प्रभात झा
सुषमा स्वराज पुराने नेताओं की जितनी निकट थीं, उससे अधिक नये नेताओं के करीब थीं। वह प्रतिभाशाली कार्यकर्ताओं की संरक्षक थीं। वे सतत संगठन और सरकार के बारे में सोचती रहती थीं। प्राण छोड़ने के कुछ घंटों पूर्व उन्होंने जो ट्वीट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था, उसमे उन्होंने लिखा था कि -‘प्रधानमंत्री जी, आपका हार्दिक अभिनन्दन! मैं अपने जीवन में इस दिन को देखने की प्रतीक्षा कर रही थी।’ उनका यह ट्वीट स्वतः दर्शाता है कि वह विचारधाराओं से कितनी ओत-प्रोत रही हैं।
सुषमा स्वराज भारत की महिलाओं नेत्रियों में एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नाम था। उन्होंने अपने विकास की लकीर अपनी प्रतिभा से खींची थी। वह उस समय भारतीय राजनीति में आईं जब सामान्य तौर पर सामान्य परिवार की महिलाएं राजनीति में नहीं आती थीं। उन्हें देश ने कब जाना यह कहानी भी रोचक है। आपातकाल का समय था। जॉर्ज फर्नांडिस जैसे सैकड़ों नेता आपातकाल में जेल में थे। उस समय किसी मीसाबंदी की अदालत में पैरवी करना स्वयं को जेल जाने का निमंत्रण देना था। सुप्रीम कोर्ट में जॉर्ज फर्नांडिस मामले में सुनवाई थी। उन्हें वकील नहीं मिल रहे थे। तब सुषमा स्वराज मात्र 23 वर्ष की उम्र में अपने पति स्वराज कौशल के साथ कोर्ट में जॉर्ज फर्नांडिस के लिए खड़ी हुईं। उनके इस साहस की चर्चा पूरे देश के राजनीतिक गलियारों में हुई। वे निडर थीं। अनुशासित और साहसिक थीं।
सन् 1977 में देश में हरियाणा में विधानसभा का चुनाव हुआ। सुषमा स्वराज अम्बाला से जनता पार्टी की उम्मीदवार बनाई गईं। उन्होंने न सिर्फ चुनाव जीता बल्कि सरकार में कैबिनेट मंत्री बनीं। उन्हें 25 वर्ष की उम्र में आठ मंत्रालय सौंपा गया। देश ने सुषमा को तब और अधिक जाना। वह कुशल वक्ता थीं। 1979 में वह हरियाणा जनता पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष बना दी गईं। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क दिल्ली में बढ़ता गया। वह पलवल (हरियाणा) की रहने वाली थीं। उनके पिता का सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था।
जब 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठन हुआ तब सुषमा भाजपा के साथ चली गईं। तब से भाजपा में उनकी पहचान धीरे-धीरे बनती और बढ़ती गई। उनकी वाक्पटुता और भाषण से सभी प्रभावित होते गए। देश में अटलजी को वाणी का जादूगर कहा जाता था तो सुषमा स्वराज को महिलाओं में वाणी की जादूगरनी कहा जाने लगा। सन् 1983 की घटना है। वह मध्य प्रदेश में ग्वालियर के नगर निगम के चुनाव में आयी थीं। अटलजी की जन्मस्थली ग्वालियर रही। वर्षों बाद वहां नगरीय निकाय के चुनाव हो रहे थे। अतः अटलजी ने उन्हें ग्वालियर जाने को कहा था। सुषमा स्वराज ग्वालियर आईं। तब उनकी बेटी बांसुरी मात्र दो वर्ष की थी। महाराजबाड़े पर उनकी सभा रखी गयी थी। जब वह मंच पर जा रही थीं तो उन्होंने कहा कि मेरी बांसुरी को कौन खिलाएगा। हमें लगा कि वह बांसुरी बजाती होंगी तो उसे रखना होगा। लेकिन उन्होंने कहा कि बांसुरी मेरी यह दो साल की बेटी है। मैं जब तक भाषण दूंगी, तब तक इसे गोदी में खिलाना होगा। मैं स्वदेश की तरफ से रिपोर्टिंग करने गया था। मैंने कहा, दीदी मैं खिलाऊंगा। मैं बांसुरी को खिलाता रहा और सुषमा स्वराज का भाषण टेप रिकॉर्डर में टेप करता रहा। जब वह भाषण देकर उतरीं तो पूछा कि बांसुरी रो तो नहीं रही थी। मैंने कहा नहीं। वह बोलीं कि देखो प्रभात, मेरी दो साल की बेटी भी मुझे पार्टी कार्य में सहयोग करती है। मैंने सुषमा स्वराज से भोजन करते हुए पूछा कि आपने अपनी बेटी का नाम बांसुरी क्यों रखा? उन्होंने कहा कि मैं बंसीवाले की भक्त हूं। जैसे-जैसे उनसे सम्पर्क बढ़ता गया तो पता चला कि वह गीता, महाभारत और दिनकरजी के साथ हिन्दी के सभी वरिष्ठ कवि और लेखकों की सैकड़ों किताबों का अध्ययन कर चुकी हैं।
सुषमा स्वराज भारतीय राजनीति में एक सम्मानित नाम रहीं। उन्होंने सदैव प्रतिष्ठा की राजनीति की। निर्णय के पहले सभी विषयों पर चर्चा करना और निर्णय के बाद सिर्फ निर्णय को क्रियान्वित करने की दिशा में आगे बढ़ना उनका स्वभाव था। पार्टी ने उन्हें दिल्ली में चुनाव के चार माह पूर्व मुख्यमंत्री बनाया। वह पीछे नहीं हटीं। पार्टी ने उन्हें सोनिया गांधी के खिलाफ बेल्लारी से चुनाव लड़ाया। वह पीछे नहीं हटीं। बेल्लारी चुनाव में वह कन्नड़ सीखने लग गईं। जानकर आश्चर्य होगा कि वह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी के साथ-साथ कन्नड़ भी बोलती थीं।
सुषमा भारतीय राजनीति में परिचय की मोहताज नहीं थीं। अटलजी के मंत्रिमंडल में वह कैबिनेट मंत्री थीं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट में भी विदेश मंत्री थीं। वह भाजपा की प्रवक्ता भी रहीं। बाद में महासचिव बनीं। उसके बाद पार्लियामेंट्री बोर्ड की मेम्बर बनीं। एक समय ऐसा आया कि देश में चुनाव के समय सभाओं में अटलजी और आडवाणीजी के बाद सर्वाधिक मांग सुषमा स्वराज की होती थी। सुषमा स्वराज ने अपनी वाणी की छाप पूरे देश पर छोड़ी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से छात्र राजनीति से जुड़ीं सुषमा स्वराज ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सुषमा स्वराज अपने दिए गए कार्यों को सदैव समर्पण भाव से करती थीं। उन पर सदैव अटलजी और आडवाणीजी का आशीर्वाद रहा। सुषमा स्वराज को भारतीय राजनीति में जो स्थायित्व मिला उसमें भाजपा नेतृत्व का बहुत बड़ा योगदान था। वह उस समय और अधिक चर्चा में आईं जब यूपीए प्रथम में कांग्रेस के लोगों ने कहा कि वह सोनिया गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाएंगे। अति गंभीर नेता सुषमा स्वराज ने उनका खुलकर विरोध ही नहीं किया बल्कि उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेस यह निर्णय लेती है तो मैं पूरे देश में बाल मुंडवाकर इनका विरोध करूंगी। मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी कि आजाद भारत में कोई विदेशी भारत का प्रधानमंत्री बने। वह जहां अपनी विचारधारा की प्रबल समर्थक थीं, वहीं वे नीतिगत आधार पर विरोध करने में भी पीछे नहीं रहती थीं।
वह दिल्ली से चुनाव लड़ीं। वह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से राज्यसभा में आईं। राज्यसभा में विपक्ष की नेता के रूप में उन्होंने अपनी धारदार पारी खेली। वह हर विषय का गहन अध्ययन करती थीं, तब बोलती थीं। वे हमारे मध्य प्रदेश की विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ने आईं। हम लोगों का और भी सम्पर्क बढ़ गया। मैं उस समय मध्य प्रदेश पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष था। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र में कभी किसी को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह बाहरी हैं। उन्हें किसी ने समझा भी नहीं कि वह बाहरी हैं। वह पूरे मध्य प्रदेश में दीदी के नाम से जानी जाने लगीं। सुषमा स्वराज ने अपने संसदीय क्षेत्र की कार्य पद्धति बतौर सांसद अलग प्रकार से बनायी थी। उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया। सुषमा स्वराज ने अपने सम्पूर्ण जीवन को भारत माता के लिए सौंप दिया। उन्होंने कभी अपने शरीर की चिंता नहीं की। बीमार होने बाद भी वह पूरे देश में चुनाव प्रचार में लगी रहती थीं। उन्हें डायबिटीज था। किडनी का ट्रांसप्लांट हुआ था। वह फिर भी नहीं रुकीं। उन्होंने भारतीय राजनेता में संस्कारित जीवन जिया। उन्होंने इंदौर में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि अब वह आगामी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी।
आज बिरले ही लोग बचे हुए हैं, जो यह कहने का साहस रखते हैं कि चुनाव नहीं लड़ना है। जबकि सच्चाई यह थी कि यदि वह विदिशा से फार्म भरकर भी चली जातीं तो पांच लाख से अधिक मतों से जीतकर आतीं। सुषमा स्वराज ने भारतीय राजनीति में महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर की तरह राजनीति का बल्ला तब उठाया, जब उनमें राजनीतिक क्षेत्र में बल्ला घुमाने और शतक बनाने का सामर्थ्य था। उन्होंने एक आदर्श राजनीतिक जिंदगी जी। यही कारण है कि उन्हें उनके अंतिम संस्कार में सर्वदलीय श्रद्धांजलि मिली।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा के सदस्य हैं।)