नरेन्द्र कोहली भारतीयता की जड़ों परिचय कराते थे
नई दिल्ली, 18 अप्रैल (हि.स)। ‘साहित्य रचना में मेरे राम वाल्मीकि के अधिक निकट ठहरते हैं।’ डॉ. नरेन्द्र कोहली स्वयं यह बात दोहराते थे। वे इस बात में यकीन रखते थे कि राजा राम की तरह प्रत्येक राजा को स्वजन निष्ठुर होना चाहिए। उसे अपनों के मोह में नहीं आना चाहिए। ‘रामकथा’ को नए संदर्भ में परिभाषित करने वाले डॉ. नरेन्द्र कोहली ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
यह खबर आई थी कि डॉ. कोहली बीमार हैं। कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए हैं। उम्मीद थी कि वे जल्द ही स्वस्थ होकर घर लौटेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। शनिवार को अस्पताल से उनके शरीर त्याग देने की खबर आई।
जिस परिवार में डॉ. कोहली पैदा हुए थे, वह सियालकोट का मध्यम वर्गीय नौकरी-पेशा परिवार था। उनकी स्कूली शिक्षा लाहौर में शुरू हुई थी, लेकिन देश का बंटवारा हुआ तो उनका परिवार जमशेदपुर चला आय़ा। यहां उन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी की। सन् 1961 में रांची विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। फिर आगे की शिक्षा के लिए दिल्ली चले आए।
दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए की शिक्षा पूरी की। 1970 में पी.एचडी की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया। लेकिन उनका मन लेखन की तरफ लगा रहा। कहते हैं कि 1974 में जब उन्होंने रामकथा को आधार बनाकर ‘दीक्षा’ उपन्यास लिखा तो उस पांडुलिपि को देखकर कोई प्रकाशक उपन्यास छापने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिरकार ‘पराग प्रकाशन’ के श्रीकृष्ण ने उपन्यास को छापा। ‘दीक्षा’ छपकर आई तो उसकी काफी चर्चा हुई।
‘दीक्षा’ के साथ वे अपने समकालीन साहित्यकारों के बीच भिन्न पहचान रखने लगे। इसके बाद वे अपनी दृष्टि से साहित्य को समृद्ध किया। अपनी रचनाओं के जरिए भारतीयता की जड़ों तक पहुंचे, लेकिन स्वयं पर कभी पुरातनपंथी होने का आरोप नहीं लगने दिया।
इसी तरह ‘महाभारत’ कथा को केंद्र में रखकर ‘महासमर’ की रचना की। स्वामी विवेकानंद की जीवनी पर आधारित उनका उपन्यास काफी चर्चा में रहा। कोहली ने उपन्यासकार के साथ-साथ कहानीकार और नाटककार, व्यंग्यकार के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। वे हिंदी में अपने ढंग के अलग साहित्यकार थे। उन्होंने मिथकीय धरातल पर रचना की खोज की और उसकी सार्थकता को स्थापित किया।
जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक परिचय कराया। ‘महाकाव्यात्मक उपन्यास’ विधा को प्रारंभ करने का उन्हें विशेष श्रेय जाता है। रामकथा की नई जमीन को नए मानवीय और आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनके बारे में लिखा था- ‘रामकथा को नरेन्द्र कोहली ने एकदम नयी दृष्टि से देखा है।’
मानवीय संवेदना के पारखी नरेन्द्र कोहली अपने समय के सबसे प्रतिभाशाली साहित्यकारों में गिने जाते रहे। सन् 1995 में स्वैच्छिक अवकाश लेकर वे पूरी तरह लेखन कार्य में रम गए थे। अपनी लेखनी से डॉ. कोहली ने युग को प्रभावित किया और युग-प्रवर्तक लेखक कहलाए।
समाज में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। साहित्य की दुनिया में उन्हें ढेरों पुरस्कार मिले। उत्तर प्रदेश शासन से राज्य साहित्य पुरस्कार दिया। हिंदी अकादमी दिल्ली से शलाका सम्मान मिला। ऐसे पुरस्कारों की लंबी सूची है, जिससे वे पुरस्कृत व सम्मानित किये गए।
6 जनवरी 1940 को जन्मे नरेन्द्र कोहली अचानक हमारे बीच से चले गए। वे 81 वर्ष के थे। 17 अप्रैल को कोरोना महामारी ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया।