बेगूसराय, 27 अगस्त (हि.स.)। ‘मर्त्य मानव के विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी- अपने समय का सूर्य हूं मैं’ का उद्घोष करने वाले देश-दुनिया में चर्चित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के 111वीं जयंती समारोह की तैयारी शुरू हो चुकी है। दो दिवसीय जयंती समारोह में 23 और 24 सितम्बर को दिनकर जी के गांव सिमरिया में राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार, कवि, संस्कृतिकर्मी और राजनेता जुटेंगे।
इस अवसर पर ‘समर शेष है’ का विमोचन होगा। जिसमें दिनकर पुस्तकालय सिमरिया के प्रांगण में बड़े-बड़े लोग आएंगे। सभी लोग प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर उनके व्यक्तित्व, कृतित्व पर चर्चा करेंगे। संभव है कि कुछ लोग दिनकर जी के घर जाकर भी श्रद्धांजलि देंगे। वहां पर दिनकर जी से जुड़े स्मृति चिन्ह को देखेंगे तथा बड़ी-बड़ी बातें होगी लेकिन दुर्भाग्य है कि घर के बगल में बना दलान जो विषैले जीवों का बसेरा बन चुका है, उसपर किसी का ध्यान नहीं जाएगा। जिस दलान पर बैठकर उर्वशी, कुरुक्षेत्र जैसी कालजयी रचनाएं गढ़ी गयी थी।। एक समय था जब दिनकर जी गांव आते थे तो इसी दलान पर बैठकी लगती थी। दलान की बैठकी में जम्मू-कश्मीर के रहने वाले रेलवे के चीफ इंजीनियर मिस्टर कौल से लेकर दक्षिण भारत के रहने वाले सिमरिया ब्रिज के चीफ पद्मनाभन तक शामिल होते थे। देश, दुनिया, समाज के हालातों पर चर्चा होती थी।
दिनकर जी के भतीजे नरेश सिंह कहते हैं कि मैं जब छोटा था उस समय चाचाजी इसी दलान पर लोगों से मिलते थे, बैठकी लगती थी, साहित्यिक बातें होती थी। समाज की बातें होती थी और साहित्य की रचना को धार दिया जाता था लेकिन उदासीनता के अभाव में वह दो कमरे का दलान आज धराशाही हो रहा है। ऐसा नहीं है कि दिनकर ग्राम सिमरिया का विकास नहीं हुआ। रेलवे ने स्टेशन का नाम दिनकर ग्राम कर दिया। 2014 में सांसद बने डॉ. भोला सिंह ने गांव को गोद लिया।
बरौनी रिफाइनरी ने पुस्तकालय परिसर में भव्य सभागार आदि बनवा दिया। कई अन्य सांसद, विधायक ने वहां विकास की गंगा बहाने का भरसक प्रयास किया। जो कुछ हद तक दिख भी रहा है लेकिन दलान की ओर ध्यान नहीं देना कहीं ना कहीं इतिहास की उपेक्षा जरूर है। नाम नहीं छापने की शर्त पर ग्रामीण बताते हैं कि दिनकर जन्मस्थली के विकास की कमान थामने वाले दिनेश सिंह के प्रयास से 15 जनवरी 2004 को जब बरौनी रिफाइनरी के ईडी में उसे भव्य रूप देने के लिए शिलान्यास किया था तो उस योजना से इस दलान को भी भव्य रुप दिया जाना था लेकिन उसके अगले ही दिन अहले सुबह दिनेश सिंह की हत्या कर दी गयी। इसके बाद दिनकर के दलान को लोगों ने विस्मृत कर दिया। योजना भी उठकर पुस्तकालय पर चली गई।
हालांकि दिनकर जी के पुत्र केदारनाथ सिंह ने अपने खर्च से जन्मगृह को भव्य रूप दिया है लेकिन दलान को वैसे ही छोड़ दिया गया। ग्रामीणों की मानें तो प्रत्येक साल समारोह का आयोजन करने वाली समिति का ध्यान ऐतिहासिक दलान की ओर नहीं जाना दुर्भाग्य की बात है। कम से कम साल में एकबार भी उसपर झाड़ू लगता रहता तो ऐसी हालत नहीं होती।