जरूरी है शिक्षा का भारतीयकरण

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दिल्ली, 26 जून (हि.स.)। शिक्षा प्रणाली का किसी भी देश के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान होता है। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जिस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए थी, उसका हमारे देश में नितांत अभाव महसूस किया जाता रहा है। शायद, स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारे नीति निर्धारकों ने शिक्षा नीति बनाने के बारे में कम चिन्तन किया। इसी कारण आज की नई पीढ़ी को इतिहास की जानकारी देने से वंचित किया जा रहा है। यहां यह बताना आवश्यक है कि इतिहास कोई सौ या दो सौ सालों में नहीं बनते। जहां तक भारत के दो सौ सालों के इतिहास की बात है तो इस दौरान भारत परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा रहा था। इसलिए स्वाभाविक है कि उस कालखंड का इतिहास हमारा मूल इतिहास नहीं कहा जा सकता। अगर हमें भारत के इतिहास का अध्ययन करना है तो उस कालखंड में जाना होगा, जब भारत पर किसी विदेशी का शासन नहीं था। क्या आज यह इतिहास कोई जानता है, … बिलकुल नहीं।
मार्क्सवादी चिन्तक मैकाले ने शिक्षा के लिए जिस नीति को समाज के लिए प्रस्तुत किया, उसका हमारी सरकारों ने आंख बंद करके समर्थन किया। लेकिन इसके परिणाम क्या होंगे, इसका चिन्तन नहीं किया गया। नतीजतन, आज सरेआम कहीं-कहीं भारत माता को डायन कहने के स्वर सुनाई देते हैं, तो कहीं भारत तेरे टुकड़े होंगे बोलने वालों का जमावड़ा दिखाई देता है। आज जो वातावरण देश में दिखाई देता है, उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपनी मूल धारा से विमुख होते दिखाई दे रहे हैं। हमें विदेशी गुलामी के बाद जिस प्रकार का भारत मिला, हमारी सरकारों ने वैसे ही स्वरुप में उसे स्वीकार कर लिया।
देश में अभी जो शिक्षा प्रदान की जा रही है, वह सांस्कृतिक मानकों के हिसाब से भारतीय नीति के अनुरूप नहीं कही जा सकती। विश्व के प्राय: सभी देशों में जो शिक्षा प्रदान की जाती है, वह उस देश के मूल भाव को संवर्धित करती हुई दिखाई देती है। इसके अलावा शिक्षा का मूल यह होना चाहिए कि उसमें उस देश का मूल संस्कार परिलक्षित हो। हमारे देश में किस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जा रही है, इसका अध्ययन करने से पता चलता है कि जिन महापुरुषों ने देश की सुरक्षा को अपने कर्तव्य का मूल समझा था, आज वे महापुरुष राजनीति का शिकार होते जा रहे हैं। हमने महापुरुषों को भी राजनीतिक दलीय आधार पर बांटकर रख दिया। हमारे देश के महापुरुषों में शामिल कई ऐसे हैं, जिनकी वाणी भारतीयता का बोध कराती थी। यानी उनकी वाणी भारत की आवाज होती थी। लेकिन आज भारत की आवाज को मुखरित करने वाले उन महापुरुषों को हमारी सरकारें लगभग भूलती जा रही हैं। अंग्रेज जिनको सत्ता सौंप कर गए, उनका ही बोलबाला देश में सुना जाता है। हमारे देश की कुछ किताबों में छत्रपति शिवाजी को आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जब हम भारत की रक्षा करने वाले वीर शिवाजी को आतंकवादी के रूप में पढ़ेंगे, तब हमारी युवा पीढ़ी से हम किस प्रकार से यह अपेक्षा करें कि वे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रति सजग रहें। इसी प्रकार जिन महापुरुषों ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए बलिदान दिया, उनको पूरा सम्मान भी नहीं मिल रहा। उनको इतिहास की किताबों में भी नहीं पढ़ाया जा रहा है।
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटना के बाद एक बार फिर से भारतीय शिक्षा नीति के बारे में अध्ययन करने की आवश्यकता आन पड़ी है। शिक्षा को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहली, किताबी शिक्षा तो दूसरी व्यावहारिक शिक्षा। किताबी शिक्षा के लिए आज भारत के शिक्षालय समर्पित दिखाई देते हैं। देश का हर निजी विद्यालय लगभग विदेशी शिक्षा से प्रभावित होकर अपने संस्थान में विदेश से प्रेरित शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। जिसमें अंग्रेजी भाषा की प्रधानता तो है ही, साथ ही अंग्रेजी संस्कारों की बहुलता का दर्शन कराया जाता है। कौन नहीं जानता देश के ईसाई शिक्षा संस्थानों को, जिसमें प्राय: बच्चों को भारतीयता से दूर रखने का प्रयास किया जाता है। कई शिक्षा संस्थानों में इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि छात्रों को केवल ईसाई धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है। चर्च के रूप में संचालित किए जाने वाले ये ईसाई शिक्षा केंद्र आज भारत को नकारने जैसे ही कार्य करते दिखाई देते हैं। वहां भारत माता की जय बोलने पर प्रतिबंध होता है। कई बार छात्रों को भारत माता की जय बोलने पर दंडित किया जाता है। जिस शिक्षा के संस्थानों में उस देश के संस्कार नहीं होते, उस संस्थान की शिक्षा उस देश के विरोध में की गई कार्रवाई का ही हिस्सा माना जाता है।
वर्तमान में हमारे देश के सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत का अध्ययन करने से पता चलता है कि इन संस्थानों में छात्रों की उपस्थिति लगातार गिरती जा रही है। इसके पीछे का मूल कारण हमारी वर्तमान शिक्षा नीति है। वास्तव में शिक्षा के स्वरूप में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। समूचे देश में शिक्षा का भारतीयकरण होना चाहिए। यह भारत देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कुछ कुत्सित मानसिकता के लोगों द्वारा शिक्षा के भारतीयकरण को भगवाकरण का नाम दे दिया जाता है। भगवाकरण के नाम पर विरोध करने वाले वे ही लोग हैं, जो कथित बुद्धिजीवी बनकर देश की सरकारी सुविधाओं का भरपूर उपयोग कर रहे हैं। भारतीयकरण शिक्षा का वास्तविक अर्थ यही है कि भारत से जुड़ी शिक्षा छात्रों को प्रदान की जाए। भारतीय मूल्यों के साथ रोजगारपरक शिक्षा सभी को देनी होगी, तभी देश से बेरोजगारी जैसी समस्या का भी निर्मूलन हो सकेगा। साथ में अन्य क्षेत्रों में भी विकास तेजी से नजर आएगा। हमें पहले यह समझना होगा कि शिक्षा किसलिए जरूरी है? क्या केवल साक्षर होने या नौकरी के लिए पढ़ाई की जानी चाहिए अथवा इसके और भी गहरे मायने हैं? विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय वह केंद्र होते हैं जहां विद्यार्थी को वैचारिक स्तर पर गढ़ने का कार्य किया जाता है। सही बात यही है कि यदि प्रत्येक शिक्षण संस्थान के सभी प्रमुख अंग शिक्षक, शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी अपने दायित्वों का निर्वहन सही तरीके से ईमानदार होकर करने लगें तो भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होते खतरे से आसानी से निपटा जा सकता है। जितना संभव हो उतना अधिक आर्थिक व अन्य सहयोग देश की शिक्षण संस्थाओं को दिया जाए।
पहले भारत की शिक्षा के प्रति विश्व के सभी देशों में एक आदर भाव था। विश्व के कई देशों के नागरिक भारत के शिक्षालयों में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। लेकिन आज के युवा विदेश में पढ़ाई करने के लिए उतावले होते जा रहे हैं। यह हमारी शिक्षा नीति का दुष्परिणाम ही कहा जाएगा। इस सबका परिणाम यह है कि भारतीय छात्रों में उत्तम किस्म की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशों के प्रति आकर्षण निरंतर बढ़ता जा रहा है। दुनिया के देशों के बीच आज भी भारत में उच्च शिक्षा में सबसे कम जनसंख्यात्मक अनुपात के हिसाब से प्रवेश होते हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए किए जा रहे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा राज्यों के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा लाख प्रयास किए जाने के बाद भी स्थिति में अभी तक बहुत सुधार नहीं आ पाया है। जैसी शिक्षा दी जाएगी, देश का मानस उसी प्रकार का बनता जाएगा। इसलिए समाज को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे असली भारत का निर्माण हो सके।

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