गांव में भूखा रहने से बेहतर, परदेस में भरपेट खाकर कोरोना से संघर्ष करना
बेगूसराय, 12 जून (हि.स.)। वैश्विक महामारी कोरोना के कहर से बचने के लिए लॉकडाउन के बाद उत्पन्न स्थिति ने ना सिर्फ देशभर में भागमभाग की स्थिति उत्पन्न कर दी, बल्कि इससे गांव से लेकर शहर तक की अर्थव्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो गई। कोरोना संक्रमित मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए सरकार ने कई दिशा-निर्देश लागू कर रखे हैं। लोगों को बाहर निकलने से रोका जा रहा है, सोशल डिस्टेंस का पालन करने की सलाह दी जा रही है लेकिन पेट की भूख ने कोरोना को पीछे छोड़ दिया है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता समेत 12 शहर को सरकार ने ‘क’ श्रेणी में रखा है तथा यहां मरीजों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है लेकिन इन शहर को छोड़ घर आए लोग अब एक बार फिर इन्हीं शहरों की ओर रुख कर चुके हैं। इनकी मजबूरी है, गांव में काम नहीं है तो परदेस जाने के सिवा कोई विकल्प ही नहीं है। परदेस नहीं जाएंगे, पैसे नहीं आएंगे तो परिवार कैसे चलेगा। कोरोना पेट पर तो रोक लगा नहीं सकता है।
दिल्ली-मुंबई आदि के लिए स्पेशल ट्रेन चलाए जाने के बाद उनकी परदेस वापसी सिर्फ श्रमिकों की नहीं हो रही है। श्रमिक से भी अधिक ऐसे लोग परदेेेेस की ओर भाग रहे हैं, जिनका दिल्ली, मुंबई में कोई ना कोई धंधा है। कोई धंधा करते हैं, कोई प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं। अगर नहीं जाएंगे तो धंधे में लगी पूंजी बर्बाद हो जाएगी। प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले अगर नहीं जाएंगे तो उनके निकाले जाने का खतरा रहेगा। परदेस जा रहे लोगों का कहना है कि गांव में रहकर भूूूखे मरने से बेहतर है कि भरपेट खाकर कोरोना से संघर्ष किया जाए। इम्यूनिटी पावर बढ़ाकर संघर्ष करेंगे तो कोरोना हारेगा, हम और हमारा देश जीतेगा।
बरौनी जंक्शन से ट्रेन पकड़ कर अपने परिवार के साथ मुम्बई जा रहे मुकेश ने बताया कि लॉकडाउन होने के बाद मुंबई के वर्धा में चल रहा उनका कारोबार ठप हो गया था। किसी तरह पहले से बचे पैसे के सहारे वहां दिन गुुजार रहे थे। सरकार ने जब श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई तो वह भी 20 अप्रैल को गांव आ गया था लेकिन यहां रहकर क्या करते, वर्धा में अपना छोटा सा जनरल स्टोर है। वहीं दुकान के पीछे सपरिवार रहते हैं, मजे से जिंदगी जी रहे थे। घर के लोगों ने मुम्बई में कोरोना संक्रमण के बढ़ रहे मामले से उत्पन्न संकट को देखते हुए जाने से मना किया लेकिन बगैर गए तो गुजारा नहीं हो सकता है। चार साल से मुम्बई में रह रहे हैं, लॉकडाउन में भले ही सरकार ने मदद नहीं किया, स्थानीय लोगों ने हेय दृष्टि से देखा, बावजूद इसके वहां भी अपना समाज है।
मुकेश कहते हैं कि हम प्रवासियों को हर स्तर पर परेशानी उठानी पड़ती है। हमारे दर्द को महसूस करना सबके बस की बात नहीं है। लोग अपने राज्य में रोजी-रोटी का जुगाड़ नहीं हो पाने के कारण ही तो दूसरे राज्यों में अपना श्रम सस्ते में बेच रहे हैं ताकि परिवार का भरण-पोषण हो सके। सरकारों के कथनी और करनी में अंतर होता है, मेहनत मजदूरी कर कमाने-खाने वाले ऐसे ही व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते। यहां सरकार काम देने की कवायद कर रही है, श्रमिकों को मनरेगा, सात निश्चय समेत अन्य योजना में काम मिल रहा है लेकिन यह काम कितने दिन और कितने मजदूर को मिलेगा। उद्योग धंधा शुरू करने में सरकार को वर्षों लग जाएंगे।