बेगूसराय, 12 जुलाई (हि.स.)। अनेकता में एकता का संदेश देकर पर्व-त्योहारों के जरिये रिश्तों में मिठास घोलने की परंपरा भारत में सदियों पुरानी है। इन्हीं पर्व, त्योहार और लोक पर्व की परंपराओं में से एक है मधुश्रावणी। मिथिलांचल का यह अनूठा पर्व पति के दीर्घायु तथा सुख-शांति के लिए शादी के बाद पहली साल आए सावन में महिलाएं करती हैं। सांस्कृतिक विशिष्टताओं में मधुश्रावणी ना केवल एक व्रत और लोक पर्व है, बल्कि यह आज भी जताता है कि महिलाओं को किसी ना किसी रूप में अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। नाग पंचमी के दिन से ही नव विवाहिताएं यह लोक पर्व मना रही है। कोरोना के कारण अन्य साल की तरह सड़कों पर नहीं निकल रही हैं, सड़कों पर गीत सुनाई नहीं पड़ रहे हैं। लेकिन विधि विधान में कोई कमी नहीं है और घर के अंदर रहकर ही यह श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जा रहा है।
क्या होता है इस लोक पर्व में-
सावन माह की कृष्ण पक्ष पंचमी तिथि से लगातार श्रावण शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि तक नवविवाहिता द्वारा मधुश्रावणी पूजा की जाती है। सुहागिनों के इस व्रत का समापन 23 जुलाई को है। पूरे व्रत के दौरान गौरी-शंकर के साथ विषहारी और नागिन की भी विशेष पूजन होता है। पंद्रह दिनों तक चलने वाला यह पर्व नव दम्पतियों का मधुमास है। प्रथा है कि इन दिनों नवविवाहिता ससुराल के दिए कपड़े-गहने ही पहनती हैं और भोजन भी ससुराल के अन्न का बिना नमक के 14 दिन भोजन करती हैं।
रोज सुनाई जाती है अलग-अलग कथाएं-
इस पर्व के दौरान गणेश, चनाई, मिट्टी एवं गोबर से बने विषहारा एवं गौरी-शंकर की विशेष पूजा कर महिला पुरोहिताईन से कथा सुनती है। शिवजी-पार्वती सहित 14 खंडों की कथा सुनाई जाती है। इनमें शंकर-पार्वती के चरित्र के माध्यम से पति-पत्नी के बीच होने वाली नोक-झोंक, रूठना मनाना, प्यार, मनुहार जैसी बातों का भी जिक्र होता है, जिससे नवदंपती सीखकर अपने जीवन को सुखमय बनाएं। रोज अलग-अलग कथाओं में मौना पंचमी एवं विषहारा जन्म, बिहुला मनसा एवं मंगला गौड़ी, पृथ्वी जन्म एवं समुद्र मंथन, सती पतिव्रता, महादेव पारिवारिक, गंगा गौड़ी जन्म एवं काम दहन, गौड़ी तपस्या, गौड़ी विवाह और वर वरियाती, मैना मोह, कार्तिक गणेश जन्म, पतिव्रता सुकन्या, बाल बसन्त एवं गोसाउन तथा श्रीकर राजा की कथा सुनाई जाती है।
कोरोना का है असर-
15 दिनों तक चलने वाला यह पर्व नव दंपतियों का मधुमास है। जिसको लेकर नवविवाहिताओं ने खास तैयारियां कर रखी थी। लेकिन लॉकडाउन के कारण फूल लोढ़ने के लिए बाहर नहीं जाकर घर पर ही अपने सहेलियों के साथ फूल लोढ़ना और डाली सजाना पड़ रहा है। कोरोना के कारण घर से निकलना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए पूजा के बाद घर पर ही अपने परिजनों के साथ फूलों से डलिया सजाते हैं। (बासी फूल और पत्तियों से होती है पूजा अर्चना-) तमाम देवी-देवताओं के पूजा के लिए ताजा फूल का उपयोग किया जाता है। लेकिन मधुश्रावणी में बासी फूल और पत्तियों से पूजा-अर्चना होती है। प्रतिदिन पूजन के बाद नवविवाहिता अपने सखी सहेलियों के साथ समूह बनाकर गांव के आसपास के मंदिरों एवं बगीचों में बांस की टोकरी में फूल और पत्ते तोड़ती हैं तथा गीत गाती हुई भरपूर आनन्द लेती है। इस फूल का उपयोग सूबह पूजन में किया जाता है, इसका विशेष महत्व है। पूजन स्थल पर पूूूरन (कमल का पत्ता) के पत्ते पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती है।
अग्नि परीक्षा का ही रूप है टेमी दागना-
पूजा स्थल पर नवविवाहिता की देख रेख में अखंड दीप प्रज्वलित रहते हैं। पंडितों का कहना है कि मधुश्रावणी पर्व कठिन तपस्या से कम नहीं है। पूजा के आखिरी दिन पति को पूजा में शामिल होना होता है। इस दिन सोलह श्रृंगार से सजी नवविवाहिता को टेमी से दागने की परंपरा है। मधुश्रावणी के अंतिम दिन देर शाम जलते दीप के बाती से शरीर के कुछ स्थानों पर (घुटने और पैर के पंजे) दागने की परम्परा भी वर्षों से चली आ रही हैं। कहा जाता है कि इसके माध्यम से महिलाओं के धैर्य और त्याग की परीक्षा होती है, जैसे सीता को भी अग्नि परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ा था।