबाजी कर अपनी अपरिपक्वता का परिचय नहीं देंगे. विकास पुरुष की अपनी छवि बनाये रखने के लिए बिहार का निरंतर उन्हें विकास करना होगा और इसके लिए केंद्र में भाजपा की सरकार रहने पर उन्हें राजग के साथ रहना ही बेहतर होगा इसलिए जोड़ – तोड़ की सम्भावना विधान सभा चुनाव से पूर्व देखने को मिल सकती है. नीतीश कुमार को भी इसका अहसास है कि अकेले  दम पर वह न तो लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं और ना ही विधान सभा का इसलिए किसी न किसी गठबंधन में रहना उनकी मजबूरी है. पिछले लोकसभा के चुनाव में नीतीश कुमार के केवल दो ही सांसद चुनाव जीत सके थे जबकि इस बार राजग के साथ रहने का लाभ उन्हें मिला और उनके 16 उम्मीदवार विजयी घोषित हुए. हालांकि इस बार के लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे में भाजपा के साथ बार्गेन कर उसे झुकाना नीतीश कुमार के लिए महंगा पड़ सकता है. दो सांसदों वाले जद ( यू ) ने लोकसभा की 17 सीटें बिहार में बार्गेन कर ली . 22 सांसदों वाली भाजपा को अपनी जीती हुई पांच सीटें और अपने सहयोगियों की तीन सीटें नीतीश कुमार के लिए छोड़नी पड़ी .
   दरअसल नीतीश कुमार के साथ भाजपा के अनुभव खट्टे रहे हैं. नीतीश कुमार ने कई बार भाजपा को अपमानित कर इससे नाता तोड़ा है, ख़ास कर नरेंद्र मोदी के हिंदूवादी चहरे को लाकर . गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ अखबारों में छपी अपनी तस्वीर से खुन्नस खाए नीतीश कुमार ने पटना में 2010 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपनी तरफ से दिए गए रात्रि भोज को रद्द कर दिया था . इसके अलावा बिहार के कोसी क्षेत्र में आई भीषण बाढ़ में राहत कार्यों के लिए गुजरात सरकार की तरफ से भेजी गई पांच करोड़ रुपये की सहायता राशि भी लौटा दी थी. इससे भाजपा , विशेष कर नरेंद्र मोदी का एक तरह से अपमान हुआ था. 2013 में भाजपा के हिंदूवादी चेहरा नरेंद्र मोदी को पार्टी की लोकसभा चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज़ नीतीश कुमार ने राजग के साथ बिहार में सुगमता से चल रही सरकार में से भाजपा कोटे के 11 मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया था और राजग से नाता ही तोड़ लिया था. बाद में भाजपा को 2014 के लोकसभा के चुनाव में 22 सीटें मिली थीं. 2017 में फिर से भाजपा के साथ आने के बाद इस बार के लोकसभा का चुनाव जीतने पर मोदी मंत्रिमंडल में अपेक्षित सीटें नहीं मिलने से नाराज़ नीतीश कुमार ने दलील दी कि 16 सांसदों के बावजूद उनकी पार्टी को छह सांसदों वाली लोक जनशक्ति पार्टी के बराबर स्थान दिया जा रहा था जो स्वीकार्य नहीं है. नीतीश कुमार ने दरअसल बिहार के ताकतवर नेता के तौर पर खुद को दिखाने के लिए शपथ ग्रहण समारोह के ठीक एक घंटे पहले यह यू टर्न लिया। मोदी सरकार में अपनी पार्टी के लिए सांकेतिक साझेदारी की दलील के साथ नीतीश कुमार सम्मान नहीं मिलने से इस बार अड़ तो गए हैं किन्तु प्रचंड बहुमत के साथ ताकतवर रूप में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उभरनेवाली भाजपा उनसे विधानसभा के चुनाव में दूरी भी बना सकती है.

 


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