अगस्त मुनि को जल देने के साथ शुरू हो जाएगा पितरों के प्रति कृतज्ञता का पितृपक्ष
बेगूसराय, 19 सितम्बर (हि.स.)। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने वाला पितृपक्ष (महालया) सोमवार 20 सितम्बर को अगस्त मुनि को जल देने के साथ ही शुरू हो जाएगा। शास्त्रों के अनुसार जिनका निधन हो चुका है वे सभी पितृपक्ष के दिनों में अपने सूक्ष्म रूप के साथ धरती पर आते हैं तथा परिजनों का तर्पण स्वीकार करते हैं, प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष में किये गए दान-धर्म के कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है, साथ ही कर्ता को भी पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। सोमवार को अगस्त मुनि का तर्पण करने के बाद मंगलवार से लोग अपने पितरों-पूर्वजों को याद करते हुए तर्पण करेंगे। इसके बाद पिता के मृत्यु तिथि के अनुसार श्राद्ध तर्पण करेंगे। पितृपक्ष 20 सितम्बर छह अक्टूबर तक चलेगा, जिसमें सभी तिथि का अपना अलग-अलग महत्व है लेकिन पितृ पक्ष में पूर्णिमा श्राद्ध, महाभरणी श्राद्ध और सर्वपितृ अमावस्या का विशेष महत्व तथा एकादशी तिथि को दान सर्वश्रेष्ठ होता है। इस वर्ष पूर्णिमा श्राद्ध 20 सितम्बर, प्रतिपदा श्राद्ध 21, द्वितीय श्राद्ध 22, तृतीया श्राद्ध 23, चतुर्थी एवं महाभरणी श्राद्ध 24, पंचमी श्राद्ध 25, षष्ठी श्राद्ध 27, सप्तमी श्राद्ध 28, अष्टमी श्राद्ध 29 एवं नवमी श्राद्ध (मातृनवमी) 30 सितम्बर, दशमी श्राद्ध एक अक्टूबर, एकादशी श्राद्ध दो अक्टूबर को होगा। द्वादशी श्राद्ध, संन्यासी, यति, वैष्णव जनों का श्राद्ध तीन अक्टूबर, त्रयोदशी श्राद्ध चार अक्टूबर एवं चतुर्दशी श्राद्ध पांच अक्टूबर को होगा। इसके बाद छह अक्टूबर को पितृपक्ष के 16 वें दिन अमावस्या तिथि को अमावस्या श्राद्ध, अज्ञाततिथिपितृ श्राद्ध, सर्वपितृ अमावस्या एवं पितृविसर्जन के साथ ही महालया का समापन हो जाएगा। सुहागिन महिलाओं के निधन की तिथि ज्ञात नहीं रहने पर नवमी तिथि को उनका श्राद्ध होगा। अकाल मृत्यु अथवा अचानक मृत्यु को प्राप्त पूर्वजों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को होगा। यदि पितरों की मृत्यु तिथि का पता नहीं हो तो अमावस्या के दिन उनका श्राद्ध करना चाहिए।
पंडित आशुतोष झा ने बताया कि पितरों की आत्म तृप्ति के लिए हर वर्ष भाद्रपद की पूर्णिमा तिथि से आश्विन की अमावस्या तक पितृपक्ष होता है। श्राद्ध के दिन स्मरण करने से पितर घर आते हैं और भोजन पाकर तृप्त हो जाते हैं। इस पक्ष में अपने पितरों का स्मरण तथा उनकी आत्म तृप्ति के लिए तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध कर्म आदि किए जाते हैं। पितरों की आत्म तृप्ति से व्यक्ति पर पितृदोष नहीं लगता है, परिवार की उन्नति होती है, पितरों के आशीर्वाद से वंश वृद्धि होती है। पितृपक्ष में प्रतिदिन या पितरों के निधन की तिथि को पवित्र भाव से दोनों हाथ की अनामिका उंगली में पवित्री धारण करके जल में चावल, जौ, दूध, चंदन, तिल मिलाकर विधिवत तर्पण करना चाहिए। इससे पूर्वजों को परम शांति मिलती है, तर्पण के बाद पूर्वजों के निमित्त पिंड दान करना चाहिए। पिंडदान के बाद गाय, ब्राह्मण, कौआ, चींटी या कुत्ता को भोजन कराना चाहिए। पितृपक्ष के दौरान पूर्वज किसी ना किसी रूप में दरवाजे पर आते हैं, इसीलिए किसी भी मनुष्य, जीव, जंतु को दरवाजे पर दुत्कारना नहीं चाहिए। पितृपक्ष में यमराज भी पितरों को परिजनों से मिलने के लिए मुक्त कर देते हैं। पितृपक्ष में कोई भी शुभ कार्य, विशेष पूजा-पाठ और अनुष्ठान नहीं करना चाहिए।
उन्होंने बताया कि श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है, श्रद्धापूर्वक किए हुए कार्य को श्राद्ध कहते हैं। सत्कार्यों, सत्पुरुषों, सद्भावों के लिए कृतज्ञता की भावना रखना श्रद्धा कहलाता है। उपकारी तत्वों के प्रति आदर प्रकट करना, जिन्होंने अपने को किसी प्रकार लाभ पहुंचाया है, उनके लिए कृतज्ञ होना आवश्यक कर्तव्य है। ऐसी श्रद्धा हिंदू धर्म का मेरुदंड है, इस श्रद्धा को हटा दिया जाए तो हिंदू धर्म की सारी महत्ता नष्ट हो जाएगी और वह एक निःसत्त्व झूठ मात्र रह जाएगा। श्रद्धा हिंदू धर्म का एक अंग है, इसलिए श्राद्ध उसका धार्मिक कृत्य है। माता-पिता और गुरु के प्रयत्न से बालक का विकास होता है, इन तीनों का उपकार मनुष्य के ऊपर बहुत अधिक होता है। उस उपकार के बदले में बच्चों को इन तीनों के प्रति अटूट श्रद्धा मन में धारण किए रहने का शास्त्रकारों ने आदेश किया है। ”मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव” में इन्हें नर तनधारी देव मानने और श्रद्धा रखने का विधान किया है। स्मृतिकारों ने माता को ब्रह्मा, पिता को विष्णु और आचार्य को शिव का स्थान दिया है। यह कृतज्ञता की भावना सदैव बनी रहे, इसलिए गुरु जनों का चरणस्पर्श, अभिवंदन करना नित्य धर्मकृत्यों में सम्मिलित किया गया है। यह कृतज्ञता की भावना जीवन भर धारण किए रहना आवश्यक है। मृत्यु के बाद पितृपक्षों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन पर्व, समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति-स्मृतियों में विधान पाया जाता है। जल की एक अंजलि भरकर हम स्वर्गीय पितृदेवों के चरणों में उसे अर्पित कर देते हैं, तो उनके नित्य चरणस्पर्श, अभिवंदन की क्रिया दूसरे रूप में पूरी होती है। जीवित और मृत पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का यह धर्मकृत्य किसी ना किसी रूप में पूरा कर मनुष्य एक आत्मसंतोष का अनुभव करता है। हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृत व्यक्ति का श्राद्ध किया जाना आवश्यक माना जाता है। मान्यता है कि यदि श्राद्ध नहीं किया जाए तो मरने वाले की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है।