ऋग्वेद के ऋषि सृष्टि सृजन के रहस्यों के प्रति उत्सुक थे। उनकी जिज्ञासा तमाम निष्कर्ष देकर भी शांत नहीं होती। वे ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (ऋ0 10.129) में सृष्टि पूर्व का रेखा चित्र बताते हैं ‘तब न सत् था। न असत् था।’ न आकाश था। सबको आवृत करने वाले लोक नहीं थे। (वही 1) तब न मृत्यु थी और न अमरत्व। न दिवस थे, न रात्रि। मात्र वह एक था और वायुहीन स्थिति में अपनी क्षमता के बल पर स्पंदित था – अनादीवातं स्वधया तत् एकं। (वही 2) इस सूक्त के रचनाकार ऋषि हैं परमेष्टिन्। इस मंत्र के अनुसार सृष्टि सृजन के पूर्व रात-दिन मृत्यु अमरत्व नहीं थे लेकिन ‘वह एक’ था। यहां ‘वह एक’ बहुत महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ‘वह एक’ का उल्लेख कई बार हुआ है। एक मंत्र में कहते हैं ‘इन्द्र, अग्नि, गरूण आदि अनेक देवता हैं लेकिन सत्य एक है।’ विद्वान उसे अनेक नामों से बताते हैं- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। इस ‘वह एक’ में संपूर्ण अस्तित्व सम्मिलित है।
जीव विज्ञानी चार्ल्स डारविन (1809-1882) ने सृष्टि का उद्भव जल से बताया है। इसके पहले (ई0पू0 600) प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को सृष्टि का आदि तत्व बताया था। ऋषि परमेष्टिन ने इसके भी सैकड़ों वर्ष पहले ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि की पूर्व स्थिति का आश्चर्यजनक वर्णन किया। उन्होंने कहा, ‘तब सर्वत्र अंधकार पूर्ण जल – अप्रकेतं सलिलं था।’ (वही 10.129.3) सही बात है। जल सृष्टि का उद्भव केन्द्र है। लेकिन सूक्त के अंतिम दो मंत्र बहुत प्यारे हैं। ऊपर की तमाम बातें कहने के बाद कहते हैं, ‘सृष्टि कैसे हुई? किसने रचना की? किसने नहीं की? यह सभी बातें परमव्योम में बैठे इसके अध्यक्ष ही जानते होंगे? संभव है कि वे भी इस सम्बंध में कुछ न जानते हों – यो अस्य अध्यक्ष परमेव्योमन्तसो अंग वेद यदि वा न वेद।’ (वही 7) ऋग्वेद के ऋषि सब कुछ जानने का दावा नहीं करते। परमेष्टिन जिसे सृष्टि अध्यक्ष कहते हैं, उसे आदरपूर्वक परमव्योम में बैठा बताते हैं लेकिन उसकी जानकारी पर पूरा विश्वास नहीं करते। सूक्त मंत्र का ‘वह एक’ निस्संदेह आश्चर्यजनक दिव्यता है। वह वायुहीन दशा में भी स्वधया स्पंदित है लेकिन सृष्टि नहीं बनाता। मूलाधार जल है। ऋग्वेद की दृष्टि वैज्ञानिक है।
वृहदारण्यक उपनिषद् (5.5.1) में कहते हैं ‘सबसे पहले केवल जल थे। जल से सत्य उत्पन्न हुआ। सत्य से ब्रह्म, ब्रह्म से प्रजापति और प्रजापति से देवता उत्पन्न हुए।’ बताते हैं कि ‘ये देव सत्य की उपासना करते हैं।’ यहां देवता सृष्टि नहीं बनाते। वे सृष्टि के विकास में भी किसी भूमिका का निर्वहन नहीं करते। वे सत्य की उपासना करते हैं। उपनिषद् में जल को आदि तत्व जानने की परंपरा ऋग्वेद की है। जल सर्वोपरिता की अनुभूति ऋग्वेद में है। पहली सहस्त्राब्दी ई.पू. तक ऋग्वेद की यही प्रेरणा मिस्र, सुमेर, बेवलीलोन, यूनान आदि देशों तक विस्तृत थी। बाईबिल उत्तपत्ति 1.2 में उल्लेख है पृथ्वी ‘वेस्ट एण्ड वाइड’ थी। अंधियारे जल पर परमेश्वर की चेतना मंडराती थी। बाईबिल में वर्णित अंधकारपूर्ण जल ऋग्वेद के ‘अप्रकेत सलिलं’ की याद दिलाता है। अंग्रेजी भाषा में यही केओस है। बाईबिल में अंधकारपूर्ण जल से आच्छादित ‘केओस’ है। लेकिन सारी गतिविधि के संचालन के लिए परमेश्वर की उपस्थिति है। इस्लामी चिंतन में भी जल प्रथम है लेकिन ईश्वर सबका संचालक है।
भारतीय चिंतन में जल श्रद्धेय हैं। ऋग्वेद में यह आपः मातरम् – जल माताएं है। ऋग्वेद के अनुसार जलमाताओं ने ही विश्व को जन्म दिया है। बाईबिल में सृष्टि के आदि तत्व के रूप में ‘शब्द’ – लोगोस का भी उल्लेख है – प्रथमतः लोगोस – शब्द था। यह धारणा भी ऋग्वेद की है। ऋग्वेद (10.125) में वाणी संपूर्ण प्रकृति को धारण करती है। वाणी में सब व्याप्त हैं। वर्तमान ईराक में सुमेरी सभ्यता का विकास हुआ था। कुछेक विद्वान हड़प्पा को सुमेरी सभ्यता की प्रेरणा मानते हैं। सुमेरी सभ्यता के विवेचक क्रेमर ने ‘दि सुमेरियंस’ में बताया है कि ‘सुमेरी दार्शनिकों ने दैवी शब्द की सृजन शक्ति का सिद्धांत बनाया था। सृजनकर्ता को योजनाओं के बारे में बोलना था। शब्द उच्चारण से ही योजना पूरी हो जाती थीं।’ शब्द की शक्ति का यह सिद्धांत भारत से बाहर गया। ऋग्वेद में मंत्र या शब्द आकाश में भरे पूरे हैं। मंत्र आकाश से जागृत चित्त लोगों के भीतर उतरते हैं। शब्द शक्ति की पहचान का आदि केन्द्र भारत है। भारत में इस क्षमता का उल्लेख वाणी के निर्वचन रूप में ऋग्वेद में हुआ है।
ऋग्वेद में सृष्टि के पूर्व की दशा का नाम असत् है। सृष्टि प्रकट हो जाने की स्थिति सत् है। गीता में असत् के लिए अव्यक्त और सत् के लिए व्यक्त शब्द आए हैं। असत् शून्य नहीं है। कह सकते हैं कि तब सृष्टि का सारा भूत अति सूक्ष्म स्थिति में है। यह वैज्ञानिक कार्ल सागन द्वारा बताया गया ‘कास्मिक एग’ – ब्रह्मअंड है। ऋग्वेद में देवता शब्द का प्रयोग प्रायः प्रकृति की शक्तियों के लिए हुआ है। कहीं कहीं विद्वानों के लिए भी देव शब्द का प्रयोग हुआ है। असत् या अव्यक्त दशा में प्रकृति की शक्तियां नहीं हैं। ऋषि बृहस्पति आंगिरस के सूक्त (10.72) में देवों के उद्भव का वर्णन है। कहते हैं, ‘हम देवताओं के उद्भव का वर्णन सुंदर वाणी से करते हैं। इससे युगों का दर्शन प्राप्त होगा।’ (वही 1) सही बात है। देवों का उद्भव सृष्टि के साथ होता है। देवों के प्रादुर्भाव को जान लेने से युगों का परिचय भी सहज ही प्राप्त होगा।
सृष्टि का प्रारम्भ रोमांचकारी है। कहते हैं ‘देवों के पहले पूर्व युग में असत् से सत् का जन्म हुआ – देवानां पूर्वे युगे असतः सदजायत।’ (वही 2) जो देवों के पहले अव्यक्त था, वह व्यक्त हो गया। सृष्टि के पूर्व कोई न कोई पदार्थ अवश्य है। वही अतिसूक्ष्म होने के कारण अव्यक्त है। ऋग्वेद में इसका नाम असत् है। बताते हैं कि ‘तब आशा का जन्म हुआ। उर्ध्वगामी – ऊपर की ओर गतिशील ऊर्जा कणों का विस्तार हुआ।’ (वही 3) वैज्ञानिक भी इसी तथ्य से सहमत हैं। आगे का मंत्र ध्यान देने योग्य है। ‘भूः से उर्ध्वगामी कणों की रचना हुई। भुवः आशा का विस्तार हुआ।’ (वही 4) यहां भूः शब्द अविनाशी ऊर्जा का संकेतक है। इसी के परमाणु ऊपर की ओर गतिशील हुए। भुवः आशा संभवन का पर्याय है। संभवन आशा अर्थात होने का विस्तार हुआ। इसी मंत्र में आगे कहते हैं ‘अदिति से दक्ष पैदा हुए और दक्ष से अदिति।’ (वही) अदिति ऊर्जा की सनातनता हैं और दक्ष हैं – सृजनात्मक कौशल का प्रवाह। अदिति से दक्ष और दक्ष से अदिति निरंतरता के सूचक हैं।
चीन के एक दार्शनिक लाउत्सु (ई.पूर्व 400 वर्ष लगभग) ने भी सृष्टि रचना पर विचार किया था। उनकी पुस्तक ‘ताओ तेहचिंग’ काफी महत्वपूर्ण है। लाउत्सु के विचार में भी प्रकृति के भीतर सुंदर अंतर्भूत व्यवस्था है। उसने इस व्यवस्था का नाम रखा है – ताओ। प्रकृति संचालन के नियम ‘ताओ’ हैं। लाउत्सु का ‘ताओ’ ऋग्वेद का ऋत है। प्रकृति की सारी गतिविधियों के नियमन का नाम ऋत है। मैकडनल ने भी ऋत की सही व्याख्या की है ‘प्रकृति में क्रियाशील विश्वगत व्यवस्था को ऋत नाम से पहचाना गया है। यही शब्द नैतिक जगत में सत्य और उचित रूप में तथा धार्मिक जगत में यज्ञ अथवा कर्म के रूप में व्यवस्था की अभिव्यक्ति है।’ लाउत्सु की सृष्टि धारणा भी ऋग्वेद से मिलती है। उसने लिखा है ‘अंधकार से प्रकाश उत्पन्न हुआ। अरूप से व्यवस्था का जन्म होता है। ताओ जीवन ऊर्जा को जन्म देता है।’ लाउत्सु के निष्कर्ष में अंधकार से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यह धारणा उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व ऋग्वेद में हैं। ऋग्वेद में असत् से सत् प्रकट हुआ। लाउत्सु के कथन में अंधकार से प्रकाश पैदा हुआ। अंधकार और प्रकाश अलग अलग निरपेक्ष सत्ता नहीं है। अंधकार प्रकाश के पूर्व की स्थिति है। प्रकाश अंधकार का विकास है। दोनों अलग-अलग सत्ता होते तो सृष्टि सृजन या विकास की कार्रवाई में एक से दूसरे का जन्म न होता। अंधकार से प्रकाश, असत् से सत् या अव्यक्त से व्यक्त होने की धारणा ऋग्वेद (10.72 व 10.129) में पहले से है। लाउत्सु और ऋग्वेद की चिंतन भूमि भले ही अलग अलग है लेकिन निष्कर्ष एक हैं।
(लेखक उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)