‘योग निद्रा’ मुंगेर से फैलती
“ऋषिकेश तुम्हारे लिए छोटा पड़ेगा। तुम बाहर जाओ, संसार तुम्हारी राह देख रहा है। योग का प्रचार द्वारे-द्वारे, तीरे-तीरे करो।” स्वामी शिवानंद सरस्वती ने यह बात अपने प्रिय शिष्य स्वामी सत्यानंद से कही थी।
फिर योग का प्रचार करने निकले स्वामी सत्यानंद वर्ष 1956 में पहली बार मुंगेर पहुंचे। यहीं गंगा किनारे गोलकोठी में साधना की और चातुर्मास व्यतीत किया। 14 जुलाई, 1963 को जब उनके गुरु स्वामी शिवानंद ने महासमाधि ले तो मुंगेर में ही उन्होंने आश्रम बनाने का फैसला लिया और ‘बिहार योग विद्यालय’ की नींव रखी।
इससे पहले वे 1956 से 1963 तक योग के सिद्धांतों और विधियों का ज्ञान हासिल करने में जुटे रहे। उन पर विविध परीक्षण किया, ताकि यह जाना जा सकते कि वर्तमान सामाजिक जीवन में योग किस तरह अधिक लाभदायक और उपयोगी हो सकता है। इसके बाद उन्होंने योग सिखाने का कार्य आरंभ किया।
19 जनवरी, 1964 को वसंत पंचमी के दिन आश्रम का उद्घाटन हुआ। 15-15 दिनों की नि:शुल्क कक्षा लगने लगी। स्वामी सत्यानंद स्वयं कक्षाएं लेते। इन अभ्यासों से पेट साफ हो जाता था और हर व्यक्ति स्वयं को ऊर्जावान और प्रफुल्ल्ति महसूस करता।
एक ओर उन्होंने योग विद्यालय की स्थापना की। दूसरी ओर भविष्य में इसके रख-रखाव की योजना पर भी काम जारी रखा। वे मानते थे कि पवित्र परंपरा के पुनर्जागरण में सिर्फ वर्तमान नहीं, भविष्य भी होता है और उस भविष्य की अपनी एक दैवीय योजना होती है। इसी दैवीय योजना के तहत चार के अवस्था में स्वामी निरंजना बिहार योग विद्यालय आए। गुरु ने उन्हें योग और अध्यात्म का प्रशिक्षण दिया। कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो गए कि स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी संन्यास परंपरा में दीक्षित कर आगे के कार्यों से जोड़ दिया।
स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि योग विश्व की भावी संस्कृति बनेगी। इसी उद्देश्य से 1964 में मुंगेर में ही पहला अंतरराष्ट्रीय योग सम्मेलन हुए। जो लोग सम्मेलन में आए उन्होंने लौटने के बाद अपने-अपने देशों में प्रथम विद्यालय और योग केन्द्रों की स्थापना की। परिणाम यह आया कि 1970 के दशक में योग का कार्य पूरी दुनिया में तैजी से फैलने लगा।
1966 में दूसरा और फिर तीसरा अंतरराष्ट्रीय योग सम्मेलन हुआ। बिहार योग विद्यालय की गुरु परंपरा तेजी से फैली। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरी मठ से बिहार योग विद्यालय की परंपरा संबद्ध है। योग के ज्ञान से दुनिया का परिचय करने के लिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती कई देशों की यात्रा की।
बिहार योग विद्यालय को विश्व में योग शिक्षा और आध्यात्मिक विज्ञान के प्रमाणिक केन्द्र के रूप में स्थापित कर दिया। योग तपस्वी और योगियों की गुफा से निकलकर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गया। सभी धर्म के लोगों ने इनका अनुसरण किया। योग की प्राचीन पद्धतियों की विवेचना और व्याख्या की। इसका नतीजा रहा कि बिहार योग विद्यालय अन्य योग केंद्रों से विशिष्ट पहचान बनाने में सफल रहा।
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आगे अपने गुरु की परंपरा को मजबूती दी। प्राचीन यौगिक संस्कृति तथा संन्यास परंपरा की निरंतरता को कायम रखा। 1993 में उन्होंने अपने गुरु के संन्यास की स्वर्ण-जयंती के उपलक्ष्य में एक विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया। 1994 में उनके मार्ग-दर्शन में योग-विज्ञान के उच्च अध्ययन की संस्था ‘बिहार योग भारती’ की स्थापना की। 1993 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में ‘बाल योग मित्र मंडल’ की स्थापना की। इसका आरंभ मुंगेर के सात छोटे बच्चों से किया गया। आज बाल योग मित्र मंडल में 5,000 से अधिक प्रशिक्षित बच्चे योग शिक्षक हैं। भारत में यह संख्या 1,50,000 है।
दरअसल स्वामी सत्यानंद सरस्वती का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि यदि हम बच्चों तक पहुंच पाते हैं और उनके जीवन की गुणवत्ता और प्रतिभा में सुधार ला पाते हैं तो वे अपनी रचनात्मकता का अधिकतम उपयोग कर भावी जीवन के तनावों और संघर्षों का सामना बेहतर ढंग से कर पाएंगे।
स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती ने 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की स्थापना की। सन् 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की। मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ-साथ दुनिया भर के साधकों का मार्ग-दर्शन करने के लिए काफी यात्राएं की। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती देश के विभिन्न हिस्सों में ‘स्वयं को जानो, दिव्यता को पाओ’ कार्यक्रम के अंतर्गत यात्रा की। इस कार्यक्रम का नाम ‘स्वयं को जानो योगोत्सव भारत यात्रा’ दिया गया है, जहां लोग जीवन के उद्देश्य को नए रूप में देखते हैं।
इस कार्यक्रम के संयोजक स्वामी शिवराजानंद सरस्वती कहते हैं, “योग साधना के बारे में अधिकांश लोगों ने सुना है। पर कम ही लोगों ने इसका अनुभव पाया है। अनुभव कहता है कि आत्म-विकास या आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बाहरी जगत में नहीं है। वह हमारे भीतर ही है। इसलिए इस योगोत्सव में योग साधना के प्राचीन, परंपरागत ज्ञान का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाता है। लोगों को योग साधना के व्यावहारिक पक्ष के बारे में बताया जाता है, ताकि वे इस ज्ञान का अधिक से अधिक लाभ उठाकर आधुनिक जीवन के नकारात्मक प्रभावों को हटा सकें।’
स्मरण रहे कि ‘योग निद्रा’ स्वामी सत्यानन्द सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया ऐसा अमूल्य उपहार है, जिसके प्रभाव से लोगों को अनेक असाध्य रोगों से छुटकारा मिल रहा है। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी पर काबू रखने में सफलता मिल रही है। उन्होंने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों से साबित कर दिया कि ‘योग निद्रा’ के अभ्यास से संकल्प-शक्ति को जगाकर आचार-विचार, दृष्टिकोण, भावनाओं और सम्पूर्ण जीवन की दिशा को बदला जा सकता हैं। इस परंपरा को स्वामी निरंजनानन्द आगे बढ़ा रहे हैं।