भारतीय क्षेत्र पर नेपाल के दावे को लेकर पिथौरागढ़ में बढ़ा गुस्सा

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देहरादून, 21 जून (हि.स.)। पिथौरागढ़ जिले के दुर्गम ऊंचाई वाले स्थानों और आसपास के अन्य ऊंचे इलाकों जैसे कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख में 220 किलोमीटर लंबे बीहड़ और ऊबड़-खाबड़ धारचूला-कैलाश मानसरोवर मार्ग पर हालात ठीक नहीं हैं। धारचूला पिथौरागढ़ का तहसील मुख्यालय है जबकि ये तीनों इलाके उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में भारत का हिस्सा हैं। पिथौरागढ़ की सीमाएं नेपाल से लगी हैं। जब से नेपाल ने आधिकारिक तौर पर कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपने मानचित्र में दिखाकर नेपाली संसद में प्रस्ताव पारित किया है, तब से ऊंचाई और दूर-दराज के इन दर्जनों गांवों में रहने वाले 20 हजार से अधिक लोग बहुत गुस्से में है।
दरअसल, इन तीन क्षेत्रों के निवासियों में गुस्से और व्यापक असंतोष की वजह नेपाल का वह एकतरफा कदम है, जो उसने कुछ दिन पहले नेपाल के अभिन्न अंग के रूप में इन स्थानों को अपने नक्शे में दिखाया है । नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारत पर इन भारतीय क्षेत्रों पर जबरन कब्जा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि ये हिस्से भारत के न होकर नेपाल के हैं। इसके बाद इलाके में हालात गंभीर हो चले हैं। नेपाल सरकार इस बारे में एक नक्शा प्रकाशित करने की हद तक चला गया, जिसमें इन क्षेत्रों को नेपाल के हिस्से के रूप में दिखाया गया है। हालांकि, भारत सरकार ने भारत के इन तीन अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर नेपाल के तथाकथित दावे को ठुकरा दिया। इसके बावजूद नेपाल अपने दावे से पीछे हठने से परहेज किया और उसने भारत नेपाल के मैत्रीपूर्ण संबंधों को प्रभावित करने तथा 1950 में एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए जाने के विस्तार के लिए भी अपना दावा वापस लेने से मना कर दिया था।
पिथौरागढ़ जिले के लिपुलेख में सेना के एक सेवानिवृत्त सूबेदार मान सिंह ने कहा, “जिस तरह से नेपाल इन तीन भारतीय क्षेत्रों को व्यापक रूप से प्रचारित कर अपने तथाकथित दावे को जता रहा है, उससे उसने निश्चित रूप से भारत के पक्ष को नाराज़ किया है।” धारचूला-कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर कालापानी क्षेत्र के पास रहने वाले अधिकांश निवासियों ने कहा कि चूंकि नेपाल चीन का कट्टर समर्थक है, इसलिए वह क्षेत्रीय मुद्दे पर भारत के साथ बेवजह गंभीर विवाद पैदा करने की कोशिश कर रहा है। नेपाल जाहिरा तौर पर यह हरकत चीन के इशारे पर कर रहा है। पिथौरागढ़ जिले के अधिकारियों के अनुसार 1950 में दोनों देशों के बीच मित्रता और शांति संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद से नेपाल के साथ भारत के सौहार्द्रपूर्ण संबंधों के बावजूद नेपाल दो पड़ोसी राष्ट्रों के बीच शांति और मैत्री संबंधों के स्थापित मानदंडों का बार-बार उल्लंघन कर रहा है।
उल्लेखनीय है कि नेपाल के तत्कालीन राजा महेंद्र बीर बिक्रम शाह ने 1960 में भारत समर्थक प्रधानमंत्री कोइराला को अचानक बर्खास्त कर दिया था और चीन के साथ मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसका नेपाल में भारत समर्थक लोगों और कम्युनिस्टों ने कड़ा विरोध किया था। उन्होंने काठमांडू में चीनी दूतावास खोलने का पुरजोर विरोध भी किया था। इसके बावजूद नेपाल कम्युनिस्टों के लिए एक उपजाऊ क्षेत्र साबित हुआ। यहां तक कि नेपाल के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के लिए 1989 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की काठमांडू यात्रा का कम्युनिस्टों और कुछ अन्य लोगों ने स्वागत नहीं किया और नेपाली मीडिया के एक वर्ग ने इसके बाद के वर्षों में भारत की निंदा शुरू की। इसके बाद देश की राजनीति में कुछ हद तक प्रभाव हासिल करने में सफल रहे पुष्प कमल दहल प्रचंड जैसे कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने भी अपनी ताकत का प्रदर्शन शुरू कर दिया।
इस माहौल ने चीन को नेपाल को अपने प्रभाव में लेने का सुनहरा मौका प्रदान किया। छोटे पड़ोसी को सभी प्रकार की सहायता बीजिंग की रणनीति का हिस्सा बनी और काठमांडू में कम्युनिस्ट सरकार की अंतिम स्थापना ने चीन के लिए भारत के साथ पारंपरिक नेपाली संबंधों को गुप्त रूप से प्रभावित करना बहुत आसान बना दिया। पिथौरागढ़ जिले के धारचूला से मानसरोवर के पास सबसे सुदूर बिंदु तक भारत द्वारा 82 किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण चीन को और अधिक नाराज करने के लिए किया गया लगता है, जिसने बदले में नेपाल को भारत के साथ खुलेआम इस मुद्दे में शामिल होने के लिए राजी कर लिया होगा।
इस घटनाक्रम को पिछले साल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की काठमांडू यात्रा के आलोक में भी देखा जा सकता है। उस दौरान उन्होंने नेपाल को काफी अधिक सहायता देने का वादा किया था। चीन के शीर्ष नेतृत्व और नेपाल की मेजबान कम्युनिस्ट सरकार के बीच और क्या हुआ होगा? इसे अब आसानी से समझा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि चीनियों ने कम्युनिस्ट शासन को भारत के खिलाफ खुलकर सामने आने का हौसला दिया है।
ऐसा नहीं है कि नेपाल ने भारत के इन तीनों क्षेत्रों पर पहली बार अपना दावा जताया है। दरअसल हिमालयी राज्य की कम्युनिस्ट पार्टी दशकों से इन तीनों प्रदेशों की वापसी की मांग कर रही है। बहुत से लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि दशकों से नेपाल में कुछ वामपंथी नेता ग्रेटर नेपाल का ख्याली पुलाव पका रहे हैं, जिसमें लगभग पूरा वर्तमान उत्तराखंड राज्य उस देश का हिस्सा बनेगा। कम से तीन क्षेत्रों की वापसी की मांग उसी दिशा में सिर्फ एक छोटा सा कदम प्रतीत होती है।
इस प्रादेशिक दावे का लंबा इतिहास रहा है। अठारहवीं शताब्दी के अंत में नेपाली राजा पृथ्वी नारायण शाह ने अपने राज्य का विस्तार करने के लिए पूर्वी हिस्से में लगने वाले दो स्वतंत्र पहाड़ी राज्यों और नेपाल के पश्चिमी हिस्से में एक पर हमला किया। पूर्वी दिशा में कुमाऊं और गढ़वाल राज्य थे, जबकि पश्चिमी दिशा में सिक्किम का राज्य अस्तित्व में था। भीषण लड़ाई के बाद नेपाल की बड़ी सेनाओं ने 1804 में गढ़वाल और कुमाऊं राज्यों पर विजय हासिल की।  इन राज्यों के विलय के बाद नेपाली सेनाएं पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र में कुछ और क्षेत्रों को अनुबंधित करने की भी योजना बना रही थीं। हालांकि कुछ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं ने गढ़वाल के तत्कालीन पराजित महाराजा प्रद्युम्न शाह के अंग्रेजों से मदद के अनुरोध के बाद सत्तारूढ़ गोरखाओं को दोनों राज्यों से खदेड़ दिया।
गढ़वाल में गोरखा शासन 12 साल तक चला जबकि कुमाऊं में यह 24 साल तक रहा। दोनों पूर्व राज्य अब उत्तराखंड का हिस्सा हैं। गोरखाओं ने सिक्किम पर 33 साल शासन किया। उन्होंने गढ़वाल और कुमाऊं पर लोहे के हाथ से शासन किया और आज भी उनकी अत्यधिक क्रूरता की कहानियों को अत्यंत नफरत और दहशत के साथ याद किया जाता है।

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