नई दिल्ली, 12 अप्रैल (हि.स.)। भारत और चीन के बीच हुए समझौते के तहत विस्थापन प्रक्रिया पूरी होने के बाद सेना ने पैन्गोंग झील के दक्षिणी तट पर पूर्वी लद्दाख में चुशूल के स्थानीय ग्रामीणों के मवेशियों की आवाजाही पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।इस वजह से यह पूर्वी लद्दाख के चरवाहों के लिए ’नो-मैन्स लैंड’ बन गई है। यह प्रतिबन्ध उन दो स्थानों पर लगाया गया है जहां से भारतीय और चीनी सैनिकों को विस्थापित किया गया था। बीते दो दशकों के दौरान चीनी सेना ने जब-जब भारतीय इलाके में घुसपैठ करने का प्रयास किया है तो ऐसी स्थिति में स्थानीय चरवाहों ने ही उन्हें खदेड़ने की कार्रवाई की है।
रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि लद्दाख में वर्तमान परिचालन स्थिति के कारण चरवाहों को अपने मवेशियों के साथ आने-जाने के लिए प्रतिबंधित किया गया है। इससे पहले पैन्गोंग झील के दक्षिणी किनारे पर हेलमेट टॉप, ब्लैक टॉप और गुरुंग हिल की तलहटी के आसपास के क्षेत्र तक स्थानीय चरवाहे अपने मवेशियों को चराने के लिए आते थे लेकिन इसी साल की शुरुआत में भारत और चीन के बीच हुआ समझौता स्थानीय निवासियों के लिए मुसीबत बन गया है। फरवरी से दोनों देशों की सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया शुरू होने के बाद चरवाहों का आना कम हो गया था लेकिन अब तो इस पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इस वजह से पैन्गोंग झील के दक्षिणी किनारे की जमीन स्थानीय लोगों के लिए ‘नो-मैन्स लैंड’ बन गई है।
पूर्वी लद्दाख के चुशूल में लगभग 180 घर हैं और उनमें से लगभग 60 परिवार अपनी जीविका चलाने के लिए पशु पालन पर निर्भर हैं। यह प्रजनन का मौसम होने से जानवरों को चराने की आवश्यकता है क्योंकि यदि उन्हें अच्छी गुणवत्ता वाला चारा नहीं मिलता है तो पशुधन की मौत भी हो सकती है। सेना के अधिकारी मेजर जनरल के. नारायणन की ओर से 2 अप्रैल को जारी आदेश में कहा गया है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा स्पष्ट न होने से जमीन पर नागरिकों द्वारा एलएसी की गलत व्याख्या की जाती है। इस वजह से भारतीय चरवाहे अनजाने में ही चीनी सीमा में जा सकते हैं। इसलिए लद्दाख में वर्तमान परिचालन स्थिति के कारण चरागाहों को अपने पशुओं को चराने के लिए प्रतिबंधित किया गया है।
पैन्गोंग झील लद्दाखियों के लिए बहुत अहम है। इस झील में नमक भी पैदा होता है। इसके औषधीय गुण भी हैं और लद्दाख के लोग इसका निर्यात भी करते रहे हैं। भारतीय क्षेत्र में चुशूल इलाके के अग्रिम हिस्सों में तमाम चरागाह हैं। चीनी सैनिक अपने गड़रिए को आगे कर इन चरागाहों पर अक्सर अपना हक जताते हुए डेरा लगाकर बैठ जाते हैं। इस स्थिति में चीनी गड़रियों को खदेड़ने का काम लद्दाखी गड़रिए ही करते हैं। यही लोग सबसे पहले चीनी घुसपैठ की खबर स्थानीय प्रशासन तक पहुंचाते हैं और चीनी सैनिकों का जल्द से जल्द इलाका छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं। इनमें से अधिकांश इलाकों में आबादी बिल्कुल भी नहीं है। सिर्फ घुमंतू चरवाहे ही इन इलाकों में भारतीय सेना के लिए आंख, नाक व कान का काम करते रहे हैं।