बिहार की सियासत पर महाराष्ट्र घटनाक्रम का असर

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महाराष्ट्र में जैसे ही शिवसेना और भाजपा अलग राहों पर चल पड़े तो अंदाजा ये भी लगाया जा रहा है कि बिहार में भी भाजपा और जदयू के रिश्तों पर भी इसका असर पड़ सकता है।



2020 में बिहार विधानसभा का चुनाव है। इसको लेकर हर दल अभी से फूंक-फूंककर कदम उठा रहे हैं कि किसी की छोटी-सी भूल उसके गले की हड्डी न बन जाए। महाराष्ट्र में हुए ताजा राजनीतिक घटनाक्रम के बाद देश में गठबंधन वाली सरकारों को भी अपनी बाजी खेलने का अवसर दिखने लगा है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि जब महाराष्ट्र में कुर्सी के लिए शिवसेना और भाजपा की तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी दोस्ती टूट गई। एक सप्ताह तक चलने वाले हाई वोल्टेज ड्रामे के बाद दो अलग-अलग विचारधारा के साथ राजनीतिक सफर तय करने वाले साथ मिलकर उद्धव ठाकरे को ताज पहनाने में सफल हो गए तो इसका इसका असर कई दूसरी जगहों पर भी दिखेगा।

महाराष्ट्र में जैसे ही शिवसेना और भाजपा अलग राहों पर चल पड़े तो अंदाजा ये भी लगाया जा रहा है कि बिहार में भी भाजपा और जदयू के रिश्तों पर भी इसका असर पड़ सकता है। महाराष्ट्र में हुई राजनीतिक हलचल ने सारे कयासों और भ्रमों को तोड़कर रख दिया है। महाराष्ट्र में हुए मामलों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले और चुनाव के बाद गठबंधन का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है। यह  राजनीतिक उठापटक इस विचार को भी मजबूत करती है कि राजनीति अब बिना सिद्धांत के बनकर रह गई है।

बिहार में नीतीश कुमार को सुशासन बाबू कहा जाता है। बिहार को विकास की राह पर ले जाने के लिए देश-दुनिया में चर्चा है। एनडीए नीतीश कुमार को अपना चेहरा मानकर बिहार की सियासी चाल चल रही है। इसलिए किसी भी स्तर पर एनडीए में नीतीश कुमार के चेहरे पर किसी तरह का विवाद भी नहीं होना चाहिए। मगर आगामी चुनाव में एनडीए में घमासान के संकेत से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। आपको याद दिला दूं कि वर्ष 2010 में भाजपा 101 और जदयू 142 सीटों पर चुनाव लड़े थे। वहीं वर्ष 2013 में जदयू ने भाजपा से किनारा किया और 2014 में लोकसभा और 2015 में विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा मगर आगे 2017 में दोनों दल एकबार फिर साथ आ गए। बीच में राजद और जदयू साथ आए थे लेकिन जल्द ही दोनों के बीच तालाक हो गया। 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में दोनों दल बराबर के फार्मूले पर मैदान में थे।

बिहार में जदयू अगर बड़े भाई की भूमिका में है तो भाजपा छोटे भाई की भूमिका में मैदान में है। अब सवाल ये उठता है कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों पर सीटों का कैसे बंटवारा होगा, आपसी सामंजस्य बैठेगा या फिर महाराष्ट्र की तर्ज पर राहें जुदा होंगी। जबकि 2015 में जदयू 101 और राजद 101 तो कांग्रेस 41 सीटों पर चुनाव लड़े थे और अच्छा परफॉर्मेंस रहा था। उम्मीद है कि इसबार भी एनडीए के तीन दलों भाजपा, जदयू और लोजपा की सीटों का बंटवारा भी इसी फॉर्मूले पर होगा।

देखने वाली बात ये है कि चुनाव में सीटों के बंटवारे पर कितना आपसी सामंजस्य बनता है या फिर आपसी द्वंद्व की नींव पड़ जाएगी। क्योंकि बिहार एनडीए में दोनों ही दल महत्वाकांक्षी हैं। इसबार यदि जदयू बराबर के हिस्से की बात करती है और इसपर भाजपा से बात नहीं बनती है तो इसका असर महाराष्ट्र की पुनरावृति हो सकती है। अंतर बस इतनी ही होगा कि चुनाव पहले ही दोनों दलों के बीच रिश्तों की तस्वीर साफ हो जाएगी। इस नजरिए से देखें तो जदयू को किसी भी तर्क से सीटों को लेकर समझौता नहीं करना चाहिए। इस लिहाज से जदयू 120 से भी ज्यादा सीटों पर दावा कर सकती है।

इसमें एक बात और देखने को मिल सकता है कि अगर एनडीए में बात यूं ही बनी रही तो चुनाव जीतने के बाद भी कई समस्याएं आड़े आ सकती हैं। जिसकी सीट ज्यादा आएगी वह सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ सकती हैं। जदयू अगर इस खेल में सीटों के लिहाज से आगे होती है तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। लेकिन भाजपा को अगर बढ़त मिल जाती है तो खेल का रुख दूसरा हो सकता है। जैसा कि 2010 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में देखने को मिल चुका है। इन दोनों दलों के बीच छोटे दल की भूमिका में एलजेपी को दरकिनार करना भी मुश्किल होगा, इसकी भूमिका सरकार बनाने और बिगाड़ने की हो सकती है। एलजेपी अपने शुरुआती दौर से ही सत्ता के करीब रहने वाली पार्टी है इसलिए यह मौसम को भांपते हुए कदम बढ़ाती है। हालांकि लोजपा का सॉफ्ट कॉर्नर भाजपा ही हो सकती है क्योंकि बिहार की राजनीति में राजद, जदयू और लोजपा यानि लालू-नीतीश और रामविलास हैं। इन तीनों नेताओं की महत्वाकांक्षा की लड़ाई में तीनों ने अपने कद को पाया है। हमेशा से केंद्रीय राजनीति में खुद को स्थापित रखने वाले रामविलास इसबार भी अपनी राजनीति में तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं।

वर्तमान राजनीति अपने सिद्धांत और विचारधारा से दूर अपनी गोटी लाल करने वाली कही जा सकती है। अगर बिहार में सोच समझकर नीतीश कुमार अपनी चाल नहीं चलेंगे तो भाजपा बिहार की सत्ता पर काबिज होने के लिए राजद के साथ भी हाथ मिला सकती है। जैसा कि कश्मीर से लेकर अन्य कई प्रांतो में ऐसा देखने को मिल चुका है। महाराष्ट्र में बाजी हारने के कारण भाजपा बिहार में कुछ भी कर सकती है। लेकिन उसको एक बात और याद रखनी चाहिए कि नीतीश कुमार को भी कच्चा खिलाड़ी समझना बड़ी भूल होगी। नीतीश कुमार भी कुशल नेतृत्वकर्ता के रूप में जाने जाते हैं। अगर एनडीए में कुछ गड़बड़ हुआ तो ये अपने पुराने घर लौटकर राजद और कांग्रेस के साथ भी सरकार बना सकते हैं। इसलिए महाराष्ट्र को देखते हुए बिहार विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से लेकर सरकार बनाने तक सोच-समझकर सभी दलों को कदम उठाना होगा, वर्ना सारे दल सिद्धांत छोड़ सियासत का कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकते हैं।


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