लॉस एंजेल्स 04 मई (हिस): न्यू यॉर्क में तीन दशक पहले कर्नाटक से एक युवा आनंद मुलिया रोज़गार की तलाश में आया था। एक भारतीय नारी के रूप में पत्नी रजनी अत्तावर ने कालांतर में अपने दो बेटों अमित (21 वर्ष) और अक्षय (16 वर्ष) को बड़े प्यार और लग्न के साथ पाल पोस कर बड़ा किया था। माँ रजनी ने बालकाल से ही इन दोनों बच्चों में भारतीय संस्कृति कूट -कूट कर भरी थी। पिछले दिनों 8 अप्रैल को 56 वर्षीय आनंद ने अपने क्वींस स्थित घर में अंतिम सांसें ली थी, तब पत्नी और छोटा बेटा अक्षय साथ थे। पसीने से तर-बतर आनंद के सिर पर पसीने की बूँदों को पत्नी ने बाख़ूबी साफ़ किया और ‘आनंद’ नाम से पुकारा भी। उन्हें क्या मालूम था कि उसे कोरोना ने डस लिया है। यह तो 911 पर फ़ोन करने और पुलिस गाड़ी में आए सहकर्मियों ने उन्हें बताया था कि आनंद के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। उन्हें मृत्यु का जो सर्टिफ़िकेट मिला उस पर साफ़ लिखा था ”इंफलयुएँजा जैसी बीमारी’ । इस भारतीय परिवार की आँखों के सामने पुलिस आनंद के शव को सफ़ेद चादरनुमा बोरी में बाँध कर लिए जा रही थी, और पत्नी तथा दोनों बेटे दिवंगत की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे थे। सामाजिक दूरी बनाए रखने का प्रकोप इतना ज़्यादा रहा कि उस समय उन्हें नहीं मालूम था कि शव को कहाँ, किस शव दाह गृह में ले जाया जाएगा? बरूकलिन शवदाह गृह के मालिक शेर्मन बताते हैं कि अँधेरा होने पर दाग़ नहीं दिया जा सकता और ना ही मृतक के प्रियजनों को समीप आने की अनुमति ही दी जा सकती है।
सी एन एन की बुद्धवार को एक रिपोर्ट के अनुसार अमित को इस बात का अफ़सोस रहा की वह अपने पिता को ‘अलविदा’ भी नहीं कह सका। उसी ने अंतिम बार अपने पिता का मूँह देखा था। उन दिनों कोरोना से मरने वालों की स्थिति ही भयावह थी। न्यू यॉर्क शहर में क़ब्रिस्तान हो अथवा विद्युत शव दाह गृह, सभी के बाहर ट्रकों में शवों के अंबार लगे थे। उस दिन कोरोना से 799 लोग मरे थे। उनमें सभी धर्म और सम्प्रदायों के शव हैं। इनमें कुछ ट्रकों में शव बर्फ़ के ऊपर हैं तो कुछ बर्फ़ के नीचे दबे पड़े हैं।ये शव कितने दिनों से अपनी अंतिम संस्कार के लिए पंक्ति में लगे हैं, यह भी किसी को मामूम नहीं है और न ही यह मालूम है कि किस की कब बारी आएगी। बस, सफ़ेद, काली और पीली प्लास्टिक नुमा बोरी पर मृतक के नाम से पता चल पारहा है कि वह हिंदू अथवा मुस्लिम या ईसाई। सी एन एन ने जब आनंद के परिवार में पत्नी, बेटों से बात की थी, तब तीन सप्ताह का समय हो चुका था। अमित बता रहा था कि भारतीय संस्कृति के अनुसार मृत्यु के पश्चात एक दो दिन में बड़ा बेटा ही पिता को मुखाग्नि देता है, लेकिन उसे नहीं मालूम कि उसके पिता को किस शव दाह गृह में अंतिम संस्कार किया गया होगा। अंतिम संस्कार की बात उसे बाद में पता चली, तब वे पिता के शव के क़रीब नहीं थे। उसने घर में ही उनके चित्र के सामने मोमबत्ती जला कर अंतिम नमस्कार कर लिया। अमित बरूकलिन कालेज में रसायन का छात्र था।
पत्नी को इतना भर संतोष था कि उसके पति ने अपनी अंतिम साँसे घर में लीं। रजनी बताती हैं: आनंद 1995 के क़रीब न्यू यॉर्क आए थे। वह तब कर्नाटक में हेरूर गाँव में रहते थे। उनके पति ने पढ़ाने के अलावा कुछ ड्रग स्टोर में भी काम किया था। न्यू यॉर्क आने के बाद सिक्यूरिटी गार्ड का काम करने के अलावा सब वे स्टेशन पर एजेंट का भी पाँच साल काम किया। बेटे अमित ने बताया कि पिता आनंद को अस्पताल ले जाने से पूर्व टेली मेडिसिन के ज़रिए एक डाक्टर से परामर्श किया गया था। उसने सलाह दी थी कि उन्हें कोरोना टेस्ट करने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें टेलेनोल (क्रासीन) दे दी जाए और पानी पीने को बार बार दिया जाए।
न्यू यॉर्क में शव दाह गृह और क़ब्रिस्तान की स्थिति यह थी कि सभी के अपने अपने रेफ़िजेरेटर शवों से आते पड़े थे। एक वक़्त था कि ये क़ब्रिस्तान और शव दाह गृह एक सप्ताह में 20 से 24 शवों का अंतिम संस्कार करते थे। तब लोग बड़ी संख्या में आते थे और अपने प्रियजनों को पूरे सम्मान के साथ अपनी अपनी रीति रिवाज के साथ अलविदा कहते थे। ये स्थान ही ऐसे थे, जो बिछुड़ों को भी मिला देते थे, लेकिन कोरोना ने सामाजिक दूरियों के नाम पर अपनों को जुदा कर दिया है। इनमें कुछ क़ब्रिस्तान के मालिक अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के अलावा धन बटोरने में लगे हैं। इनमें एंड्रयू टी कलेक्केलय फ़्यूनरल होम का लाइसेंस भी रद्द कर दिया गया है।